भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान ने पचास साल का लंबा सफर तय किया.
रामविलास पासवान की राजनीतिक यात्रा पर हिंदी में पहली बार विस्तार से लिखा गया है। वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव ने पासवान पर गहन शोध और अध्ययन के बाद उनकी जीवनी ’रामविलास पासवान : संकल्प, साहस और संघर्ष’ लिखी है। पुस्तक को पेंगुइन बुक्स ने प्रकाशित किया है। प्रदीप श्रीवास्तव ने राजनीति को करीब से दशकों तक देखा है। पासवान से उनके सम्बन्ध काफी गहरे थे। बिना किसी लाग लपेट के प्रदीप श्रीवास्तव ने रामविलास पासवान के निजि जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन के कई वाकये इस किताब में दर्ज़ किए हैं।
रामविलास पासवान आज हमारे बीच नहीं हैं। उनका निधन 8 अक्टूबर 2020 को हुआ। पासवान की यह जीवनी उनके जीवन के कई अनजाने पहलुओं को भी हमारे सामने रखती है।
इस पुस्तक में लेखक ने रामविलास पासवान के जीवन के चार मुख्य पहलुओं पर चर्चा की है : उनका व्यक्तिगत जीवन, राजनीति में प्रवेश, सामाजिक न्याय को लेकर उनका संघर्ष और उनकी प्रशासनिक क्षमता आदि।
मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करवाने में रामविलास पासवान की अहम भूमिका रही. उनके रेलमंत्रित्व काल में बिहार में कई परियोजनाओं की शुरुआत हुई और जिस भी मंत्रालय में वे रहे, उनकी चिंताओं के केंद्र में हमेशा गरीब-गुरबा और हाशिए पर रहने वाले लोग ही रहे.
किताब में पासवान जी के गाँव के बारे में बताया गया है कि वह एक नहीं, दो नहीं बल्कि चार नदियों से घिरा हुआ था। अधिकतर समय बाढ़ के कारण वह टापू में तब्दील रहता। उनकी पढ़ाई की शुरुआत इस तरह से हुई थी कि वे नदियों को पार कर स्कूल जाते थे। इसमें खतरा बना रहता था। जाहिर है, बचपन के दिनों के खतरों से खेलते हुए बड़े हुए पासवान बाद में कई ऐसे जोख़िम उठाने से पीछे नहीं रहे जिनकी चर्चा इस किताब में बहुत ही रोचक ढंग से की गई है।
लेखक कहते हैं कि हमने किताबों में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के बारे में नदी पार करने वाले किस्से पढ़ें हैं। रामविलास पासवान का बचपन भी उसी दौर से गुज़रा है। वे बिहार के अतिपिछड़े गांव शहरबन्नी में पैदा हुए थे। सातवीं तक की पढ़ाई वहीं करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए गांव से बाहर खगड़िया जाना पड़ा। वहां उन्होंने छात्रावास में रहकर पढ़ाई की। छात्रावास मुफ़्त रहने की सुविधा देता था, बल्कि हर माह दस रुपए की छात्रवृति भी मिलती थी। मगर वहां की स्थिति बेहद दयनीय थी। फिर भी रामविलास पासवान मन लगाकर पढ़ते रहे।
लेखक कहते हैं,'पासवान के राजनीतिक जीवन की शुरुआत उस समय हुई थी जब समाजवादी आंदोलन अपनी ऊँचाइयों पर था और कांग्रेस की एकाधिकार सत्ता के खिलाफ पहली बार चुनौती खड़ा कर रहा था। यह विपक्ष की राजनीति थी और पासवान जी के राजनीतिक जीवन के शुरुआती करीब एक दशक का समय इस विपक्ष की राजनीति में ही बीता। इस दौरान धरने, प्रदर्शन, आंदोलन में पुलिस की कई बार लाठियां खाई, जेल गए, सामंती गुंडों के जानलेवा हमले का शिकार होते-होते बचे। इमरजेंसी लागू हुई तो उन्नीस महीने जेल में रहना पड़ा। जेपी आंदोलन में कुछ दिन भूमिगत रहने के बाद पकड़े गए। इस दौरान पुलिस से छिप कर नेपाल, बंगाल, महाराष्ट्र तक दौड़-धूप करनी पड़ी।'
रामविलास पासवान ने पोस्ट-ग्रेजुएशन पूरा किया तो नौकरी की तलाश शुरु कर दी। छात्र जीवन में उन्होंने अलग-अलग मुद्दे उठाए, नेतागीरी का स्वाद वे चख चुके थे। किताब के अनुसार उन्होंने अपने राजनीतिक करियर के बारे में उस समय कुछ सोच नहीं था। पर उनके दिल में 'आदर्श और सामाजिक चुनौती के खिलाफ लड़ने का जज़्बा' जरुर था। चार महीने एक फाईनेंस कंपनी में नौकरी करने के बाद उसे छोड़ दिया। कंपनी को लेकर उनके मन में संशय हुआ, शिकायतें आनी लगीं, तो इस्तीफा दे दिया। दरोगा की परीक्षा में लिखित एग्जाम पास किया तो इंटरव्यू में खारिज कर दिए गए। फिर आया उनकी ज़िन्दगी में सबसे बड़ा ट्विस्ट।
बिहार लोक सेवा आयोग की लिखित परीक्षा पास करने के बाद वहाँ इंटरव्यू में भी पास हुए। दरोगा नहीं बने, लेकिन डीएसपी बन गए थे। सबसे हैरान करने वाली बात यह थी कि उनके गाँव और आसपास के इलाकों में उस समय तक कोई भी सरकारी नौकरी हासिल नहीं कर पाया था। ट्रेनिंग से पूर्व वे अपनी बुआ के गाँव पहुंचे तो वहाँ सोशलिस्ट पार्टी से जुड़े रामनन्दन यादव ने एक सलाह दी कि 'आप चुनाव लड़ जाइए पासवान जी'। सलाहों और सुझावों का दौर ऐसा चला कि क्षेत्र तक तय कर दिया गया। चूंकि रामविलास छात्र रहते हुए भी आंदोलनों की अगुवाई करते रहे थे, इसलिए उनके मन में भी विचारों का उतार-चढ़ाव घुमड़ता रहा।
खगड़िया जाने वाली ट्रेन के एक डिब्बे में अलौली से लगातार विधायक रहे मिश्री सदा से उनका आमना-सामना हो गया। उस दौरान पासवान ने ऐसा कुछ सुन लिया कि उन्होंने निश्चय किया कि वे अलौली से ही चुनाव लड़ेंगे। दरअसल एक कांग्रेसी कार्यकर्ता ने मिश्री सदा को बताया कि इस बार अलौली से संसोपा (संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी) किसी पासवान नाम के लड़के को टिकट दे रही है। हाल में डीएसपी बना है। कल का लौंडा है। आपको चुनौती दे रहा है। इसपर विधायक हँसकर बोले,'पिछली बार चालीस हजार से जीते थे। इस बार 80 हजार से जीत जाएँगे।'
अलौली विधानसभा क्षेत्र से मिश्री सदा के सामने सबकी हार होती थी। उन्हें पराजित करना नामुमकिन था। संसोपा के जिलाध्यक्ष रामजीवन सिंह से उन्हें टिकट का आश्वासन मिला लेकिन औपचारिक फैसला नहीं आया था। पासवान अपनी एवन साइकिल से गांव-गांव जाकर प्रचार करने में जुट गए। बाद में अलौली से पार्टी के इकलौते दावेदार पासवान को टिकट भी मिल गया। प्रचार अकेले ही करते। धीरे-धीरे चंदा भी लोग देने लगे। धीरे-धीरे उनके साथ युवाओं की टीम नज़र आने लगी। सब ठीक रहा और पासवान लगभग 700 वोट से चुनाव जीते।
बड़ी बात यह रही कि बिना साधनों और पैसों के उन्होंने पहला चुनाव जीता। कांग्रेस के दिग्गज नेता और मजबूत विधायक मिश्री सदा को पराजित कर इतिहास रचा गया था। यह उनकी लाइफ का सबसे बड़ा टर्निंग पाइंट था। यहीं से उनकी राजनीतिक पारी शुरु हुई।
पुस्तक में उनके राजनीतिक जीवन पर जिस तरह प्रकाश डाला गया है, उसी तरह उनके निजि जीवन पर भी लेखक ने काफी लिखा है। 1977 में पासवान हाजीपुर संसदीय क्षेत्र से रिकार्ड मतों से चुनाव जीते। फिर उद्योग भवन में डिप्टी डायरेक्टर गुरुबचन सिंह की इकलौती बेटी अविनाश कौर से उनका विवाह हुआ। यह पासवान का दूसरा विवाह था। किताब में बताया गया है कि अविनाश कौर को पता था कि वे अपनी पहली पत्नी से काफी समय से अलग रहे हैं। लेखक यह बता नहीं पाए कि अविनाश कौर बाद में रीना पासवान कैसे हो गईं।
दिल्ली में हुए सिख दंगों में रामविलास पासवान का सरकारी मकान जलकर खाक हो गया था। उनका बेटा चिराग उस समय केवल डेढ़ साल का था। घर पर कर्पूरी ठाकुर सहित कई सांसद और नेता भी मौजूद थे। दंगाईयों ने उनके घर को आग के हवाले कर दिया था। सभी लोग पीछे की दीवार कूदकर किसी तरह बचकर निकले। पासवान परिवार को चौ. चरण सिंह ने सहारा दिया। उनके यहां वे एक सप्ताह रहे।
नवंबर 1984 में यूपी के बिजनौर लोकसभा उपचुनाव में रामविलास पासवान का मुकाबला मीरा कुमार और मायावती से था। मीरा कुमार और मायावती का पहला चुनाव था जबकि पासवान के लिए क्षेत्र नया था। जीत मीरा कुमार की हुई। चुनाव उनके पक्ष में बताया जा रहा था लेकिन प्रचार से पहले चौ. चरण सिंह को लकवा मार गया था। पांच हज़ार वोट से पासवान की हार हुई जबकि मायावती तीसरे नंबर पर रहीं।
मगर हाजीपुर सीट से 1989 में रामविलास पासवान फिर से सांसद बने। पहले से अधिक रिकार्ड मतों से उन्होंने जीत दर्ज की थी।
28 नवंबर 2000 को रामविलास पासवान ने 'लोक जनशक्ति पार्टी' यानी लोजपा के गठन की घोषणा की। केन्द्र सरकार में वे नौ मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं जिनमें श्रम एवं समाज कल्याण, रेल, संचार, इस्पात आदि शामिल हैं। 2014 में आई नरेन्द्र मोदी सरकार में उन्हें उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्रालय मिला था जिसे 2019 में भी उन्हीं को दिया गया।
भारतीय राजनीति में रामविलास पासवान ने पचास साल का लंबा सफर तय किया जिसकी वजह लेखक ने बताई है कि उन्होंने 'राजनीति में राष्ट्रीय कद मिलने के बावजूद दूसरे प्रदेश नेताओं की तरह बिहार में अपनी राजनीतिक सक्रियता हमेशा बनाए रखी।' लेखक ने आगे लिखा है :'केन्द्र की राजनीति में जमने के बावजूद एक कुशल राजनीतिज्ञ की तरह उन्होंने यह हमेशा याद रखा कि पेड़ ऊपर की तरफ कितनी ही ऊंचाई क्यों न छू ले, वह टिका उस समय तक रहता है, जब तक उसकी जड़ें ज़मीन में गहराई से जुड़ी हों।'