रविकथा : रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के निजी जीवन की दास्तान

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रविकथा एक ऐसी दुनिया में हमें ले जाती है जो जितनी हमारी जानी-पहचानी है उतनी ही नयी-नवेली भी.

बेमिसाल कथाकार जोड़ी रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया की समूचे भारतीय कथा साहित्य में अमिट जगह है। साथ रहते और लिखते हुए भी दोनों एक.दूसरे से भिन्न गद्य और कहानियाँ लिखते रहे और हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करते रहे। रवीन्द्र कालिया संस्मरण लेखन के उस्ताद रहे हैं। ग़ालिब छुटी शराब हो या सृजन के सहयात्रियों पर लिखे गये उनके संस्मरण हों, उन्हें बेमिसाल लोकप्रियता मिली। उन संस्मरणों में जो तटस्थता और अपने को भी न बख़्शने का ज़िंदादिल हुनर था वह इसलिए सम्भव हो पाया कि वह अपने निजी जीवन में भी उतने ही ज़िंदादिल रहे। रविकथा इन्हीं रवीन्द्र कालिया के जीवन की ऐसी रंग-बिरंगी दास्तान है जो ममता जी ही सम्भव कर सकती थीं। पढ़ते हुए हम बार-बार भीगते और उदास होते हैं, हँसते और मोहित होते हैं। रविकथा एक ऐसी दुनिया में हमें ले जाती है जो जितनी हमारी जानी-पहचानी है उतनी ही नयी-नवेली भी।
 यह किताब रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के निजी जीवन की दास्तान भी है। यहाँ निजी और सार्वजनिक का ऐसा सुन्दर मेल है कि इसे उपन्यास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इसमें एक कद्दावर लेखक पर उतने ही कद्दावर लेखक द्वारा लिखे गये जीवन प्रसंग हैं जिनके बीच में एक-दूसरे के लिए प्रेम, सम्मान और बराबरी की ऐसी डोर है कि एक ही पेशे में रहने के बावजूद उनका दाम्पत्य कभी उस तनी हुई रस्सी में नहीं बदलता जिसके टूटने का ख़तरा हमेशा बना रहता है। रविकथा को इसके खिलते हुए गद्य के लिए भी पढ़ा जाना चाहिए। 
~मनोज कुमार पाण्डेय.
'रविकथा' से एक अंश :

एक जीवन काल का प्रेम होता है, हँसता, खेलता, खिलखिलाता, कभी उद्दण्ड, कभी उद्दाम। उसमें मान-मनौवल, मनुहार और मुखर उलाहने होते हैं। उसमें संवाद होता है और विवाद भी। वहाँ रूठना, मनाना और फिर रूठना चलता है।

दूसरा जीवनोपरान्त प्रेम होता है। दो में से एक सुग्गा उड़ गया। दोनों ने मिलकर नीड़ का निर्माण किया, एक अकेला रह गया सूने, निबिड़ नीड़ में। उड़ने वाले पंछी ने उससे कहा, ‘बस इतना था मेरे पास तुम्हें देने के लिए।’ यही प्रेम, स्मृति का वितान तान मेरे आकाश को भर देता है। मैं रवि को अपने आसपास बोलते, उठते-बैठते और चलते-फिरते देख लेती हूँ। यादों में बसे इस रवि से मेरा प्रेम उस जीते-जागते रवि की तुलना में कहीं ज़्यादा है। यह रवि पूरी तरह मेरा है। यह रवि कभी मुझे अकेला नहीं छोड़ता। इसे नौकरी पर नौ से पाँच बाहर नहीं जाना होता। इसको शाम को दारू नहीं पीनी होती। यह मेरे किसी काम में मीनमेख नहीं निकालता। हम एक-दूसरे की आँखों में आँखें डाल घण्टों बैठे रह सकते हैं। ऐसे ख़ुशक़िस्मत जोड़े बहुत थोड़े होते हैं जिनका दम साथ-साथ निकले। फ़साने की बात और है, हक़ीक़त कुछ और। रवि की छवि आँखों में लिए मैंने न जाने कितनी किताबें पढ़ डालीं, कितने काग़ज़ काले कर डाले। हर रात की सुबह बड़ी मुश्किल से उगी। हर वक़्त, हर घड़ी यही लगा रहता है-

‘मेरे ख़यालों की रहगुज़र से
वो देखिए वो गुज़र रहे हैं।’

रवि ने जीवन जीने की कला में पूरे नम्बर नहीं पाये। लेकिन कौन पाता है पूरे नम्बर। शत-प्रतिशत नम्बर तो गणित में मिलते हैं। जीवन में नहीं। जीवन तो सब थोड़ा गड़बड़, हड़बड़ जीते हैं। कभी हमारी बहस ज़्यादा उलझ जाती तो रवि कहते, ‘चलो तुम्हारी बात सही लेकिन यह समझ लो मेरे जाने के बाद तुम बहुत कष्ट उठाओगी।’ मैं उन्हें चिढ़ाती, ‘वह नौबत नहीं आयेगी क्योंकि मैं तुमसे पहले रुख़सत हो जाऊँगी। मेरी माँ भी सुहागन गयी थीं।’
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जब तक काल हमारा द्वार नहीं खटखटाता, हम या तो मौत का मखौल उड़ाते हैं या रोमान रचते हैं। रवि जालन्धर में हुई के.एल. सहगल की शवयात्रा का क़िस्सा सुनाते। तब वे स्कूल में पढ़ते थे। एक दिन टीचर ने कहा, ‘आज पढ़ाई नहीं होगी। बहुत मशहूर गवैये का इन्तक़ाल हो गया है।’

स्कूल से वापसी में सहगल के जनाज़े के साथ लोग दर्द भरी आवाज़ में सहगल का ही नग़मा गाते जा रहे थे-‘अब जी के क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया।’

रवि उन दोस्तों की यादों में खो जाते जिन्हें वक़्त ने बेवक़्त उठा लिया। मैं कहती—

‘तुम उदासी ओढ़ लेते हो।’
‘ऐसा नहीं है’-रवि प्रतिवाद करते।

रवि एक नजूमी (भविष्यवक्ता) की तरह अपनी बात कहकर चुप साध लेते। बीमारी के बरसों में ये चुप्पियाँ लम्बी होती गयीं। मुझे उनके खिलखिलाते वक़्त याद आते। फ़िराक़ गोरखपुरी के शब्दों में कहूँ तो—

‘अब अक्सर चुप-चुप सा रहे है
यूँ ही कभू लब खोले है
पहले फ़िराक़ को देखा होता
अब तो बहुत कम बोले है।’

~ममता कालिया.

अंदाज़-ए-बयाँ उर्फ़ रवि कथा 
लेखक : ममता कालिया
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 220

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