'तुम्हें खोजने का खेल खेलते हुए' : विष्णु खरे की कविताओं के बारे में कुछ बातें

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कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल की नयी पुस्तक 'तुम्हें खोजने का खेल खेलते हुए' वाणी प्रकाशन ग्रुप से प्रकाशित हुई है।

यह एक दुर्लभ संयोग है कि एक विख्यात कवि व आलोचक की बातों को, उनके विशिष्ट वाक-सौन्दर्य/चातुर्य या ख़ुशबयानी को सिलसिलेवार याद करने की परम्परा का एक प्रसिद्ध कवि व रंगकर्मी द्वारा सर्जनात्मक निर्वाह किया गया है। जैसे याद की भी एक जगह पहले से तय हो। इन आख्यानों को स्मृति का लिबास तो ओढ़ाया गया है लेकिन यह लिबास अपने मे अनेक प्रश्नों के उत्तर भी पाठकों के सामने रखता है। विष्णु खरे से सम्बंधित ऐसे अनेक विवरण इस पुस्तक में आते हैं जिन्हें पढ़ते हुए लगता है मानो विष्णु खरे की (अनुपस्थिति) उपस्थिति आज भी सघन, गूढ़ और रोमांच से परिपूर्ण है।

इस बहुप्रतीक्षित पुस्तक में विष्णु खरे के जीवन के अनेक क्षणों और उनकी विचार-प्रक्रिया के साथ उनके संवाद संप्रेषित करने की तनाव-रहित भंगिमा को लेकर भी एक स्मृतिनुमा आख्यान लिखा गया है।

व्योमेश शुक्ल ने इस किताब में कई बहानों से विष्णु खरे को याद किया है या यह कहा जाये कि वे किसी भी बहाने से विष्णु खरे को विस्मृत नहीं होने दिया, तो अधिक उपयुक्त होगा। फिर चाहें वो संस्मरण हों या उनकी कविताएँ या उनके जीवन के महत्वपूर्ण पल या ऐसी निजी और बेबाक बातें जिन्हें केवल विष्णु खरे के नज़रिए से देखा, सुना और कहा जा सकता था, जैसे एक जगह वे यह कहते हैं: "मुक्तिबोध ने मेरा जीवन चौपट कर दिया है। मुक्तिबोध से बिना होड़ लिए, मुक्तिबोध को बगैर सोचे मैं कोई काम कर ही नहीं सकता। मैं लिख नहीं सकता। मुक्तिबोध हमेशा खड़ा रहता है मेरे पीछे। उसे जवाब दिये बिना मैं कुछ भी लिख नहीं सकता। मुक्तिबोध हम सबका एक बहुत बड़ा सेंसर है हिन्दी समाज मुक्तिबोध को बेवक़ूफ़ नहीं बना सकता।"

विष्णु खरे पर केन्द्रीभूत यह पुस्तक दरअसल एक मानवीय पड़ताल स्वयं विष्णु खरे की है। एक ऐसी पड़ताल, जिसमें विष्णु खरे को किसी नये संदर्भ में याद नहीं किया जा रहा बल्कि उनकी चिरपरिचित संवाद-शैली को आज के स्थापित मूल्यों के अर्थ में बहुत शिद्दत से याद किया जा रहा है। यह भी विदित रहे कि विष्णु खरे को दोहराया नहीं जा सकता न ही उनके बौद्धिक 'अतिरेक' की ओर से मुँह मोड़ा जा सकता है। पुस्तक और लेखक अपने मन्तव्य में स्पष्ट हैं कि यह विष्णु खरे के प्रति असीम आदरभाव और  फिक्रमन्द होने की अदम्य इच्छा से अस्तित्व में आयी है। और इस तरह के व्यापक और आस्थावान साहित्यिक कार्य को अवश्य पढ़ा भी जाना चाहिए।

हिन्दी कविता के कुछ अनिवार्य चेहरे रहे हैं। दुर्भाग्य से बीते वर्षों में इन चेहरों को समय की चादर ने ढाँप दिया। इन अनिवार्य उपस्थितियों में विष्णु खरे का नाम एक स्थिर स्मृति की तरह लिया जाता है। विष्णु खरे न केवल अपनी कविता के लिए हिन्दी साहित्य के विराट परिदृश्य में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं बल्कि वे आलोचना के लिए भी उतने ही जाने जाते रहे।

'तुम्हें खोजने का खेल खेलते हुए' कवि और रंगकर्मी व्योमेश शुक्ल की एक ऐसी ही कृति है जो विष्णु खरे के परिवेश को समझने की एक ईमानदार कोशिश के रूप में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।

वाराणसी में जन्मे व्योमेश ने बचपन से लेकर स्नातकोत्तर तक की शिक्षा यहीं से प्राप्त की है। उन्होंने इराक पर हुई अमरीकी ज़्यादतियों के बारे में मशहूर अमेरिकी पत्रकार इलियट वाइनबर्गर की किताब 'व्हाट आई हर्ड अबाउट इराक़' का हिन्दी अनुवाद किया है;  जिसे हिन्दी की प्रतिष्ठित पत्रिका 'पहल' ने एक पुस्तिका के तौर पर प्रकाशित किया। व्योमेश ने विश्व साहित्य से नॉम चॉम्स्की, हार्वर्ड ज़िन, रेमंड विलियम्स, टेरी इगल्टन, एडवर्ड सईद और भारतीय वांग्मय से महाश्वेता देवी और के. सच्चिदानन्दन के लेखन का अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद किया है। वे भारत भूषण अग्रवाल स्मृति सम्मान से सम्मानित हैं तथा नाटकों के निर्देशन के लिए इन्हें संगीत नाटक अकादमी का उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ाँ युवा पुरस्कार दिया गया है।

वाणी प्रकाशन ग्रुप द्वारा प्रकाशित यह पुस्तक लेखकों के लिए स्थापित विचारधारा के लक्षणों का समर्थन न करते हुए एक ऐसी विचारधारा को पाठकों के सामने लाती है जो विष्णु खरे को भारतीय साहित्य में 'मिसफिट', 'अप्रत्याशित' और 'अनिवार्य' जैसे शब्दों के सन्दर्भ में याद करती है।

तुम्हें खोजने का खेल खेलते हुए
लेखक : व्योमेश शुक्ल
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 136
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