यशस्वी भारत : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझने के लिए एक ख़ास किताब

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वैचारिक मतभेद होने के बाद भी एक देश के हम सब लोग हैं और हम सबको मिलकर इस देश को बड़ा बनाना है.

'यशस्वी भारत’ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विद्यमान सरसंघचालक मा. मोहनजी भागवत के भिन्न-भिन्न प्रसंगों पर, भिन्न-भिन्न स्‍थानों पर दिए हुए भाषणों का संग्रह है। इस संग्रह में 2018 के सितंबर मास में दिल्ली में ‌दिए गए दो भाषणों तथा तृतीय दिन के प्रश्नोत्तरी का भी अंतर्भाव है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को समझना वैसे आसान नहीं है। फिर भी यह संग्रह कुछ मूलभूत बातों पर अच्छा प्रकाश डालता है। जिनकी बुद्धि निर्मल है, ऐसे लोगों को संघ समझना, कुछ मात्रा में क्यों न हो, इस पुस्तक के पठन से आसान होगा।

संघ : सामाजिक क्षेत्र का अनन्वय:

अलंकार यह मैं इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि संघ को समझना आसान नहीं है। संघ की, जिसके साथ तुलना करें या साम्य बतलाएँ, ऐसी कोई संस्‍था या संगठन विश्व भर में नहीं है। संघ यानी एक प्रकार का सामाजिक क्षेत्र का ‘अनन्वय’ अलंकार है। साहित्य शास्‍त्र में जिसके साथ तुलना हो सके, ऐसा कोई उपमान नहीं मिलता, तब ‘अनन्वय’ अलंकार होता है। उसके उदाहरणस्वरूप एक श्लोक दिया जाता है—

गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः।

रामरावणयोर्युद्धं रामरावणयोरिव।।

आकाश कितना बड़ा है? उत्तर है ‘गगनाकारम्’। यानी आकाश इतना ही। सागर कितना गहरा है? उत्तर है सागरोपमः। यानी सागर की सागर के साथ ही तुलना की जा सकती है। वैसे ही राम-रावण का युद्ध। राम-रावण के युद्ध के समान ही है। ‘उपमा’ अलंकार के दो घटक रहते हैं। एक उपमेय और दूसरा उपमान। किसी सुंदर मुख को हम ‘मुखचंद्र’ कहते हैं। इसमें ‘मुख’ उपमेय है और ‘चंद्र’ उपमान। कभी हाथ की तुलना कमल से की जाती है और ‘करकमल’, यह शब्‍द प्रचलित होता है। इसमें ‘कर’ उपमेय है और ‘कमल’ उपमान। संघ की तुलना की जाए, ऐसी कोई अन्य संस्‍था न होने के कारण हम कहते हैं कि संघ संघ जैसा ही है। उसके संबंध में कोई उपमान नहीं है। इसलिए संघ समझना आसान नहीं है। प्रत्यक्ष अनुभव से यानी संघ की किसी शाखा में जाकर ही उसकी अनुभूति लेना आवश्यक है।

‘धर्म’ का व्यापक अर्थ :

सरल शब्दों में बताना हो तो मैं कहूँगा कि संघ हिंदुओं का संगठन करता है। प्रश्न है कि ‘हिंदू’ क्या है? हम निश्चिंतता से कह सकते हैं कि हिंदू धर्म है। किंतु ध्यान में रखना होगा कि ‘धर्म’ का अर्थ बहुत व्यापक है। अंग्रेजी भाषा में उसका समुचित पर्याय उपलब्‍ध नहीं है। अंग्रेजी में अकसर ‘धर्म’ का ‘रिलिजन’ पर्याय दिया जाता है; किंतु यह पर्याय अपर्याप्त है। मैं यहाँ कुछ शब्दों का उदाहरण देता हूँ—‘धर्मशाला’। क्या अंग्रेजी में इसका अनुवाद ‘रिलिजस स्कूल’ करेंगे? ‘धर्मार्थ अस्पताल’। क्या यह ‘हॉस्पिटल फॉर रिलिजंस’ है। ‘राजधर्म’, क्या यह राजा का ‘रिलिजन’ है, जो प्रजा का नहीं है? और ‘पुत्रधर्म’ क्या यह बेटे का रिलिजन है, जो उसके माता-पिता का नहीं है‍?

यहाँ मैं थोड़ा विस्तार कर रहा हूँ। हम अपने लिए कितना भी बड़ा भवन बनाएँ, वह ‘धर्म’ नहीं होता। हम जब औरों के लिए ‘भवन’ स्‍थापित करते हैं, तब ‘धर्मशाला’ खड़ी होती है। हम अपने या अपने परिवार के लिए दवाइयों का कितना भी बड़ा भंडार बनाएँ, वह ‘धर्म’ नहीं होता। जब अन्य लोगों के लिए निःशुल्क चिकित्सा की व्यवस्‍था खड़ी करते हैं, तब ‘धर्मार्थ अस्पताल’, यह फलक लगाने की योग्यता हम प्राप्त करते हैं। ‘राजधर्म’ यानी राजा के वे कर्तव्य, जो उसको प्रजा के साथ जोड़ते हैं और ‘पुत्रधर्म’, यानी पुत्र के वे कर्तव्य, जो उसे माता-पिता के साथ जोड़ते हैं। तो ‘धर्म’ व्यक्ति को व्यापक अस्तित्व के साथ जोड़ने का साधन है। कितनी व्यापकता? इसकी कोई सीमा नहीं है। ‘महाभारत’ कहता है कि ‘धारणाद् धर्म इत्याहुः धर्मो धारयति प्रजाः’, यानी जो ‘धारण’ यानी पोषण करता है, उसे धर्म कहते हैं और धर्म ‘प्रजा’ की धारणा करता है तथा प्रजा यानी केवल ‘मानव’ नहीं, ‘प्रजा’ में पशु-पक्षियों सहित संपूर्ण सृष्टि सम्मिलित है। वृक्ष है, पर्वत हैं, नदियाँ भी हैं। इनको जोड़ने की जो व्यवस्‍था है, उसे ‘सृष्टि धर्म’ कहा है। अतः हिंदू समाज के लिए केवल ‘मानव धर्म’ पर्याप्‍त नहीं है। पशु और पक्षियों में भी भगवान् का अस्तित्व है, ऐसी उसकी मान्यता है। ‘गौ’ गोमाता बनती है। इसी तरह ‘गंगा’ केवल पानी का प्रवाह नहीं रहती, वह ‘गंगामैया’ बनती है। हिमालय को महाकवि कालिदास ने ‘देवतात्मा’ कहा है। इस प्रकार हिंदू धर्म संपूर्ण सृष्टि को जोड़ता है। व्यक्ति, समिष्ट यानी मानव समाज और सृष्टि , यानी मानवेतर अस्तित्व, इनके साथ-साथ हिंदू धर्म परमेष्‍ठी तत्त्व के साथ भी जोड़ता है। यह अंग ‘रिलिजन’ बन सकता है। तो ‘धर्म’ की संपूर्ण और सम्यक् संकल्पना है, व्यक्ति, समष्टि, सृष्टि और परमेष्‍ठी यानी परमात्मा। हिंदू इस अर्थ में ‘धर्म’ है। ‘हिंदू धर्म’ है।

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विविधता का समादर: 

परमेष्ठी तत्त्व के भी अनेक रूप हो सकते हैं, ऐसी हिंदुओं की मान्यता है। वेदों में इंद्र और वरुण दो प्रमुख देवता हैं, लेकिन इन देवताओं के मंदिर नहीं हैं। जिनके मंदिर हैं, जैसे शिव मंदिर, विष्‍णु मंदिर, राम मंदिर, कृष्‍ण मंदिर, दुर्गा मंदिर आदि, इनके नाम भी वेदों में नहीं हैं। राम और कृष्‍ण तो ऐतिहासिक पुरुष भी हैं। कई लोग मूर्तिपूजा में विश्वास रखते हैं, उन्हें मूर्ति का रूप और आकार चुनने की स्वतंत्रता है। कोई मूर्तिपूजा को ठीक नहीं मानते, उनको भी ‘हिंदू’ में स्‍थान है। नए-नए देवतास्वरूप आ गए हैं। आधुनिक काल में ‘साईं मंदिर’ बने हैं, ‘संतोषी माता’ के भी मंदिर हैं। गजानन महाराज का देवस्‍थान है। इन सबका अस्तित्व ‘हिंदू धर्म’ को मान्य है। इसलिए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्‍णन ने कहा है कि Hinduism is not a religion, it is a common-wealth of many religions. अर्थ है हिंदू एक ‘रिलिजन’ नहीं है, अनेक रिलिजनों का वह महासंघ है। शर्त केवल इतनी ही है कि राम का मंदिर तोड़कर साईं मंदिर नहीं बनना चाहिए।

इसलिए ‘हिंदू’ संकल्पना में वेदों का प्रामाण्य न माननेवाले जैन और बौद्ध, मूर्तिपूजा का विरोध करनेवाले आर्यसमाजी, इन सबका अंतर्भाव है। हमारा विद्यमान संविधान भी बताता है कि हिंदुओं को जो लागू है, वह जैनों, बौद्धों तथा सिखों को भी लागू है। क्योंकि ये सब रिलिजंस कहिए, मजहब कहिए, संप्रदाय कहिए, माननेवाले लोग अपने रिलिजन का अभिमान तो धारण करते हैं, किंतु अन्य भी पंथ, संप्रदाय रह सकते हैं, उनको भी अस्तित्व का अधिकार है, ऐसी उनकी मान्यता है। इस प्रकार मान्यता यदि ईसाई व इसलामी मतवाले भी देंगे तो वे भी ‘हिंदू’ धर्म की व्यापक परिधि में आ जाएँगे।

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‘राष्‍ट्र’ और ‘राज्य’:

इस धर्म को माननेवाले लोगों का नाम हिंदू है। अतः यह ‘हिंदू राष्‍ट्र’ है। ‘राष्ट्र’ यानी लोग होते हैं। ‘राज्य’ एक अलग अवधारणा है, तो ‘राष्‍ट्र’ अलग अवधारणा है। एक ‘राष्ट्र’ में अनेक ‘राज्य’ रह सकते हैं। आप भारतवर्ष का इतिहास देखेंगे तो पाएँगे कि इसमें अनेक ‘राज्य’ रहे हैं। जब अलेक्जेंडर का आक्रमण हुआ था, तब पाटलिपुत्र में नंद साम्राज्य था तो सीमावर्ती भाग में अनेक छोटे-मोटे गणराज्य थे। पोरस का भी एक राज्य था। हम लोग जानते हैं कि भगवान् बुद्ध का जन्म एक गणराज्य में ही हुआ था, किंतु भारत राष्ट्र एक था। आदि शंकराचार्य ने चार मठों की स्‍थापना की। वे भारत की चारों दिशाओं में आज भी विद्यमान हैं। दक्षिण में शृंगेरी, पूर्व में जगन्नाथपुरी, उत्तर में बदरीनाथ और पश्चिम में द्वारका। पवित्र गंगाजल रामेश्वरम् को ले जाने की प्रथा, जो अभी भी चल रही है, बहुत पुरानी है। इसी प्रकार एक राज्य में अनेक राष्ट्र रह सकते हैं। 1985 तक रूस में यानी यू.एस.एस.आर. में (यूनियन ऑफ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक्स) अनेक राष्ट्र सम्मिलित थे। जैसे ही रूस की शक्ति कम हो गई, वे सारे राष्ट्र अलग हो गए। जैसे अजरबैजन, ताजकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, लेटेनिया आदि। युगोस्लाविया में भी 1990 तक तीन राष्ट्र विलीन थे। वे अब स्वतंत्र हो गए हैं। राज्य का आधार कानून होता है। कानून वे नियम होते हैं, जिनके समर्थन में दंडशक्ति (सेना और पुलिस) खड़ी रहती है। सुप्रसिद्ध इंग्लिश ग्रंथकार अर्नेस्ट बार्कर लिखते हैं—"The State is a legal association. It exists for law, it exists in and through law : we may even say it exits as law; if by law, we mean not only a sum of legal rules, but also, and in addition, an operative system of effective rules which are actually valid and regularly enforced. The essence of the State is a living body of effective rules; and in that sense the State is law." (Principles of Social and Political Theory, page 89)

(भावार्थ-राज्य कानून के द्वारा बनी हुई व्यवस्‍था होती है। वह कानून के लिए अस्तित्व में रहती है। कानून यानी केवल नियम नहीं होते, अपितु उनको अमल में लाने की एक परिणामकारक व्यवस्‍था भी होती है। अतः संक्षेप में कहें तो राज्य परिणामकारक नियमों की जीवमान संस्‍था रहती है और राज्य यानी कानून ही होता है)। तात्पर्य यह है कि ‘राज्य’ एक राजकीय व्यवस्‍था होती है और कानून से वह ठीक चले, इसलिए उसके पीछे दंडशक्ति यानी पुलिस और सेना उपस्थित होती है। इस दंडशक्ति के कारण ही कानून परिणामकारक होता है।

यह हिंदू राष्‍ट्र है, इसलिए मैं कहूँगा कि यह हिंदू राष्ट्र है। हिंदू राष्ट्रीय समाज है। यह समाज अनेक कारणों से दुर्बल हो गया था। भाषाएँ और बोलियाँ अनेक होना स्वाभाविक है, किंतु उनके कारण अलगाव बढ़ा। जातियाँ भी अनेक थीं और आज भी हैं। उन जातियों के लोगों को अपनी जाति के संबंध में इतना अहंकार उत्पन्न हुआ कि पूरा राष्ट्र दुर्बल हो गया। विदेशी आक्रांताओं ने इस भूमि पर कब्जा किया। हम हिंदू करीब हजार वर्षों तक परकीय आक्रांताओं के गुलाम रहे। इन सब जातियों, भिन्न-भिन्न भाषा बोलनेवाले लोगों, जो सारे हिंदू समाज के अंग थे, को संगठित करने का काम 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने प्रारंभ किया। संघ के संस्‍थापक थे डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार। उन्होंने यह समाज संगठन का काम प्रारंभ किया, जो आज संपूर्ण देश में विस्तारित और व्याप्त है। डॉ. हेडगेवार संघ के आद्य सरसंघचालक थे। इसी संगठन के वर्तमान संघचालक डॉ. मोहनजी भागवत हैं। इस ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक में उन्होंने जो मूल रूप में कहा है, उसका मैं यहाँ संक्षेप में निर्देश करता हूँ :

1. यह ‘यशस्वी भारत’ पुस्तक के प्रथम प्रकरण का शीर्षक है, ‘हिंदू, विविधता में एकता के उपासक’। हम स्वस्‍थ समाज की बात करते हैं, तो उसका आशय ‘संगठित समाज’ होता है।

2. हम को दुर्बल नहीं रहना है, हम को एक होकर सबकी चिंता करनी है।

3. भारत की परंपरागत संस्कृति के आधार पर पूर्व में कभी इस भारत का जो चित्र दुनिया में था, वह अत्यंत परम वैभव-संपन्न, शक्ति-संपन्न राष्ट्र के रूप में था और परम वैभव, शक्ति-संपन्न होने के बाद भी दुनिया के किसी देश को न रौंदनेवाला था। उलटा सारी दुनिया को एक सुख-शांतिपूर्वक जीने की सीख अपने जीवन से देनेवाला भारत है।

4. हमारा काम सबको जोड़ने का है।

5. संघ में आकर ही संघ को समझा जा सकता है।

6. संगठन ही शक्ति है। विविधतापूर्ण समाज को संगठित करने का काम संघ करता है।

7. राष्ट्रीयता ही संवाद का आधार हो। वैचारिक मतभेद होने के बाद भी एक देश के हम सब लोग हैं और हम सबको मिलकर इस देश को बड़ा बनाना है। इसलिए हम संवाद करेंगे।

8. संघ का काम व्यक्ति-निर्माण का है। व्यक्ति निर्मित होने के बाद वे समाज में वातावरण बनाते हैं। समाज में आचरण में परिवर्तन लाने का प्रयास करते हैं। यह स्वावलंबी पद्धति से, सामूहिकता से चलनेवाला काम है।...संघ केवल एक ही काम करेगा-व्यक्ति-निर्माण, लेकिन स्वयंसेवक समाज के हित में जो-जो करना पड़ेगा, वह करेगा।

9. भारत से निकले सभी संप्रदायों का जो सामूहिक मूल्यबोध है, उसका नाम ‘हिंदुत्व’ है।

10. हमारा कोई शत्रु नहीं है, न दुनिया में है, न देश में। हमारी शत्रुता करनेवाले लोग होंगे, उनसे अपने को बचाते हुए भी हमारी आकांक्षा उनको समाप्त करने की नहीं, उनको साथ लेने की है, जोड़ने की है। यह वास्तव में हिंदुत्व है।

11. परंपरा से, राष्ट्रीयता से, मातृभूमि से, पूर्वजों से हम सब लोग हिंदू हैं। यह हमारा कहना है और यह हम कहते रहेंगे।

12. हमारा कहना है कि हमारी जितनी शक्ति है, हम करेंगे, आपकी जितनी शक्ति है, आप करो, लेकिन इस देश को हमको खड़ा करना है। क्योंकि संपूर्ण दुनिया को आज तीसरा रास्ता चाहिए। दुनिया जानती है और हम भी जानें कि तीसरा रास्ता देने की अंतर्निहित शक्ति केवल और केवल भारत की है।

13. देशहित की मूलभूत अनिवार्य आवश्यकता है कि भारत के ‘स्व’ की पहचान के सुस्पष्ट अधिष्ठान पर खड़ा हुआ सामर्थ्य-संपन्न व गुणवत्तावाला संगठित समाज इस देश में बने। यह हमारी पहचान हिंदू पहचान है, जो हमें सबका आदर, सबका स्वीकार, सबका मेल-मिलाप व सबका भला करना सिखाती है। इसलिए संघ हिंदू समाज को संगठित व अजेय सामर्थ्य-संपन्न बनाना चाहता है और इस कार्य को संपूर्ण संपन्न करके रहेगा।

~माधव गोविंद वैद्य.

यशस्वी भारत
लेखक : मोहन भागवत
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 288
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