पुस्तक में उन प्रसंगों का विस्तार से वर्णन किया गया है जो दस महान हिंदी फ़िल्मों को बनाने के दौरान सामने आए.
अनिता पाध्ये की पुस्तक 'दस क्लासिक्स' एक बेहद खास किताब है। इसमें उन्होंने फिल्मी दुनिया के ऐसे किस्सों और कहानियों को हमारे सामने प्रस्तुत किया है जिन्हें जानना बेहद दिलचस्प है। किताब में दस ऐसी फिल्मों को जगह दी गई है जिन्हें लेखिका ने 'क्लासिक' माना है। उनके मुताबिक ये सर्वश्रेष्ठ हैं, लेकिन इन्हें शामिल करने के लिए उन्हें कई ऐसी बेहतरीन फिल्मों को अपनी सूची से बाहर करना पड़ा जो भी अपने जमाने की सुपरहिट रहीं।
किताब हमें फ़िल्म के पीछे की कहानी सुनाती है। फ़िल्मी दुनिया में निर्माता से लेकर निर्देशक तक, यहाँ तक की कलाकारों को कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं, इसके सच्चे किस्से हमें पढ़ने को मिलते हैं। कैसे किसी सीन को फ़िल्माने के लिए कितनी मेहनत लगती है। किस तरह कोई गीत खास बन पड़ता है। क्या वजह होती है जब फ़िल्म बनने में सालों लग जाते हैं।
इस पुस्तक में जिन फिल्मों पर गंभीर चर्चा की गई हैं वह हैं -'दो बीघा ज़मीन', 'प्यासा', 'दो आँखें बारह हाथ', 'मदर इंडिया', 'मुग़ल-ए-आज़म', 'गाइड', 'तीसरी क़सम','आनंद', ' पाकीज़ा', और 'उमराव जान'।
किताब में फिल्म ‘दो बीघा ज़मीन’ की चर्चा करते हुए अनिता पाध्ये कहती हैं कि बिमल रॉय ने इससे फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा। इससे पूर्व वे एक निर्देशक के तौर पर कार्य कर रहे थे। 1944 में ‘उदय पाथे’ से अपने फिल्मी करियर का आरंभ निर्देशक के रुप में करने वाले बिमल रॉय आर्थिक हालात खराब होने की वजह से बंगाल से बंबई पहुंचे।
उन्होंने ‘बिमल रॉय प्रोडक्शंस’ नाम की एक फिल्म कंपनी बनाई। उन्होंने ‘परख’, ‘बंदिनी’, ‘सुजाता’ जैसी सफल फिल्में निर्मित कीं। सभी फिल्में सामाजिक समस्याओं को लेकर बनाई गयी थीं। मात्र 55 साल की उम्र में सन् 1964 में बिमल दा का निधन हो गया।
‘दो बीघा ज़मीन’ भारतीय फिल्म इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई। किताब इस फिल्म के प्रारंभ से अंत तक की कहानी बयान करती है। रवीन्द्रनाथ टैगोर की एक बंगाली कविता ‘दुई बीघा जोमी’ से सलिल चौधरी की कहानी ‘रिक्शावाला’ तक, ‘दो बीघा ज़मीन’ के बनने के पीछे इनका योगदान माना जा सकता है।
बिमल रॉय को सलिल चौधरी की कहानी पसंद आई। और धीरे-धीरे फिल्म बननी शुरु हो गई। कथा के साथ ही सलिल चौधरी ने फिल्म में संगीत भी दिया। किताब में आप पढ़ेंगे कि किस तरह बलराज साहनी और अन्य लोग जुड़ते गये। सेट पर मजेदार घटनायें होती रहती थीं जिन्हें अनिता पाध्ये ने रोचकता के साथ लिखा है। बलराज साहनी को असली सवारियों के साथ रिक्शा खींचना पड़ता था। शूटिंग के बाद वे बुरी तरह थक जाते थे। इसलिए रिक्शा पर ही सो जाते थे।
किताब में गुरुदत्त की फिल्म ‘प्यासा’ के बारे में पूरा अध्याय लिखा गया है। कैसे एक नृत्य निर्देशक महान फिल्म निर्देशक बन गया? गुरुदत्त ने पहली भारतीय सिनेमास्कोप फ़िल्म का निर्माण किया। फ़िल्म को प्रशंसा मिली, न सफलता। निराश होकर गुरुदत्त ने फ़िल्म निर्देशन न करने का निश्चय किया। उन्होंने आत्महत्या की या शराब और नींद की गोलियां एक साथ लेने से उनकी मृत्यु हो गई, यह आज भी रहस्य है। गुरुदत्त की मृत्यु के बाद अंतरराष्ट्रीय फ़िल्म समारोहों में उनकी फ़िल्में ख्याति पाने लगीं। उनका नाम निर्देशन के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना जाने लगा।
एक नाटक कंपनी से अपनी करियर की शुरुआत करने वाले वी. शांताराम ने मूक फिल्म में कृष्ण की भूमिका निभाई। उसके छह साल बाद यानी 1927 में ‘नेताजी पालकर’ नामक ऐतिहासिक फिल्म का निर्देशन किया। उसके बाद उन्होंने फिल्म निर्माण कंपनी भी बनाई। पुस्तक में ‘दो आंखें बारह हाथ’ के बनने की कहानी लिखी गयी है। वी. शांताराम को इस फिल्म के निर्माण से पहले ही संन्यास लेने की बात जोर पकड़ने लगी थी। मतलब यह है कि यदि शांताराम लोगों की बात मान लेते तो भारतीय फिल्म इतिहास में ऐसी ख़ास फिल्म कभी न बन पाती। मगर उन्होंने इसे चुनौती की तरह लिया और फिल्म बनाई जिसने अलग मुकाम हासिल किया।
‘दो आंखें बारह हाथ’ फिल्म में एक ऐसा खतरनाक सीन फिल्माया गया जिसे जानकर रौंगटे खड़े हो सकते हैं। दरसअल बैल से लड़ाई करने का एक सीन फिल्म में दिखाया गया है जिसे खुद शांताराम ने निभाया है। बैल के सींग पकड़कर उन्होंने उसे पीछे धकेलना था लेकिन बैल आक्रामक हो गया। सींग चुभने से वे घायल हो गये थे। बैल का सिर उनकी दाहिनी आंख के ऊपर टकरा गया था। इतना होने के बाद भी वे मैदान में बैल से मुकाबला करते रहे। शूटिंग चालू रही। खून निकलता रहा और वे बैल से जूझते रहे। दाहिनी आंख पर चोट से उनकी दृष्टि चली गयी। बाकी शूटिंग उन्होंने दो माह बाद की।
फिल्म व्यावसायिक तौर पर सफल रही। इसे राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार भी मिला जिसमें 25 हजार की नकद राशि की घोषणा हुई। साथ ही अमेरिका सरकार द्वारा भी ‘दो आंखें बारह हाथ’ को सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के सम्मान ने नवाज़ा गया।
इसी तरह अनिता पाध्ये ने ‘मदर इंडिया’ की कहानी को दिलचस्प अंदाज में बयान किया है। सबसे रोचक किस्से ‘मुग़ल-ए-आज़म’ के हैं। इस फिल्म को बनने में सालों लग गये। बीच-बीच में ऐसा कुछ घटता रहा जिससे फिल्म बंद होने के कगार पर आती रही। ऐसा क्यों होता रहा है, यह किताब में पढ़ा जा सकता है। साथ ही कमाल अमरोही और के. आसिफ के बीच ऐसा क्या हुआ कि जिगरी यार एक-दूसरे से दूर हो गए? इससे भी हैरान करने वाली घटना दिलीप कुमार और के. आसिफ के बीच घटी जब आसिफ उनकी बहन को लेकर भाग निकले।
उसी तरह हम ‘पाकीज़ा’ के बारे में पढ़ेंगे जिसे बनने में 14 साल का लंबा समय लगा। ऐसा क्यों हुआ? यह जानना बेहद दिलचस्प है। वहीं किताब में देवानंद की फिल्म ‘गाइड’ की चर्चा है जिसे हिन्दी और अंग्रेजी में बनाया गया था।
यह दस क्लासिक फिल्मों का एक ख़ास दस्तावेज है जिसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए।