कोविड-19 का संकट महज स्वास्थ्य का संकट नहीं है, बल्कि यह संकट ‘सभ्यता का संकट’ है.
दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित ‘नोबेल शांति पुरस्कार’ से सम्मानित कैलाश सत्यार्थी पहले ऐसे भारतीय हैं, जिनकी जन्मभूमि भारत है और कर्मभूमि भी। उन्होंने अपना नोबेल पुरस्कार राष्ट्र को समर्पित कर दिया है, जो अब राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में आम लोगों के दर्शन के लिए रखा है। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री लेने के बाद श्री सत्यार्थी ने जीविकोपार्जन के लिए अध्यापन कार्य चुना और एक कॉलेज में पढ़ाने लगे। लेकिन उनके मन में गरीब व बेसहारा बच्चों की दशा देखकर उनके लिए कुछ करने की अकुलाहट थी। इसी ने एक दिन उन्हें नौकरी छोड़कर बच्चों के लिए कुछ कर गुजरने को विवश कर दिया। जब देश-दुनिया में बाल-मजदूरी का कोई मुद्दा नहीं हुआ करता था, तब श्री सत्यार्थी ने सन् 1981 में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ की स्थापना की। यह वह दौर था, जब समाज यह स्वीकारने तक को तैयार न था कि बच्चों के भी कुछ अधिकार होते हैं और बालश्रम समाज के लिए एक अभिशाप है। श्री सत्यार्थी के नेतृत्व में ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ सीधी छापामार काररवाई के जरिए अब तक 90 हजार से ज्यादा बच्चों को बँधुआ मजदूरी और गुलामी की जिंदगी से मुक्त करवाकर उनका पुनर्वास करा चुका है। बाल मजदूरों को छुड़ाने की छापामार काररवाई के दौरान उन पर अनेक बार प्राणघातक हमले भी हुए हैं।
दुनिया भर के वंचित, गरीब और हाशिए पर खड़े बच्चों की शिक्षा, सुरक्षा और आजादी के वैश्विक संघर्ष तथा हस्तक्षेप के लिए उन्होंने नोबेल पुरस्कार विजेताओं और विश्व नेताओं को एकजुट कर ‘लॉरिएट्स ऐंड लीडर्स फॉर चिल्ड्रेन’ की स्थापना की है। श्री कैलाश सत्यार्थी ने पूरी दुनिया में बच्चों के प्रति हिंसा को खत्म करने के मकसद से ‘100 मिलियन फॉर 100 मिलियन’ नामक एक विश्वव्यापी ऐतिहासिक आंदोलन की भी शुरुआत की है। इस आंदोलन के जरिए 10 करोड़ युवाओं को समाज के हाशिए पर खड़े 10 करोड़ वंचित बच्चों की सहायता के लिए प्रेरित किया जाएगा। इसी कड़ी में श्री सत्यार्थी ने भारत में बाल यौन शोषण और बाल दुर्व्यापार (ट्रैफिकिंग) के खिलाफ सन् 2017 में 11,000 किलोमीटर की देशव्यापी ‘भारत यात्रा’ का आयोजन और नेतृत्व किया। बच्चों के सवाल पर देश का यह अब तक का सबसे बड़ा आंदोलन है।
कैलाश जी की नई पुस्तक 'कोविड-19 सभ्यता का संकट और समाधान' प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित की है. प्रस्तुत हैं पुस्तक पर उनके विचार :
इतिहास में अब तक ऐसी कोई महामारी नहीं हुई, जिसने पूरी मानव जाति को इतना अधिक प्रभावित किया हो। जीवन का कोई ऐसा पक्ष नहीं बचा, जिस पर कोविड-19 ने अपना असर नहीं छोड़ा हो। इस महामारी की वजह से हमारे रहन-सहन और सोच-विचार के तरीके, शिक्षा, व्यवसाय, व्यापार, राजनीति, जन-सुरक्षा, विदेश नीति, कानून, चिकित्सा, अर्थव्यवस्था, विकास की प्राथमिकताएँ, टेक्नोलॉजी, मनोरंजन से लेकर पारिवारिक रिश्तों तक में भारी उथल-पुथल दिखाई दे रही है। गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी, शोषण, ट्रैफिकिंग और बाल मजदूरी के बढ़ने के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं। इसलिए मेरे विचार से कोविड-19 का संकट महज स्वास्थ्य का संकट नहीं है, बल्कि यह संकट ‘सभ्यता का संकट’ है।
सामूहिक संकटों में सामूहिक साहस, समाधान और सृजन की अनंत संभावनाएँ भी छुपी रहती हैं। ऐसे संकटों के दौरान पहले से चली आ रही विसंगतियाँ, विषमताएँ और अन्याय भी उजागर हो जाते हैं। कभी-कभी तो ये बढ़ भी जाते हैं, जो अभी हो रहा है। लेकिन इनसे विचलित होने की बजाय इन्हें कड़वी सच्चाई मानते हुए समाधान के तरीके खोजे जाने चाहिए। दूसरी ओर, दुनिया भर में ऐसे प्रेरणास्पद उदाहरणों की भी कमी नहीं है, जब इस सकंट के दौरान साधारण-से-साधारण लोगों से लेकर उद्योगपतियों, धर्मगुरुओं, समाजकर्मियों और सरकारों में बैठे व्यक्तियों ने असाधारण मानवीय कार्य किए हैं। कोविड-19 संकट के दौरान स्वास्थ्यकर्मियों और बंदोबस्त में लगे कर्मचारियों के सराहनीय कार्यों की जितनी प्रशंसा की जाए, वह कम है।
इन दोनों प्रवृत्तियों से सबक लेते हुए ‘मानव सभ्यता की पुनर्रचना’ और ‘भविष्य के विश्व समाज’ का निर्माण किया जा सकता है। मानवजाति की तरक्की एक-दूसरे पर निर्भरता बढ़ते जाने का इतिहास रहा है। विज्ञान, टेक्नोलॉजी, सूचना-तंत्र, उत्पादन, बाजार और उपभोग जाने-अनजाने में बाहर से पूरी दुनिया को जोड़ते रहते हैं; लेकिन इन पर टिका मनुष्य भीतर से नहीं जुड़ पाता। भीतर से न जुड़ पाना ही मनुष्यता के लिए खतरा पैदा कर रहा है। मैं यह मानता हूँ कि सभ्यता और संस्कृतियों की अलग-अलग धाराओं में अनेक अंतर्विरोधों के बावजूद उसमें ऐसे तत्त्व मौजूद हैं, जो कोविड-19 के कारण हुई हानि की पूर्ति करते हुए एक बेहतर दुनिया का निर्माण कर सकते हैं।
मैंने इस पुस्तक में इन्हीं बातों के कारणों, परिणामों और समाधानों की विवेचना करने का प्रयास किया है। मेरा जोर महामारी से उपजे संकट के तात्कालिक उपायों के अलावा मुख्य रूप से स्थायी समाधानों पर है। ये समाधान करुणा, कृतज्ञता, उत्तरदायित्व और सहिष्णुता के सार्वभौमिक मूल्यों पर आधारित हैं। मैं मानता हूँ कि इन मूल्यों को व्यवहार में लाने के आसान तरीके खोजे जाने चाहिए। उपदेश और उपचार का अलग-अलग महत्त्व होता है। उपदेश आसान होते हैं और उपचार मुश्किल। कोरोना वायरस का वैक्सीन तो देर-सवेर ढूँढ़ ही लिया जाएगा और इस महामारी का अंत भी हो जाएगा, लेकिन समाज की चेतना में लगी बीमारियों को दूर करने के लिए ठीक-ठीक उपचार ढूँढ़ना और उन्हें लागू करना पड़ेगा।