रचना बिष्ट रावत की पुस्तक 'Kargil : Untold Stories From The War' का हिंदी अनुवाद 'कारगिल' शीर्षक से प्रकाशित हुआ है.
किताब को प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. रंजना सहाय ने पुस्तक का अनुवाद किया है. 'कारगिल' प्रेरणादायक कहानियों से भरी हुई है. 1999 के कारगिल युद्ध में हमने 527 जांबाजों को खोया था. हमारे 1363 योद्धा ज़ख़्मी हालत में जंग से लौटे थे. रचना बिष्ट रावत ने ऐसे ही वीरों की कहानियों को संजोया है. इस पुस्तक को लिखने के दौरान लेखिका शहीदों के परिजनों से मिलीं. उन्होंने रचना जी से यादों को साझा किया तथा कई निजी जानकारियाँ भी बतायीं. कारगिल युद्ध लड़ने वाले सिपाहियों और सैन्य अधिकारियों के अनुभवों को भी इस पुस्तक में पढ़ा जा सकता है. कैप्टन सौरभ कालिया से लेकर कैप्टन हनीफुद्दीन की बहादुरी और पराक्रम से भरे जज़्बे को जानकर हम प्रेरित होते हैं तथा हमारे मन में अपने देश के लिए जान देने वाले ऐसे वीरों के लिए सम्मान और बढ़ जाता है. यह एक ख़ास किताब है जिसे जरुर पढ़ा जाना चाहिए. प्रस्तुत हैं रचना बिष्ट रावत के विचार :
वे युवा पाठक, जो अभी बीस वर्ष के नहीं हुए हैं, उनको अपवाद मानते हुए अगर छोड़ दिया जाए तो बाकी बचे हम सभी लोग कारगिल युद्ध से भलीभाँति परिचित हैं। हम में से कुछ ने टी.वी. स्क्रीन के माध्यम से इसके हर एक घटनाक्रम को देखा, जबकि कुछ ने इसे और ज्यादा नजदीक से देखा। कारगिल युद्ध के दौरान मैं अहमदाबाद में ‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार में एक रिपोर्टर के तौर पर कार्यरत थी। उसी दौरान कैप्टन मनोज रावत से मेरा विवाह हुआ था, जो 3 इंजीनियर रेजीमेंट में तैनात थे। मेरे पति की यूनिट सेना की उन यूनिटों में एक थी, जिसे संभावित खतरे को देखते हुए राजस्थान की सीमा पर तुरंत तैनात कर दिया गया था।
इधर युद्ध के कारण मेरा दिल बैठा जा रहा था और उधर कुछ ही दिनों में सारी छावनी जवानों एवं मशीनों से पूरी तरह खाली हो गई। जिन मेस से हमेशा शोरगुल की आवाजें आया करती थीं, वहाँ से वे आवाजें आनी बंद हो गईं। क्रिस्टल के गिलासों में गिरते बर्फ के टुकड़ों की खनखनाहट भी अब नहीं सुनाई देती थी, न अब परेड के मैदान से डी.एम.एस. बूटों की आवाजें सुनाई देती थीं और न ही खेल के मैदानों में बल्लेबाजी कर रहे छोटे-छोटे बच्चों को गेंद फेंकते पिताओं की हँसी की गूँज। मैं अकसर अपने बरामदे में खड़ी सेना के ट्रकों में सेना की टुकड़ियों को सीमाओं पर जाते हुए देखा करती। इन जवानों की पीठों पर राइफलें टँगी होतीं और चेहरे उदासीन होते। सीमा पर जाने से पहले मेरे पति ने बस, जल्दी-जल्दी हाथ मिलाते हुए मुझे ‘अलविदा’ कहा था। इसकी वजह भी थी। दरअसल, एक अफसर अपने सैन्य दस्ते के आगे पत्नी को गले लगाते हुए नहीं दिखना चाहेगा। हाँ, ड्राइवरवाली सीट पर बैठकर उन्होंने मेरी तरफ मुसकराते हुए देखा और फिर एक कड़क सलामी के साथ मुझे अपना खयाल रखने को कहा। मेरे पति ने कहा कि वह जल्दी ही वापस लौटेंगे। इसके बाद वह गाड़ी में निकल गए और देखते-ही-देखते उनकी जीप धूल के गुबार के कारण नजर आनी बंद हो गई। मुझे इस बात की संतुष्टि है कि वह वापस लौटे; लेकिन कई पत्नियों के पति युद्ध से कभी भी वापस नहीं लौटे।
कारगिल की कहानियाँ महान व्यक्तियों की कथाओं की विषय-वस्तु बन गई हैं, जो बार-बार सुनाए और साझा किए जाने लायक हैं.
यह युद्ध अंतत: कारगिल तक ही सीमित रहा। उस समय सेना में बतौर कैप्टन मेरे पच्चीस वर्षीय भाई समीर सिंह बिष्ट ने यह युद्ध अपनी 5 पैरा यूनिट के साथ लड़ा। निश्चित तौर पर, वे दिन बहुत भयावह थे। युद्ध के दौरान मैं हर एक अखबार को ध्यान से पढ़ती, कोई न्यूज चैनल देखना नहीं भूलती, अपने बिस्तर पर अपनी बिल्ली ‘सूफी’ के साथ देर रात तक जागती और सुबह होने का इंतजार करती। सुबह मैं जब काम पर जाती तो अपने संपादक डैरिक डीसा से युद्ध से जुड़ा किसी भी तरह का काम लगभग हथिया लिया करती थी, फिर चाहे इसके लिए मुझे उनसे जोर-जबरदस्ती करनी पड़ती या फिर किसी दूसरे के सुपुर्द किए गए ऐसे किसी भी काम को अपने नाम करवाना पड़ता। एक फोटोग्राफर को साथ लिये मैं उन गाँवों के चक्कर लगाती, जहाँ शहीद जवानों के शव उनके घर लाए जा रहे हों। मैं शहीद जवानों के अंतिम संस्कारों को कवर करती, जुलूसों में हिस्सा लेती और ऐसे शोकाकुल परिवारों एवं छोटे-छोटे बच्चों को देखती, जिनका जीवन अब पहले जैसा नहीं हो सकता था। ऐसे समय जब कभी मैं युद्ध के लिए गए अपने पति और भाई के बारे में सोचती तो मारे घबराहट के मेरा दिल बैठ जाता। दफ्तर से देर शाम को वापस घर लौटते हुए मैं अपना चमकीले नीले रंग का स्कूटर एक एस.टी.डी. बूथ पर खड़ा करती और सीधे गढ़वाल (उत्तराखंड) के एक छोटे से शहर कोटद्वार में रह रहे अपने माँ-पापा को फोन लगाती। सेना मेडल (एस.एम.) और विशिष्ट सेवा मेडल (वी.एस.एस.) से सम्मानित मेरे सेवानिवृत्त पैराट्रूपर पिता ब्रिगेडियर बी.एस. बिष्ट यहीं आम के पेड़ों से घिरे एक बँगले में अपनी जिंदगी सुकून से गुजार रहे थे। मेरा फोन हमेशा मेरी माँ ही उठाया करती थीं।
उन्होंने मुझे बताया कि जब से युद्ध छिड़ा है, तब से पापा पूरा दिन टी.वी. में युद्ध से जुड़े समाचार देखते रहते हैं और यह जानने की कोशिश करते हैं कि उनके बेटे और मेरे भाई की तैनाती कहाँ हुई होगी। पापा ने भोजन करना करीब-करीब छोड़ ही दिया था। वह देर रात तक घर के बरामदे में चुपचाप बैठे रहते और ऊपर की ओर ताकते रहते। उनकी उँगलियों के बीच सिगरेट होती और एक तरफ व्हिस्की का गिलास। बैठक के कमरे से पुराने कैसेट प्लेयर पर चल रही फरीदा खानम की गजलों की आवाजें खुली खिड़की से उन तक पहुँचतीं। जब उनका विभूषणों से अलंकृत अफसर बेटा युद्ध से वापस लौटा, तब कहीं जाकर उनकी चिंता खत्म हुई। वह सौभाग्यशाली थे, लेकिन ऐसे भी कई माता-पिता थे, जिनके बेटे युद्धभूमि से कभी वापस नहीं लौटे।
कारगिल पर यह पुस्तक लिखते हुए मैं ऐसे ही कई पिताओं से मिली। मैं कारगिल शहीदों के उन बच्चों से भी मिली, जो अपने पिता की शहादत के समय इतने छोटे थे कि उनके दिमाग में अपने पिता से जुड़ी बहुत ज्यादा यादें शेष नहीं हैं। इन बच्चों के लिए अपने पिता गहरे हरे रंग के कपड़े पहने एक अजनबी से ज्यादा नहीं थे, जो एक दिन घर छोड़कर चले गए और फिर कभी वापस नहीं लौटे। जब मैंने कारगिल युद्ध में शहीद हुए लांस नायक बचन सिंह के पुत्र लेफ्टिनेंट हितेश से उनके पिता की कुछ यादें साझा करने को कहा तो उन्होंने कहा कि उन्हें अपने पिता की बहुत ज्यादा बातें याद नहीं हैं। “जब पिताजी शहीद हुए थे, तब मैं और मेरा जुड़वाँ भाई केवल चार साल के थे। हाँ, मुझे उनकी अंत्येष्टि अब भी याद है।” उन्होंने कहा। हितेश की माँ श्रीमती कामेश बाला ने मुझे बताया कि यूँ तो उनके विवाह को सात साल हो चुके थे, लेकिन उन्होंने अपने पति के साथ मुश्किल से पाँच महीने ही बिताए। श्रीमती बाला ने बताया कि उनके पति को उम्मीद थी कि उनकी अगली पोस्टिंग किसी शांतिप्रिय जगह पर होगी, इसलिए उन्होंने उनसे वादा किया था कि ऐसा होने पर वह उनको और दोनों बच्चों को अपने साथ ले जाएँगे, लेकिन वह दिन कभी नहीं आया। बचन सिंह 29 वर्ष की उम्र में तोलोलिंग के युद्ध में शहीद हो गए थे।
22 वर्षीय कैप्टन सौरभ कालिया ने कमीशन प्राप्त करने के ठीक बाद जीवन में पहली बार चेक पर हस्ताक्षर किए थे और गर्व के साथ उसे अपनी माँ को देते हुए कहा था, “अब पैसों की चिंता मत करो। अब मैं कमाने लगा हूँ।” श्रीमती कालिया ने नम आँखों से शहीद कालिया का वह खारिज हुआ चेक मुझे दिखाया। वह चेक कभी भी भुनाया ही नहीं जा सका, क्योंकि सौरभ कालिया पहला वेतन बैंक खाते में आने से पहले ही शहीद हो गए थे।
श्रीमती मीना नैयर ने मुझे बताया कि लाड़-प्यार से पला-बढ़ा उनका बेटा अनुज उनके और उनके पति के पीछे लगा हुआ था कि घर लौटने से पहले वह उसे नई कार खरीदकर दें। “जब कभी फोन की घंटी बजती तो मैं खीझ जाती। हमें नहीं पता था कि अब वह कभी भी लौटकर वापस नहीं आएगा।” उन्होंने कहा; अनुज सितंबर 1999 में स्कूल में साथी रही अपनी प्रेमिका से विवाह भी करने वाले थे, लेकिन उसी साल जुलाई में वह शहीद हो गए।
मैं कैप्टन हनीफुद्दीन की माँ श्रीमती हेमा अजीज से भी मिली। तुरतुक में हनीफुद्दीन का शव 43 दिनों तक यूँ ही बर्फ पर पड़ा रहा था। जब तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वेद प्रकाश मलिक ने श्रीमती अजीज के घर जाकर उन्हें बताया कि दुश्मन की तरफ से लगातार हो रही गोलीबारी के कारण वह उनके बेटे का शव तुरतुक से वापस नहीं ला पा रहे हैं तो श्रीमती अजीज ने जनरल मलिक को कहा कि वह अपने बेटे के शव के लिए किसी और जवान की जान को जोखिम में नहीं डालना चाहतीं। हनीफ की शहादत पर मिलनेवाले पेट्रोल पंप को लेने से भी उन्होंने इनकार कर दिया था।
मुझे विश्वास है कि इस तरह की मार्मिक कहानियाँ सीमा के उस पार भी होंगी। मुझे यह सोचकर आश्चर्य होता है कि कैसे कोई व्यक्ति, जो किसी का पिता, पुत्र, भाई, पति या फिर प्रेमी होता है, एक सैनिक होने के नाते अपने एकमात्र उत्तरदायित्व का निर्वाह करने के लिए युद्ध के लिए निकल पड़ता है! युद्ध से जुड़ी कहानियाँ रोमांच से भरी हुई लगती हैं; लेकिन वास्तविकता यह है कि युद्ध भयावह होता है। इससे कई जीवन बरबाद हो जाते हैं, परिवार टूट जाते हैं और यह अपने पीछे दुःख व घृणा की विरासत छोड़ जाता है। मैं निष्ठापूर्वक कामना करती हूँ कि कारगिल के शहीद वे अंतिम शहीद होंगे, जिन पर हमने शोक मनाया। यह पुस्तक इन शहीदों के साहस के अलावा इनके परिवारवालों के साहस को एक श्रद्धांजलि है, जिन्होंने अपने इस अपार नुकसान को भी मर्यादापूर्वक बरदाश्त किया। हम उनके ऋणी हैं—वह ऋण, जिसे कभी भी नहीं चुकाया जा सकता।
अपने पिता को लिखे अपने अंतिम पत्र में लेफ्टिनेंट विजयंत थापर ने उम्मीद जताई थी कि उनके साथी जवानों का त्याग कभी भी भुलाया नहीं जाएगा। यह पुस्तक इसी दिशा में एक कदम है। मैं उम्मीद करती हूँ कि ‘कारगिल’ जनता के बीच इन वीर जवानों की यादों को जीवित रखेगी। देश के लिए स्वेच्छा से प्राण अर्पण करनेवाले इन जवानों के लिए हम कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं। सैनिक युद्धभूमि में नहीं मरते। वे तब मरते हैं, जब एक अकृतज्ञ देश उनके त्याग को भूल जाता है। उम्मीद है कि कारगिल युद्ध के 527 शहीद हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहेंगे।
कारगिल
लेखक : रचना बिष्ट रावत
अनुवाद : रंजना सहाय
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 216
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