'कारे जहाँ दराज़ है' कुर्रतुलऐन हैदर के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अनुभवों की कथाएँ हैं.
कुर्रतुलऐन हैदर की महत्त्वपूर्ण संस्मरणात्मक, आत्मकथात्मक औपन्यासिक कृति 'कारे जहाँ दराज़ हैं' का हिन्दी अनुवाद वाणी प्रकाशन ने चार खण्डों में प्रकाशित किया है। इस कृति का हिन्दी अनुवाद इरफ़ान अहमद द्वारा किया गया है। अनुवाद को हरसम्भव बेहतरीन और मौलिक बनाये रखने की चेष्टा में इस कृति में आये मुहावरों और लोकोक्तियाँ को लगभग उसी भाषाई परिवेश में रखने का प्रयास किया गया है जिसकी संस्कृति में कुर्रतुल ऐन हैदर ने स्वयं को एक समृद्ध कथा-लेखक के रूप में विस्तारित किया।
अनेक सम्मानों से सम्मानित कुर्रतुलऐन हैदर, उर्दू की मशहूर लेखक और एक लोकप्रिय क़िस्सागो, न केवल उर्दू साहित्य बल्कि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य धारा में एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखती हैं। यह कह देना बहुत कम होगा कि यह इनका परिचय है। जबकि हिन्दी-उर्दू भाषा और संस्कृति का सम्पूर्ण मेल कहा जा सकता है उन्हें।
आज़ादी से पूर्व मुस्लिम स्त्री कथाकार अपने अस्तित्व को लेकर किसी तरह का ख़तरा नहीं महसूस करती थीं। और कुर्रतुलऐन हैदर मुख्य साहित्य धारा में एक ऐसा नाम हैं जिनके समृद्ध लेखन ने उर्दू साहित्य की आधुनिक धारा को एक दिशा दी है। उर्दू ही क्यों, हिन्दी साहित्य में भी ऐसा कौन है जो उनके नाम से परिचित नहीं।
'कारे जहाँ दराज़ है' कुर्रतुलऐन हैदर के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक अनुभवों की कथाएँ हैं जो एक इकाई से प्रारम्भ होकर सार्वभौमिकता का विराट रूप धारण कर लेती हैं। वे एक सामान्य बात को भाषा की संजीदगी के सिरहाने रख उसमें ऐसा तेवर रच लेती हैं जो उन्हें मंटो, कृष्णा सोबती आदि लेखकों की सूची में सबसे आगे ले आता है। भारतीय साहित्य की मुख्य धारा में उस समय कुर्रतुल ऐन हैदर ही ऐसी लेखक थीं जिन्होंने विभाजन की त्रासदी को अपने लेखन में अलग ही आयाम दिये।
बीसवीं सदी में प्रेमचन्द की विरासत के बाद कोई कथाकार ऐसा नहीं हुआ जैसी क़ुर्रतुलऐन हैदर। वह सही मायनों में एक जादूगर थीं। बहुत छोटी उम्र में उन्होंने लिखना शुरू कर दिया था। फिर बँटवारे के बाद मजबूरी में उन्हें कराची जाना पड़ा, लेकिन जल्द ही वह लन्दन चली गयीं, जहाँ बी.बी.सी. में काम करती रहीं। वापस आने पर उन्होंने आग का दरिया जैसा बहुमूल्य उपन्यास लिखा, जिसने उर्दू उपन्यास की दुनिया ही को बदल डाला। उनकी कहानियों के संग्रह पतझड़ की आवाज़ पर साहित्य अकादेमी ने उन्हें अपना साहित्य अकादेमी पुरस्कार दिया और बाद में फेलोशिप भी प्रदान की गयी। आख़िर-ए शब के हमसफ़र पर उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ। वह पद्मश्री और पद्मभूषण से अलंकृत थीं। उनकी कृतियों में कारे जहाँ दराज़ है एक ख़ास तरह की किताब है जो जितना ही उनके ख़ानदान और पुरखों की गाथा है उतना ही वह एक अद्भुत उपन्यास है। गोया यह चारों खण्ड फ़ैक्ट और फ़िक्शन का अजीबोग़रीब मेल है। ऐसी कोई पुस्तक उर्दू में नहीं लिखी गयी। उनकी लेखनी में बला की शिद्दत और शक्ति थी। स्ट्रीम ऑफ़ कॉन्शसनेस में लिखने का उनका अपना अलग स्टाइल था। उनके कथा-साहित्य में भारत की रंगारंग तहज़ीब का दिल धड़कता हुआ नज़र आता है। हमारा स्वतन्त्रता संग्राम क्या था और हम कैसे आज़ादी की कगार तक पहुँचे और कैसे अपने ही खंजर से हमने अपनी तहज़ीब का ख़ून किया, इस सब तहज़ीबी विरासत के दर्द को अगर नयी नस्लों को समझना हो तो हर पाठक के लिए क़ुर्रतुलऐन हैदर को पढ़ना बहुत ज़रूरी है। ~गोपी चन्द नारंग.
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इस आत्मकथात्मक औपन्यासिक पुस्तक के खण्ड के अध्याय से कुर्रतुलऐन हैदर के कुछ शब्द- "वर्तमान दास्तान, पश्चिम एशिया से हिन्दुस्तान पहुँचकर इसी वीरता के युग में शुरू होती है। लेकिन सामाजिक दृष्टि से यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि उसी समय हमारी मिली-जुली संस्कृति भाषा और साहित्य की जड़ें जमना प्रारम्भ हुईं।"
सांस्कृतिक बोध की मान्यताओं को अपने ऐतिहासिक पक्ष के समकक्ष रख कुर्रतुलऐन हैदर ने न केवल अपने समय को एक शब्द-संयोजन प्रदान किया है बल्कि इसे एक विरासत के रूप में अपने पाठकों के लिए संजोया भी है। इस आत्मकथात्मक कृति की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह पाठक से अपने उसूलों के स्तर पर संवाद करती है। एक लेखक के तौर पर कुर्रतुल ऐन हैदर ने इस कृति में जिन स्मृति-कथाओं को सिलसिलेवार कलमबद्ध किया है वे उनके पाठकों को उस समय की सामाजिक, मनोवैज्ञानिक तथा राजनीतिक आदि सम्भावनाओं से रू-ब-रु करायेंगी। यह कृति सम्भवतः स्वयं में एक विलक्षण भाव-बोध की कृति है। साधारण जीवन मूल्यों लेकिन उनकी स्वयं की असाधारण दृष्टि से निर्मित उनका आस-पास इस कृति में किसी तरह का कोई भ्रम नहीं उत्पन्न करता है। यह पाठक के लिए एक ऐसा मार्ग बना देता है जहाँ दो संस्कृतियों का मेल एक चेहरे में दिखाई देने लगता है।
संस्मरणात्मक शैली में विभिन्न शीर्षकों के अन्तर्गत इस औपन्यासिक कृति में कुर्रतुलऐन हैदर ने एक ऐसी संस्मरण कथा कहने का प्रयास किया है जो न केवल भाषा का सौन्दर्य पक्ष मज़बूत करती है बल्कि वाचिक परम्परा का निर्वाह भी करती दिखाई देती है। जैसे- खण्ड-3, अध्याय-13, 'लारवन्द' से यह पंक्तियाँ- "लन्दन सो रहा है, लन्दन जाग रहा है। खिड़कियों के पर्दे गिरा दिये गये हैं। बाहर ठंडी हवा चल रही है। कल सर्दी होगी। नीचे सड़क पर शाम का अख़बार बेचने वाले, आख्रिरी बचे-खुचे पर्चे समेट रहे हैं जिनकी सुर्खियाँ अँधेरे-अँधेरे में मद्धम होती जा रही हैं।"
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