
शेट्टी इस पुस्तक में यह साबित कर देते हैं कि हर व्यक्ति संन्यासी की तरह सोच सकता है - और उसे सोचना ही चाहिए.
जय शेट्टी की किताब 'संन्यासी की तरह सोचें' दुनिया भर में बेस्टसेलर सूची में शामिल है. भारत में इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है. यह अंग्रजी पुस्तक 'Think Like a Monk' का हिन्दी अनुवाद है. पढ़ें किताब पर लेखक जय शेट्टी के अनमोल विचार :
मैंने प्रतिरोध करते हुए कहा, “मैं किसी संन्यासी का व्याख्यान सुनने क्यों जाऊँ?”
मैं अक्सर कैंपस में कंपनियों के सीईओ, मशहूर हस्तियों और दूसरे सफल लोगों के व्याख्यान सुनने जाता रहता था, लेकिन किसी संन्यासी का व्याख्यान सुनने में मेरी कोई रुचि नहीं थी। और होती भी क्यों? मुझे उन वक्ताओं को सुनना ज़्यादा पसंद था, जिन्होंने जीवन में असली चीज़ें हासिल की थीं।
मेरे मित्र ने ज़िद पकड़ ली, इसलिए आख़िरकार मैं बोला, “अगर व्याख्यान के बाद तुम मुझे बार में ले चलो, तो मैं चलता हूँ।” ‘प्रेम में पड़ना’ एक ऐसी अभिव्यक्ति है, जिसका इस्तेमाल लगभग हमेशा रोमांटिक संबंधों के संदर्भ में किया जाता है, लेकिन उस रात जब मैंने उस संन्यासी के अनुभव सुने, तो मैं प्रेम में पड़ गया। मंच पर लगभग तीस साल का भारतीय युवक था। उनका सिर मुँडा हुआ था और वे केसरिया वस्त्र पहने थे। वे बुद्धिमान, वाक्पटु और करिश्माई थे। उन्होंने ‘निस्वार्थ त्याग’ के सिद्धांत के बारे में बताया। जब उन्होंने कहा कि हमें ऐसे पेड़ लगाने चाहिए, जिनकी छाया के नीचे हम बैठने की योजना न बना रहे हों, तो मुझे अपने शरीर में एक अपरिचित सिहरन महसूस होने लगी।
मैं ख़ास तौर पर प्रभावित हुआ, जब मुझे पता चला कि वे आईआईटी, बॉम्बे के विद्यार्थी थे, जो अमेरिका के एमआईटी जैसा होता है और एमआईटी की ही तरह उसमें भी प्रवेश पाना लगभग असंभव होता है। उन्होंने संन्यासी बनने के लिए उस अवसर को छोड़ दिया। वे हर उस चीज़ से दूर चले गए, जिसके पीछे मेरे दोस्त और मैं भाग रहे थे। इसके दो ही मतलब हो सकते थे : या तो वे सनकी थे या फिर उन्हें कोई गोपनीय रहस्य का पता चल गया था।
ज़िंदगीभर मैं उन लोगों से मंत्रमुग्ध रहा हूँ, जो शून्य से शिखर तक पहुँचे हैं - ग़रीबी से अमीरी की कहानियाँ। यहाँ पहली बार मैं किसी ऐसे शख़्स के सामने था, जिसने जान-बूझकर इसका उलटा किया था। उन्होंने उस जीवन को त्याग दिया था, जिसकी इच्छा संसार के हिसाब से हम सभी को करनी चाहिए, लेकिन उनमें असफलता का कोई नामोनिशान नज़र नहीं आ रहा था। इसके बजाय वे सुखी, आत्मविश्वासी और शांत नज़र आ रहे थे। वास्तव में वे इतने ख़ुश नज़र आ रहे थे, जितना मैंने पहले कभी किसी को नहीं देखा था। अठारह साल की उम्र तक मैं बहुत से अमीर लोगों के संपर्क में आया था। मैंने बहुत से लोगों के व्याख्यान सुने थे, जो मशहूर, शक्तिशाली, आकर्षक या तीनों थे, लेकिन मैं नहीं सोचता कि मैं किसी ऐसे व्यक्ति से मिला था, जो सचमुच ख़ुश था।
बाद में मैंने भीड़ में से रास्ता बनाया और उन्हें बताया कि वे कितने अद्भुत थे और उन्होंने मुझे कितना ज़्यादा प्रेरित किया था। मेरे मुँह से अचानक यह निकल पड़ा, “मैं आपके साथ ज़्यादा समय कैसे बिता सकता हूँ?” मेरे मन में ऐसे लोगों के आस-पास रहने की इच्छा उत्पन्न हुई, जिनके पास मेरे मनचाहे मूल्य हों। वे चीज़ें न हों, जो मैं चाहता था।

"अवलोकन और मूल्यांकन संन्यासी की तरह सोचने की कुंजी हैं. ये रिक्त स्थान और स्थिरता से शुरू होते हैं."
संन्यासी ने मुझे बताया कि वे यात्रा कर रहे हैं और उस पूरे सप्ताह इंग्लैंड में व्याख्यान देने वाले हैं और मैं उनके बाक़ी के व्याख्यानों में भी आ सकता हूँ। बाद में मैं सचमुच उनके सभी व्याख्यान सुनने गया।
संन्यासी का नाम था गौरंग दास और मेरे मन में उनकी पहली छवि यह थी कि वे एक सही चीज़ कर रहे थे। बाद में मुझे पता चला कि विज्ञान भी इसका समर्थन करता है। 2002 में तिब्बत के योंगी मिंग्युर रिनपोचे नामक संन्यासी काठमांडू, नेपाल के बाहर के एक इलाक़े से निकलकर यूनिवर्सिटी ऑफ़ विस्कॉन्सिन-मेडिसन गए, ताकि शोधकर्ता उनके ध्यान करते समय उनके मस्तिष्क की गतिविधि देख सकें। वैज्ञानिकों ने संन्यासी के सिर पर शॉवर कैप जैसा यंत्र लगा दिया (ईईजी), जिसमें से 250 से ज़्यादा सेंसर वाले छोटे-छोटे तार बाहर निकल रहे थे। अध्ययन के समय तक संन्यासी जीवन में 62,000 घंटों का ध्यान लगा चुके थे।
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वैज्ञानिकों की टीम में कुछ वैज्ञानिक भी ध्यान लगाने में माहिर थे। जब उन्होंने नियंत्रण कक्ष से देखा, तो संन्यासी ने ध्यान शुरू कर दिया, जैसा शोधकर्ताओं का आग्रह था - करुणा पर एक मिनट तक ध्यान लगाना, इसके बाद तीस सेकंड तक विश्राम करना और फिर यही चक्र दोहराना। उन्होंने यह चक्र चार बार लगातार दोहराया, जिसका संकेत एक अनुवादक उन्हें देता जा रहा था। शोधकर्ताओं ने आश्चर्यमिश्रित श्रद्धा से देखा कि जिस पल संन्यासी ने अपना ध्यान शुरू किया, ठीक उसी पल ईईजी की गतिविधि में अचानक और भारी उछाल नज़र आने लगा। वैज्ञानिकों को लगा कि ऐसा बड़ा और त्वरित उछाल इस वजह से आया होगा, क्योंकि संन्यासी ने मुद्रा बदली होगी या शरीर को हिलाया-ढुलाया होगा, लेकिन सबको साफ़ दिख रहा था कि वे पूरी तरह स्थिर बैठे थे।
संन्यासी के मस्तिष्क की गतिविधि की निरंतरता उल्लेखनीय थी, जैसे गतिविधि और विश्राम अवधि के बीच ‘चालू’ और ‘बंद’ होना। इसके अलावा यह उल्लेखनीय तथ्य भी था कि उन्हें किसी ‘वार्म अप’ अवधि की ज़रूरत नहीं थी। यदि आप ध्यान करते हैं या आपने अपने मस्तिष्क को शांत करने की कोशिश की है, तो आप जानते हैं कि आपके मन में मँडराने वाले विचारों को शांत करने में थोड़ा समय लगता है। रिनपोचे को ऐसे किसी ‘वार्मअप’ की ज़रूरत नहीं थी। दरअसल, वे तो शक्तिशाली ध्यान की अवस्था के अंदर ऐसे जा रहे थे, जैसे कोई स्विच चालू कर दिया गया हो और उससे बाहर ऐसे निकल रहे थे, जैसे उस स्विच को बंद कर दिया गया हो। इन शुरुआती अध्ययनों के दस साल बाद इकतालीस साल के संन्यासी के मस्तिष्क का स्कैन किया गया। इससे यह पता चला कि उनकी उम्र उनके समकक्षों की तुलना में धीमी गति से बढ़ रही थी। शोधकर्ताओं का कहना था कि उनका मस्तिष्क उनकी उम्र से लगभग दस साल ज़्यादा जवान है।

"जिस संसार में हम रहते हैं, वह लगातार खुलकर या छुपकर इस तरह के सुझाव देता रहता है कि हमें किन चीज़ों की इच्छा करनी चाहिए और हमें कैसे जीना चाहिए और हमें अपने बारे में कैसे विचार रखने चाहिए कि हम कौन हैं।"
जिन शोधकर्ताओं ने बौद्ध संन्यासी मैथ्यू रिकार्ड के मस्तिष्क की स्कैनिंग की, उन्होंने बाद में उन पर ‘संसार का सबसे सुखी आदमी’ का लेबल लगा दिया। इसका कारण यह था कि रिकार्ड के मस्तिष्क में गामा वेव्ज़ का इतना ऊँचा स्तर पाया गया, जितना विज्ञान में पहले कभी नहीं नापा गया था। गामा वेव्ज़ का संबंध ध्यान, स्मृति, सीखने और ख़ुशी से होता है। सामान्य से इतने ऊँचे स्तर की गामा वेव्ज़ वाला एक संन्यासी किसी अपवाद की तरह नज़र आता, लेकिन रिकार्ड अकेले नहीं हैं। ध्यान के दौरान जिन इक्कीस अन्य संन्यासियों के मस्तिष्क की स्कैनिंग की गई थी, उनमें भी गामा वेव्ज़ के स्तर ज़्यादा ऊँचे और स्थायी थे (नींद के दौरान भी), जो ध्यान न करने वालों की तुलना में बहुत ज़्यादा थे।
हमें संन्यासियों की तरह क्यों सोचना चाहिए? अगर आप यह जानना चाहते हैं कि बास्केटबॉल कोर्ट पर धूम कैसे मचानी है, तो आप माइकल जॉर्डन के पास जाएँगे। अगर आप नवाचार करना चाहते हैं, तो आप इलॉन मस्क के तौर-तरीक़ों का विश्लेषण करेंगे। प्रस्तुति कैसे देनी है, यह सीखने के लिए आप बियॉन्से का अध्ययन कर सकते हैं। अगर आप मन को शांत करने और उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने के लिए प्रशिक्षित करना चाहते हों, तो कहाँ जाएँ? संन्यासी इसके विशेषज्ञ हैं। gratefulness.org/ की सह स्थापना करने वाले बेनडिक्टीन संन्यासी ब्रदर डेविड स्टिंडल-रैस्ट लिखते हैं, “ संन्यासी वह आम आदमी है, जो चेतन होकर वर्तमान पल में निरंतर सजीव रहने का लक्ष्य रखता है।”
संन्यासी प्रलोभनों को झेल सकते हैं, आलोचना से बच सकते हैं, दर्द और चिंता से निपट सकते हैं, अहं को शांत कर सकते हैं और उद्देश्य व अर्थ से भरपूर जीवन बना सकते हैं। हम संसार के सबसे शांत, सुखी और उद्देश्यपूर्ण लोगों से क्यों न सीखें? शायद आप सोच रहे होंगे कि शांत और तनावरहित रहना संन्यासियों के लिए आसान होता है। वे शांत जगहों पर छुपे बैठे रहते हैं, जहाँ उन्हें नौकरियों, प्रेमिकाओं और ट्रैफ़िक के व्यस्त घंटों से नहीं जूझना पड़ता। शायद आप सोच रहे होंगे, संन्यासी की तरह सोचने से मुझे आधुनिक संसार में मदद कैसे मिल सकती है?
सबसे पहली बात, कोई भी संन्यासी के रूप में पैदा नहीं होता है। संन्यासी सभी तरह की पृष्ठभूमियों से आते हैं, जो अपनी काया-कल्प करने का चयन करते हैं। ‘संसार के सबसे सुखी आदमी’ मैथ्यू रिकार्ड संन्यासी बनने से पहले जीववैज्ञानिक थे। मेडिटेशन एप हेडस्पेस के सह-संस्थापक एंडी पडीकॉम्बे सर्कस में काम करने के लिए प्रशिक्षित थे। मैं ऐसे संन्यासियों को जानता हूँ, जो इससे पहले वित्त और रॉक बैंड जैसे क्षेत्रों में थे। आपकी ही तरह वे भी शहरों में बड़े हुए हैं, आपकी ही तरह वे भी स्कूलों में पढ़े हैं। मैं यह बताना चाहूँगा कि संन्यासी बनने के लिए आपको अपने घर में मोमबत्तियाँ जलाने, नंगे पैर घूमने या किसी पर्वत शिखर पर वृक्षासन करते हुए अपने फ़ोटो पोस्ट करने की ज़रूरत नहीं होती। संन्यासी बनना तो एक मानसिकता है, जिसे कोई भी अपना सकता है।

''जब हम अपने आसपास के संसार की राय, अपेक्षाओं और दायित्वों से दूर हो जाते हैं, तो हम ख़ुद को सुनने लगते हैं।''
आज के ज़्यादातर संन्यासियों की तरह मैं आश्रम में पला-बढ़ा नहीं था। मैंने अपना ज़्यादातर बचपन ऐसी चीज़ें करने में बिताया, जो कहीं से कहीं तक संन्यासियों जैसी नहीं थीं। चौदह साल की उम्र तक मैं काफ़ी आज्ञाकारी बच्चा था। मैं उत्तरी लंदन में अपने माता-पिता और छोटी बहन के साथ रहता था। मैं मध्यवर्गीय भारतीय परिवार का हूँ। बहुत से माता-पिताओं की तरह मेरे माता-पिता भी मेरी शिक्षा के प्रति समर्पित थे और वे मुझे अच्छे भविष्य के लिए भरसक तैयार कर रहे थे। मैं मुश्किलों से दूर रहा, स्कूल में अच्छा प्रदर्शन किया और हर एक को ख़ुश करने की पूरी कोशिश की।
लेकिन सेकंडरी स्कूल शुरू करने के बाद मैं ग़लत दिशा में मुड़ गया। बचपन में मेरा शरीर भारी था, जिस वजह से लोग मुझे ताने मारते थे। सेकंडरी स्कूल तक मैंने अपना वज़न कम कर लिया और सॉकर तथा रग्बी खेलने लगा। मैं उन विषयों की ओर मुड़ा, जिन्हें पारंपरिक भारतीय माता-पिता आमतौर पर पसंद नहीं करते, जैसे कला, डिज़ाइनिंग और दर्शन। इस सबमें कोई दिक्क़त नहीं थी; दिक्क़त की बात तो यह थी कि मैं ग़लत लोगों के साथ उठने-बैठने भी लगा। मैं बुरी चीज़ों में शामिल हो गया। नशीले पदार्थों के प्रयोग, लड़ाई-झगड़ा करना, ज़रूरत से ज़्यादा शराब पीना। इसका परिणाम अच्छा नहीं रहा। हाई स्कूल में मुझे तीन बार सस्पेंड किया गया। आख़िरकार, स्कूल ने मुझे निकालने का निर्णय लिया।
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“मैं बदल जाऊँगा,” मैंने वादा किया।“ अगर आप मुझे नहीं निकालेंगे, तो मैं बदल जाऊँगा।” स्कूल ने मुझे एक मौक़ा और दिया तथा मैंने उस मौक़े का पूरा फ़ायदा उठाया।
आख़िरकार कॉलेज में मैंने कड़ी मेहनत, त्याग, अनुशासन, लक्ष्य के प्रति लगन का महत्त्व समझ लिया। समस्या यह थी कि उस वक़्त मेरे पास कोई ख़ास लक्ष्य नहीं थे। मेरे लक्ष्य वही थे, जो बाक़ी सब बच्चों के थे, जैसे अच्छी नौकरी हासिल करना, शादी करना, परिवार बसाना सामान्य बातें। मुझे कभी-कभी लगता था कि इससे भी ज़्यादा गहरी कोई चीज़ थी, लेकिन मैं नहीं जानता था कि यह कौन सी चीज़ थी।
जिस समय गौरंग दास मेरे कॉलेज में व्याख्यान देने आए, उस समय मैं नए विचारों को टटोलने के लिए तैयार था। तब तक मैं जीने के एक नए मॉडल या मार्ग पर चलने को तैयार था, जो उस मार्ग से बिलकुल अलग था, जिसके बारे में हर व्यक्ति (मैं भी) सोचता था कि मैं चलूँगा। मैं मनुष्य के रूप में विकास करना चाहता था। मैं विनम्रता, करुणा और परानुभूति को केवल अमूर्त विचारों की तरह नहीं जानना चाहता था; मैं तो उन्हें जीना चाहता था। मैं नहीं चाहता था कि अनुशासन, चरित्र और सत्यनिष्ठा बस ऐसी चीज़ें हों, जिनके बारे में मैं पढ़ूँ। मैं उन्हें जीना चाहता था।
अगले चार साल तक मैं दोनों संसारों के बीच झूलता रहा। मैं कभी शराबख़ानों और स्टीकहाउसेस में जाता था, तो कभी ध्यान और फ़र्श पर सोने की विपरीत जीवनशैली अपनाता था। लंदन में मैंने प्रबंधन का अध्ययन किया, जिसका ज़ोर व्यवहारवादी विज्ञान पर था, फिर मैंने एक बड़ी परामर्शदाता फ़र्म में इंटर्नशिप की और अपने दोस्तों तथा परिवार के साथ समय बिताया। और मुंबई के एक आश्रम में मैंने प्राचीन ग्रंथ पढ़े और क्रिसमस और गर्मी की ज़्यादातर छुट्टियाँ संन्यासियों के साथ बिताई। मेरे मूल्य धीरे-धीरे बदलते गए। मैंने पाया कि मैं संन्यासियों के आस-पास रहना चाहता था। सच तो यह था कि मैं संन्यासी मानसिकता में डूबना चाहता था। मेरे अंदर दिनों-दिन यह अहसास बढ़ता गया कि मैं कॉरपोरेट जगत में जो काम कर रहा था, उसमें अर्थ का अभाव था। अगर इसका किसी पर कोई सकारात्मक प्रभाव ही नहीं पड़ता, तो इसका क्या तुक था?

''जब आप ख़ुद को जगह और स्थिरता देते हैं, तो आप धूल साफ़ करके ख़ुद को देख सकते हैं, दूसरों की आँखों से नहीं, बल्कि भीतर से।''
जब मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की, तो मैंने सूट की जगह भगवा चोला पहना और आश्रम में चला गया, जहाँ हम फ़र्श पर सोते थे और हमारा पूरा सामान जिम लॉकर में रहता था। मैंने भारत, इंग्लैंड और यूरोप की यात्रा की तथा वहाँ रहा। मैं हर दिन कई घंटे ध्यान करता था और प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन करता था। मुझे अपने साथी संन्यासियों के साथ सेवा करने का अवसर भी मिला। मुझे मुंबई के बाहर एक गाँव के आश्रम को ईको- फ्रेंडली स्पिरिच्युअल रिट्रीट (गोवर्धन ईकोविलेज) में रूपांतरित करने के काम में मदद करने का अवसर मिला। इसके अलावा, एक भोजन योजना (अन्नामृत) में स्वयंसेवी बनने का अवसर भी मिला, जो एक दिन में दस लाख से ज़्यादा को भोजन बाँटती है।
अगर मैं संन्यासी की तरह सोचना सीख सकता हूँ, तो यह काम कोई भी कर सकता है।
जिन हिंदू संन्यासियों के साथ मैंने अध्ययन किया, वे वेद को बुनियादी ग्रंथ मानते हैं। (संस्कृत शब्द वेद का मतलब है ज्ञान। संस्कृत एक प्राचीन भाषा है, जो आज दक्षिण एशिया में बोली जाने वाली ज़्यादातर भाषाओं की जननी है।) आप तर्क दे सकते हैं कि दर्शन धर्मग्रंथों के इस प्राचीन संग्रह से शुरू हुआ, जिसका उद्गम कम से कम तीन हज़ार साल पहले उस इलाक़े में हुआ, जिसमें वर्तमान पाकिस्तान के कुछ हिस्से और उत्तर-पश्चिम भारत शामिल है। वेद हिंदू धर्म का आधार हैं।होमर के महाकाव्यों की तरह ही वेद भी पहले मौखिक रूप से संप्रेषित हुए, फिर अंततः उन्हें लिखा गया, लेकिन सामग्री इतनी भंगुर थी (ताड़ के पत्ते और भोज वृक्ष की छाल!) कि मूल ग्रंथ समय के साथ नष्ट हो गए। वर्तमान में जो दस्तावेज़ बचे हैं, उनकी उम्र हज़ार साल से भी कम है। वेदों में स्तुतियाँ, ऐतिहासिक कथाएँ, कविताएँ, प्रार्थनाएँ, मंत्र, कर्मकांडीय परंपराएँ और दैनिक जीवन के लिए सलाह शामिल हैं।
अपने जीवन और इस पुस्तक में मैं भगवद्गीता (जिसका मतलब है ‘भगवान का गीत’) का बार-बार ज़िक्र करता हूँ। यह उपनिषदों पर आधारित है, जिन्हें 800 ई.पू. से 400 ई.पू. के बीच लिखा गया। भगवद्गीता को एक तरह की शाश्वत और कालजयी जीवन नियमावली माना जाता है। यह प्रवचन किसी संन्यासी को नहीं दिया गया है, न ही इसकी पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है। यह प्रवचन तो एक विवाहित आदमी को दिया गया है, जो एक प्रतिभाशाली धनुर्धर भी है। इसका उद्देश्य केवल एक धर्म या क्षेत्र तक सीमित रहने का नहीं था - यह ग्रंथ तो पूरी मानवता के लिए है। एकनाथ ईश्वरन प्रख्यात आध्यात्मिक लेखक और प्रोफ़ेसर हैं, जिन्होंने भगवद्गीता सहित भारत के कई धर्मग्रंथों का अनुवाद किया है। वे कहते हैं कि भगवद्गीता ‘विश्व को भारत का सबसे महत्त्वपूर्ण उपहार’ है। अपने 1845 के जनरल में रैल्फ़ वाल्डो इमर्सन ने लिखा था, “ भगवद्गीता के साथ मेरा एक शानदार दिन गुज़रा - मेरा और मेरे मित्र का। यह पुस्तकों में सर्वप्रथम है। ऐसा लगा जैसे कोई साम्राज्य हमसे बोल रहा हो। इसकी आवाज़ छोटी या हल्की नहीं थी। यह तो एक बड़ी, शांत, निरंतर, प्राचीन बुद्धिमत्ता की आवाज़ थी, जिसने एक भिन्न युग और परिवेश में उन्हीं प्रश्नों पर विचार किया था और समाधान बताया था, जो आज हमारे सामने मौजूद हैं।” कहा जाता है कि किसी भी अन्य धर्मग्रंथ के बजाय गीता पर सबसे ज़्यादा टीकाएँ लिखी गई हैं।
इस पुस्तक में मेरा एक लक्ष्य आपको इसकी अमर बुद्धिमत्ता से जोड़ने में मदद करना है। इसके अलावा, मैं आपको दूसरी प्राचीन शिक्षाओं से भी जोड़ना चाहूँगा, जो संन्यासी के रूप में मेरी शिक्षा का आधार थीं। ये सभी उन चुनौतियों के संदर्भ में बहुत ज़्यादा प्रासंगिक हैं, जिनका आज हम सब सामना कर रहे हैं।
जब मैंने संन्यासी दर्शन का अध्ययन किया, तो मुझे सबसे ज़्यादा आश्चर्य इस बात से हुआ कि पिछले तीन हज़ार सालों में इंसान बिलकुल भी नहीं बदले हैं। निश्चित रूप से हम ज़्यादा लंबे हुए हैं और औसतन हमारा जीवन भी ज़्यादा लंबा हुआ है, लेकिन मैं यह पाकर हैरान और प्रभावित था कि क्षमा, ऊर्जा, इरादों, उद्देश्यपूर्ण जीवन और दूसरे विषयों पर दी गईं संन्यासी की नसीहतें आज भी उतनी ही प्रासंगिक और प्रभावी हैं, जितनी कि तब थीं, जब उन्हें लिखा गया था।
इससे भी ज़्यादा प्रभावित करने वाली बात यह है कि विज्ञान भी काफ़ी हद तक संन्यासी की बुद्धिमत्ता का समर्थन करता है, जैसा हम इस पूरी पुस्तक में देखेंगे। हज़ारों सालों से संन्यासी मानते आए हैं कि ध्यान और चेतन मनन आपको फ़ायदा पहुँचाते हैं, कृतज्ञता आपके लिए अच्छी है, सेवा आपको ज़्यादा सुखी बनाती है आदि-इत्यादि। उन्होंने इन विचारों के आधार पर बहुत पहले परंपराएँ और प्रथाएँ विकसित कीं और आधुनिक विज्ञान आज उनकी वैधता को प्रमाणित कर रहा है।
लेखक : जय शेट्टी