हमें चीता के लुप्त होने से सबक लेना चाहिए. हम उन जीव-जंतुओं को बचा सकते हैं जिनपर अपना अस्तित्व बचाने की तलवार लटकी है.
चीता भारत से लुप्त हो गया है। यह एक या दो दशक पहले नहीं हुआ, बल्कि 70 साल पहले यह हुआ। भारत में अंतिम तीन चीते 1947 में मार गिराए गए थे। उनका शिकार किसी अंग्रेज़ या विदेशी ने नहीं किया था। उन्हें मौत की नींद सुलाया था छत्तीसगढ़ के कोरिया स्टेट के राजा सरगुजा ने। भारत में कभी चीते बहुतायत में थे। लेकिन आज वे कहीं नहीं हैं। ऐसा क्या हुआ कि चीता भारतीय नक्शे से गायब हो गया? इसका जवाब कबीर संजय की किताब 'चीता : भारतीय जंगलों का गुम शहज़ादा' देती है। किताब का प्रकाशन वाणी प्रकाशन समूह के नए उपक्रम 'वाणी पृथ्वी' के तहत किया गया है।
लेखक कबीर संजय कहानियाँ लिखते हैं। साहित्य और पत्रकारिता से अच्छा नाता है। सामाजिक तथा राजनीतिक गतिविधियों में शामिल रहते हैं। प्रकृति से अथाह प्रेम की वजह रही कि फेसबुक पर उनका अपना पेज है जिसका नाम है 'जंगलकथा'। पर्यावरण और जीवन की चर्चा उनके फेसबुक पन्ने पर बहुत अच्छी और रोचक जानकारी से भरपूर होती है।
कबीर संजय की पुस्तक 'चीता' बेहद ख़ास दस्तावेज है। यह उन किताबों में शामिल की जा सकती है जिसे आप संजो कर रख सकते हैं। अपने बच्चों को पढ़कर सुना सकते हैं। उन्हें प्रकृति और जीवों से लगाव के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
लेखक मानते हैं कि वह कोई वन्यजीव विशेषज्ञ नहीं हैं। उन्होंने चीता, उसके होने के दौरान और उसके होने के बाद की स्थिति पर विस्तार से चर्चा की है। उन्होंने चीता के करीबी रिश्तेदारों से भी हमारा परिचय कराया है। लेखक को जब एक दिन अचानक पता चलता है कि भारत से चीता गायब हो चुका है और उसे कई साल बीत चुके हैं, तो उनके मन में अनेक सवालों का जन्म हुआ। धीरे-धीरे उनका प्रेम बिल्लियों के प्रति बढ़ता गया और इच्छा भी। उन्होंने गहन शोध और अध्ययन के बाद यह ख़ास किताब तैयार की जिसे पढ़ना सुखद अनुभव है।
संजय लिखते हैं : 'हमारा अस्तित्व सिर्फ इसलिए है, क्योंकि उनका अस्तित्व है। जीवों और वनस्पतियों की इन असंख्य प्रजातियों के बिना हमारा जीवन संभव नहीं है। हमारी हर साँस इसकी कर्ज़दार या निर्भर है। फिर क्यों हम सिर्फ़ अपने जीवन की शर्त पर सबकुछ नष्ट करने पर तुले हैं। क्या जब वे मौजूद नहीं होंगे, नष्ट हो चुके होंगे, तब भी हम इस धरा पर ऐसे ही बचे रहेंगे। ऐसी कोई संभावना दिखती तो नहीं।'
शायद ऐसा नहीं लगता कि इंसान जीवों को ख़त्म करने के बाद ख़ुद बचा रहेगा। यहाँ सब एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह जुड़ाव हमें जीवित रखे हुए है। वरना यह पृथ्वी और पर्यावरण कब के समाप्त हो गए होते।
लेखक के अनुसार प्रकृति में कुछ भी बेकार नहीं जाता। हर किसी की अपनी भूमिका है। हर किसी के होने की वजह है। यहाँ बेवजह कुछ नहीं होता। लेखक ने अलग-अलग उदाहरण दिए हैं। उन्होंने सरल भाषा में रोचकता के साथ एक-एक चीज़ को स्पष्ट किया है। उन्होंने मधुमक्खियों, फूलों, पक्षियों आदि के उदाहरण दिए हैं। क्यों और कैसे, पाठकों को अपने अंदाज़ में बताया है।
'पृथ्वी से विलुप्त होने वाला कोई भी जीव केवल खुद समाप्त नहीं होता, उसके साथ पूरी की पूरी एक शृंखला, एक तंत्र नष्ट होने लगता है, जिसका कि वह हिस्सा हुआ करता था।'
भारत में चीता नहीं रहता। एशियाई चीता अब सिर्फ गिनती में ईरान में देखा जा सकता है। कभी यह जीव एक 'शहज़ादे' की तरह यहाँ घूमा करता था। पंजाब, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात तक उसकी तूती बोलती थी। उसका शिकार करने का अंदाज़ जबरदस्त है। कारण उसकी 110 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ़्तार और फुर्तीले शरीर में छिपा है। लेकिन इस रफ़्तार की भारी कीमत उसे चुकानी पड़ती है। इसलिए लेखक ने चीते को 'सत्रह सेकेंड का सुल्तान' कहा है।
दौड़ शुरू करने के 17 सेकेंड बाद ही चीते की साँस टूटने लगती है। वह अपनी अधिकतम रफ़्तार में एक किलोमीटर से भी कम की दूरी पार कर पाता है। उसके शरीर का तापमान तेज़ी से बढ़कर 105 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। यह तापमान इतना घातक है कि यदि चीता उस दौरान नहीं रुका तो वह बेहोश हो सकता है। इस तरह उसकी जान भी जा सकती है। यही वजह है कि चीता तेज़ रफ़्तार को तय कर, शिकार कर उसी समय रुक जाता है। उसे तय समय में ही शिकार करना होता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसे फिर से कोशिश करनी होगी।
यह किताब हमें चीता और तेंदुए का अंतर भी स्पष्ट कराती है। जहाँ तेंदुआ पेड़ पर आसानी से चढ़ सकता है, वहीं चीता पेड़ पर नहीं चढ़ता। चीते को घसियाले मैदानों में रहना पसंद है। धब्बों या चिकत्तों के अंतर को भी किताब में चित्र के माध्यम से बताया गया है। साथ ही दोनों की शारीरिक बनावट पर भी लिखा है।
एशियाई और अफ्रीकी चीतों के बारे में किताब चर्चा करती है। अफ्रीका में पाया जानेवाला चीता एशियाई चीते से अधिक भारी और मजबूत होता है। एशिया में सिर्फ ईरान में गिनती के चीते मौजूद हैं।
कभी भारत में यहाँ के राजा-महाराजाओं द्वारा शिकार की घेराबंदी के लिए चीतों का इस्तेमाल होता था। वह कैसे होता था इसका किताब में तफ़सील से ज़िक्र हुआ है। तब चीतों को पालतू बनाने का चलन भी था। बादशाह अकबर के पास कितने चीते थे, और इसमें कितनी सच्चाई है, इसपर भी पढ़ा जा सकता है। यह जानना भी कम दिलचस्प नहीं कि भारत में अफ्रीका से चीते क्यों मंगाए गए? फिर उनके साथ क्या हुआ? चीते के ख़ात्मे के मुख्य कारण क्या थे? यह जानने के लिए किताब को पढ़ना होगा।
लेखक ने हमें विडाल वंशियों के बारे में रोचक जानकारियाँ दी हैं। शेर से लेकर प्यूमा, जगुआर से लेकर हिम तेंदुआ आदि के बारे में बेहद सरलता से तथ्यात्मक चर्चा की है। यह जानना भी हैरान करता है कि बिल्लियां इतनी कमाल की क्यों हैं। क्यों बिल्लियाँ पक्षियों की 33 प्रतिशत आबादी के विलुप्त होने का कारण हैं?
भारत में चीतों को फिर से बसाने की कवायद सरकारी स्तर से साल 2009-10 में हुई थी, लेकिन कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सका। अफ्रीका से चीतों को यहाँ लाकर बसाने की तैयारी थी। उससे पहले भारत में बाघों को एक जगह से दूसरी जगह बसाया जा चुका है। यदि सब सही रहता तो 2012 तक भारत में नामीबिया से चीते आ गए होते। इससे पूर्व 1952 में भी ईरान से चीते लाने की योजना पर काम करने की कोशिश की गई थी। उसमें भारत के शेरों को ईरान को बदले में देने की तैयारी हुई थी। वहीं जोधपुर के एक महाराजा गजे सिंह ने भी केन्या से चीते लेकर यहाँ बसाने की योजना बनाई थी। इस तरह योजनाएं बनीं, लेकिन परवान एक नहीं चढ़ सकी। उसके कुछ कारण किताब में आप पढ़ सकते हैं।
किताब सिर्फ चीता की बात नहीं करती। इसमें बात है उस शुतुरमुर्ग की भारतीय प्रजाति की जो अब विलुप्ति के कगार पर है। ग्रेट इंडियन बस्टर्ड भारत में तेजी से कम हो रहे हैं। अब ये सिमटकर केवल महाराष्ट्र, राजस्थान और गुजरात में ही रह गए हैं। पहले ये प्रजाति पंजाब, हरियाणा, ओडिशा से तमिलनाडु तक पायी जाती थी। इसके लिए हम ज़िम्मेदार हैं। हमारे अपने हित हैं जिसकी कीमत उनकी प्रजाति को चुकानी पड़ रही है।
इस पुस्तक में पर्यावरण-संकट पर चर्चा की गई है। यह जीवों के लिए सबसे बड़ा खतरा है। लेखक के अनुसार खतरे की घंटी बज चुकी है।
हमें चीता के लुप्त होने से सबक लेना चाहिए। हम उन जीव-जंतुओं को बचा सकते हैं जिनपर अपना अस्तित्व बचाने की तलवार लटकी है। यह किताब हमें इंसान होने की ज़िम्मेदारी याद दिलाती है कि हम उन्हें गँवा नहीं सकते, हम उन्हें ऐसे ही लुप्त नहीं होने दे सकते। हमारा फ़र्ज़ है उन्हें गायब होने से बचाना। ख़ुद से यह कहना कि पर्यावरण और वन्यजीव इस पृथ्वी के हैं, जैसे हम। उनका जीवन उतना ही अहम है जितना हमारा। इसलिए उन्हें हम बचाएंगे। क्यों न बदलाव की शुरूआत आज से ही की जाए, और प्रकृति से प्रेम किया जाए।