यहाँ कुलभूषण जैन की ज़िंदगी के जरिये बंगाल के विभाजन और विस्थापन की कहानियाँ इस तरह बुनी गई हैं.
काश भूलने वाला बटन हर किसी के पास होता। यदि ऐसा होता तो बुरी यादें न होतीं, वह सब न होता जो दुख-दर्द-तकलीफ देता है। अलका सरावगी के उपन्यास 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' के कुलभूषण जैन के पास वह बटन है। जब वह किसी बात को भूलना चाहता है, तो वह बटन को दबाकर भूल जाता है।
अलका सरावगी की शैली अलग है। उनके पास कहानी में कहानियाँ निकालकर लाने की क्षमता है। ऐसी कहानियाँ जिन्हें महसूस किया जा सकता है। उनमें एक परत, दूसरी परत से जुड़कर नई कहानी रचती जाती है। यह अनोखापन उनकी किताबों में दिखता है।
वाणी प्रकाशन से आई अलका सरावगी की किताब 'कुलभूषण का नाम दर्ज कीजिए' आपको ठहरकर उसे पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने तक पढ़ने को मजबूर करती है।
डेढ़ चप्पल पहनकर घूमता यह काला लम्बा, दुबला शख़्स कौन है? हर बात पर वह इतना ख़़ुश कैसे दिखता है? उसे भूलने का बटन देने वाला श्यामा धोबी कहाँ छूट गया? कुलभूषण को कुरेदेंगे, तो इतिहास का विस्फोट होगा और कथा-गल्प-आपबीती-जगबीती के तार निकलते जायेंगे। कुलभूषण पिछली आधी सदी से उजड़ा हुआ है। देश-घर-नाम-जाति-गोत्र तक छूट गया उसका, फिर भी अर्ज कर रहा है, माँ-बाप का दिया कुलभूषण जैन नाम दर्ज कीजिए। इस किरदार के आसपास के संसार में कोई दरवाज़ा-ताला नहीं है, लेकिन फिर भी इसके पास कई तिजोरियों के रहस्य दफ़न हैं। एक लाइन ऑफ़़ कंट्रोल, दो देश, तीन भाषाएँ, पाँच से अधिक दशक...कुलभूषण ने सब देखा, जिया, समझा है। जिन त्रासदियों को हम इतिहास का गुज़रा समय मान लेते हैं, वे वर्तमान तक आकर कैसे बेख़बरी से हमारे इर्दगिर्द भटकती रहती हैं, यह उपन्यास इसे अचूक इतिहास-दृष्टि के साथ दर्ज करता है। पूर्वी बंगाल से आज़ादी से चलता गया लगातार विस्थापन, भारत में शरणार्थियों को बंगाल से बाहर राम-सीता के निर्वासन की तरह दण्डकवन में बसाने की कोशिश- सारी कथाएँ एक मार्मिक महाआख्यान रचती हैं। कथा के भीतर उसकी शिरा-शिरा में बिंधा हुआ एक मानवीय आशय है, जो किरदार की निरीहता और प्रौढ़ता को पाठक के मन में टंकित कर देता है। इतिहास, भूगोल, संस्कृति, साम्प्रदायिकता, जाति-व्यवस्था, समाज और इन सबके बीच फँसे लोगों की बेदख़लियों से परिचय यह कथा क़िस्सागोई की लचक के साथ करवाएगी। अपने भीतर बसे झूठे, रंजिश पालने वाले, चिकल्लस बखानने वाले पर साथ ही उदात्त प्रेमी, अशरण के पक्ष में खड़े ख़ुद निराश्रित-जैसे किरदार कुलभूषण की दुनिया में यूँ ही चलते-फिरते मिलेंगे। उनकी बातों में आये तो फँसे, न आये तो कुलभूषण के जीवन-झाले में घुस नहीं पायेंगे।
विभाजन की बहुत-सी कहानियाँ हम पढ़ते आये हैं। उनमें दर्द होता है, विवशता होती है, अपनों के बिछड़ने के किस्से होते हैं। विस्थापन तो ज़िन्दगी की चाल बदल कर रख देता है। यह किताब उन किस्से और कहानियों को एक कदम आगे लेकर गयी है। यहाँ कुलभूषण जैन की ज़िंदगी के जरिये बंगाल के विभाजन और विस्थापन की कहानियाँ इस तरह बुनी गई हैं, जैसे किसी फिल्म की पटकथा हो। एक के बाद एक नई घटना, एक के बाद एक ट्विस्ट -रोचक और हैरान करने वाले दौर इस किताब में कभी नहीं थमते।
हिन्दू और मुसलमान जिस तरह खुद को बदलता हुआ देखते हैं, जिस तरह दंगे होते हैं, खून बहाया जाता है, उसे पिरोकर वास्तविक चित्रण करना इस किताब को यादगार बनाता है।
विस्थापन कितना खतरनाक होता है। कितना भयावह होता है जब धार्मिक उन्माद फैलता है। किस तरह लोग खून के प्यासे हो जाते हैं। ऐसे बहुत से सवाल यह किताब उठाती है, जिसके जवाब हमें मिल भी जाते हैं और कुछ हमें सोचने पर मजबूर करते हैं। परिवार और रिश्तों के मायने भी यह किताब गहराई से समझाती है।