राहत इंदौरी की शायरी ज़िन्दगी में नया हौसला पैदा करने वाली और नया उत्साह दिलाने वाली शायरी है.
अगर आपका मन शायरी में अल्फ़ाज़ कैसे झूमते हैं, ये देखने का हो; जज़्बात लफ़्ज़ों में कैसे बात करते हैं, ये जानने का हो; विचार को चारदीवारी से बाहर निकालकर सब तक कैसे पहुँचाया जाता है, ये समझने का हो; या फिर शायरी में शायरी से मुहब्बत कैसे की जाती है, ये देखने का हो; दिल के ख़त पर दस्तख़त कैसे किए जाते हैं, ये हुनर सीखने का हो; सामान्य बात को विशेष कैसे बनाया जाता है, इस प्रतिभा से परिचित होने का हो; या फिर विशेष और कठिन से कठिन बात को साधारण तरीके से कहने की कला सीखने का हो, तो ये सारी चीजें आपको एक ही व्यक्तित्व में मिल जाएँगी और उस शख्सियत का नाम है: जनाब राहत इन्दौरी!
जिसने भी उन्हें मंच पर कविता सुनाते हुए देखा है, वह अच्छी तरह जानता है कि राहत भाई लफ़्ज़ को केवल बोलते ही नहीं हैं, उसको चित्रित भी कर देते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि ये अज़ीम शायर लफ़्ज़ों के जरिये पेंटिंग कर रहा है। उनमें अपने भावों और विचारों के रंग भरकर सामने ला रहा है।
राहत भाई की शायरी को हम केवल सुनते ही हों, ऐसा नहीं है, उनकी शायरी दिखाई भी देती है। वे जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे चित्रित भी कर देते हैं, इसलिए उनका कथ्य पर्दे के पीछे छुपे होने के बावज़ूद साफ़ दिखाई देता है। यह विरोधाभास सामान्य कवि या शायर में नहीं मिलता वरन् उसमें ही मिलता है जिसे उपयुक्त शब्दों को इस्तेमाल करने की समझ हो और वह जो कहना चाहता है उसे दूसरों तक पहुँचाने की तड़प भी हो।
राहत भाई ने भले ही एक स्थान पर यह कहा है :
मेरी ग़ज़ल को ग़ज़ल ही समझ तो अच्छा है
मेरी ग़ज़ल से कोई रुख़ निकालता क्यूँ है
लेकिन यह उनकी विनम्रता ही है। सच तो यह है कि यदि उनकी शायरी के भाव–पक्ष अर्थात विषयवस्तु की दृष्टि से विचार किया जाए तो हमें पता चलेगा कि उनका कथ्य अनेक विषयों से जुड़ा है, जैसे—प्रेम से, अध्यात्म अर्थात मार्फ़त से, जीवन–यथार्थ से, जीवनानुभवों से, बदलते जीवन–मूल्यों से, नारी–विमर्श से, सामाजिक विसंगतियों से, रिश्तों से, क़ानून–व्यवस्था से, बाज़ारवाद से, धार्मिक तथा अन्य प्रकार के आडम्बरों से, मशीनीकरण से, पश्चिमीकरण के अंधानुकरण से, देश की सियासत और बेकारी जैसी आर्थिक समस्याओं तथा आर्थिक विसंगतियों से भी। आशय यह है कि राहत भाई ने पूरी संवेदना और ईमानदारी के साथ इन बातों पर सहज और सरल भाषा में कलात्मक और सकारात्मक शायरी की है। उनके प्रतीक, उनके बिम्ब, उनकी शब्द–योजना, नई मुहावरेदारी, सटीक कल्पनाशीलता तथा बात को सूक्तिमय शैली में कहने की अदा अद्वितीय है। उनकी शायरी में अगर एक ओर गम्भीरता रहती है तो दूसरी ओर चुलबुलापन भी रहता है और यही कारण है कि उनकी शायरी श्रोताओं और पाठकों, दोनों को अपनी–अपनी तरह से आकर्षित करती है। उनकी शायरी सोच के आसमान की बुलन्दियों को छूते हुए भी ज़मीन की शायरी है। वे कहते हैं:
झूठी बुलन्दियों का धुआँ पार करके आ
क़द नापना है मेरा तो छत से उतर के आ
राहत भाई जहाँ मुहब्बत की बात करते हैं, वहीं कहीं–कहीं अध्यात्म और मार्फ़त की बात भी अचानक ही हो जाती है। इस सम्बन्ध में उनका यह एक शेर बहुत ही प्रसिद्ध है:
उसकी याद आई है साँसो ज़रा आहिस्ता चलो,
धड़कनों से भी इबादत में ख़लल पड़ता है
राहत भाई के इस शेर में जो गहराई है, वह अचानक ही नहीं आई है। बक़ौल उनके ही:
हमसे पूछो कि ग़ज़ल माँगती है कितना लहू
सब समझते हैं ये धंधा बड़े आराम का है
राहत भाई एक ऐसे शायर हैं जिन्होंने ज़िन्दगी की हक़ीक़त को, उसकी नश्वरता को अच्छी तरह पहचाना है और उसी पहचान को शायरी के रूप में नए ढंग से पेश किया है:
कटी जाती हैं साँसों की पतंगें
हवा तलवार होती जा रही है
यही नहीं, दुनिया के तजुर्बात को भी उन्होंने बड़े ही सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है और दुनिया के बारे में यह कहा है:
जिसको दुनिया कहा जाता है कोठे की तवाइफ़ है
इशारा किसको करती है नज़ारा कौन करता है
आज के समाज में नारी की जो दशा है और उसके साथ जो ज़ुल्म और बलात्कार हो रहे हैं, उन पर भी उनकी दृष्टि गई है और उन्होंने यह कहा:
दिखाई देता है जो भेड़िये के होंठों पर
वो लाल दूध हमारी सफ़ेद गाय का है
दूसरी ओर उन्होंने ऐसे समाज पर व्यंग्यात्मक शब्दावली में यह भी कहा है:
गाँव की बेटी की इज़्ज़त तो बचा लूँ लेकिन
मुझे मुखिया न कहीं गाँव के बाहर कर दे
इस समाज–व्यवस्था के कर्णधारों के आडम्बर की बात करते हुए वे यह भी कहते हैं:
सारी फ़ितरत तो नक़ाबों में छिपा रक्खी थी
सिर्फ़ तसवीर उजालों में लगा रक्खी थी
रिश्तों पर अपनी लेखिनी चलाते हुए राहत साहब संसार के सबसे ख़ूबसूरत और नजदीक़ी रिश्ते अर्थात माँ के व्यक्तित्व की अक़ीदत को नमन करते हुए कहते हैं:
माँ के क़दमों के निशां हैं कि दीये रौशन हैं
ग़ौर से देख यहीं पर कहीं जन्नत होगी
राहत साहब ने हमारे देश की क़ानून–व्यवस्था पर भी ख़ूब कहा है। चोरी–डकैती आज खुलेआम हो रही है। इस पर उनका ये शेर देखें:
जो माल तेरा था कल तक, वो अब पराये का है
यही रिवाज मेरे शहर की सराय का है
आज वैश्वीकरण के कारण जो भारत में बाज़ारवाद आया है, उस पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं:
तू जो चाहे तो तेरा झूठ भी बिक सकता है
शर्त इतनी है कि सोने की तराज़ू रख ले
आज का युग विज्ञापन का युग है, इस बात को भी शायर ने अच्छी तरह समझा है और यह कहा है:
किसी को जख़्म दिये हैं किसी को फूल दिये
बुरी हो चाहे भली हो मगर ख़बर में रहो
आज हमारे युवक गाँव से शहरों की तरफ़ और देश से विदेश की ओर भाग रहे हैं, इस पर भी राहत साहब का ध्यान गया है:
नौजवाँ बेटों को शहरों के तमाशे ले उड़े
गाँव की झोली में कुछ मजबूर माँएँ रह गईं
डॉ. राहत इन्दौरी ने सियासत पर भी नज़र डाली है और उन्हें इस सन्दर्भ में जैसा लगा, वैसा ही लिखा:
यहाँ तो चारों तरफ़ कोयले की खानें हैं
बचा न पाएगा कपड़े सँभालता क्यूँ है
और उन्होंने यह बात ऐसे ही नहीं लिख दी। उन्होंने साफ़–साफ़ यह देखा:
रहबर मैंने समझ रक्खा था जिनको राहत
क्या ख़बर थी कि वही लूटने वाले होंगे
अगर हमारे राजनेता ही ऐसे निकल आएँ, जिन्हें हम चुनकर भेजते हैं, वे अपनी मनमानी करते रहें तो कवि का कर्तव्य हो जाता है कि वह इस स्वर में भी बात करे जिसमें राहत भाई करते हैं। वे कहते हैं:
इंतज़ामात नए सर से सँभाले जाएँ
जितने कमज़र्फ़ हैं महफ़िल से निकाले जाएँ
राहत भाई ने सभी क्षेत्रों के प्रदूषण पर भी नज़र दौड़ाई है और इस प्रदूषण को अलग–अलग शेरों में रेखांकित भी किया है। साहित्य के मंचों के क्षेत्र में जो प्रदूषण है, उस पर उन्होंने अच्छा कटाक्ष किया है:
अदब कहाँ का कि हर रात देखता हूँ मैं
मुशायरों में तमाशे मदारियों वाले
वे यह भी कहते हैं:
ग़ज़ल की क़ब्र पे आँसू बहा के लौट आया
मुशायरों में लतीफ़े सुना के लौट आया
आज धार्मिकता भी स्वच्छ नहीं रह पाई है। धर्म की आड़ में कुछ और फ़ायदे प्राप्त करने का लक्ष्य भी आज अच्छी तरह दिखाई देता है। ख़ास तौर से आज सियासत में धर्म का खेल ख़ूब चल रहा है। दंगे–फ़साद भी इसी की देन हैं। राहत जी इसी वजह से यह लिखते हैं:
देवताओं और ख़ुदाओं की लगाई आग ने
देखते ही देखते बस्ती को जंगल कर दिया
धार्मिकता भी मतलब की रह गई है, इस पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं:
ख़ुदा से काम कोई आ पड़ा है
बहुत मस्जिद के चक्कर लग रहे हैं
जहाँ तक कला–पक्ष और शिल्प का प्रश्न है, राहत भाई की ग़ज़लें पूरी परिपक्वता लिये हुए हैं। चाहे वह ग़ज़ल की बहर या छन्द की बात हो, चाहे अपनी बात को सटीक भाषा में अभिव्यक्त करने की, चाहे भाषा के मुहावरे की हो या सूक्तमयता की, चाहे प्रतीक विधान की हो या बिम्बात्मकता की, और फिर चाहे वह कल्पनाशीलता की हो या यथार्थ की—छन्द की दृष्टि से विचार करें तो उन्होंने सालिम और मिश्रित, दोनों ही प्रकार की बहरों का इस्तेमाल किया है। वैसे उन्हें बहरे–हजज़ अधिक पसन्द है जिसका प्रमुख रुक्न ‘मफाईलुन’ है। इसका एक उदाहरण देखें:
पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है
वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुशबू लगाता है
राहत साहब ने अपनी ग़ज़लों के लिए उस भाषा का चुनाव किया है जो पूरी तरह बोलचाल की भाषा है। वह ठेठ उर्दू नहीं है। क्योंकि वे कहते भी हैं:
हमने सीखी नहीं है क़िस्मत से
ऐसी उर्दू जो फ़ारसी भी लगे
वह ऐसी भाषा है जो सबकी समझ में आ जाए, फिर चाहे उसमें बोल–चाल के नित्य प्रयुक्त होने वाले अंग्रेज़ी के ही शब्द क्यों न हों। एक शेर में उन्होंने ‘कैलेंडर’ शब्द का प्रयोग बेझिझक कर दिया है। उदाहरण देखें:
बहुत रंगीन तबीयत हैं परिंदे
दरख़्तों पर कैलेंडर लग रहे हैं
इसी प्रकार राहत भाई ने ऐसे शब्दों का भी निर्माण किया है जो केवल उन्हीं के बनाए हुए से लगते हैं किन्तु अपना वास्तविक अर्थ भी देते हैं। जैसे—एक शेर के दूसरे मिसरे: ‘उड़नचियों से कोई कितनी दूर जाएगा’ में ‘उड़नचियों’ शब्द, और ‘मेरे बारे में ये सोचा–विचारा कौन करता है’ में ‘सोचा–विचारा’ शब्द। इसी के साथ–साथ उन्होंने मुहावरेदार भाषा का प्रयोग भी किया है। जैसे—‘होश ठिकाने आना’ (अब कहीं जाके मेरे होश ठिकाने आए), ‘जीने के लाले पड़ना’, आदि। कुछ नए मुहावरे भी उन्होंने स्वयं गढ़े हैं, जैसे–‘फटे रूमाल पर ख़ुशबू लगाना’ (वो अब भी इक फटे रूमाल पर ख़ुशबू लगाता है), आदि।
शायरी इशारों में कही हुई बात है, और इसमें सबसे बड़ा उपयोग ‘प्रतीकों’ का होता है। राहत भाई को ऐसे प्रतीकों के प्रयोग में महारत हासिल है। उन्होंने अलग–अलग क्षेत्रों के प्रतीकों का प्रयोग किया है। पौराणिक प्रतीकों को यदि देखें तो उन्होंने ‘लक्ष्मण’, ‘गौतम’ आदि सकारात्मक प्रतीकों का प्रयोग करके वह अर्थ ध्वनित किया है जो वह कहना चाहते हैं। इसी प्रकार ‘राक्षस’ क्रूरता का तथा ‘देवता’ अच्छाई का प्रतीक बनकर उनकी शायरी में आया है। उदाहरण के लिए ये शेर देखें :
ये शहर वो है जहाँ राक्षस भी रहते हैं
हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो
इसी प्रकार ‘बिच्छू’, ‘काग़ज़ का गुलाब’, भेड़िया, गाय, कबूतर, पेड़ आदि प्रतीकों का भी सटीक प्रयोग किया है।
किसी भी शायर को बड़ा शायर तब कहा जाता है जब उसके शेर जिन्दगी के अनेक मोड़ों पर याद आएँ और ज़िन्दगी को कोई नया अनुभव या नई दिशा भी दें। ये वे शेर होते हैं जो समय–समय पर उपयुक्त स्थान और वक़्त पर उद्धृत करने योग्य होते हैं। राहत भाई के इस ग़ज़ल संग्रह में भी अनेक ऐसे शेर हैं जो मन में उतरते चले जाते हैं और कुछ सोचने को मजबूर करते हैं तथा दिशा–निर्देश भी करते हैं। ये शेर एक प्रकार से सूक्ति–वाक्य जैसे लगते हैं। राहत भाई के ऐसे शेरों की एक बड़ी संख्या है। किन्तु बानगी के तौर पर कुछ शेर ये हैं:
हर एक चेहरे को जख़्मों का आईना न कहो
ये ज़िन्दगी तो है रहमत इसे सज़ा न कहो
मुस्कराहट की सलीबों पे चढ़ा दो आँसू
ज़िन्दगी ऐसी गुज़ारो कि मिसालों में मिले
टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट
और अपने हार जाने का सबब मालूम कर
सफ़र की हद है वहाँ तक कि कुछ निशान रहे
चले चलो कि जहाँ तक ये आसमान रहे
आशय यह है कि राहत भाई की शायरी ज़िन्दगी में नया हौसला पैदा करने वाली और हारे–थके को नया उत्साह दिलाने वाली सकारात्मक तथा संवेदनशील शायरी है। वह प्रत्येक कोण से साफ़–सुथरी और साहित्यिक मानदंडों पर खरी उतरने वाली उद्देश्यपूर्ण शायरी है। यह व्यक्तिगत मनोभावों से लेकर सामाजिक सरोकारों, देश–दशा और विश्व पर नज़र रखने वाली शायरी भी है। उन्होंने विदेशों में भी अपनी शायरी को चर्चित किया है और देश–दुनिया के हालात भी देखे हैं इसलिए उनकी ग़ज़लों में सचाई और प्रामाणिकता है। लेकिन शर्त यह है कि उनके इस शेर की बात को समझकर उसे माना भी जाए:
काग़ज़ों की ख़ामोशियाँ भी पढ़
एक इक हर्फ़ को सदा भी मान
उनके ‘मेरे बाद’ नामक इस संग्रह को किस प्रकार पढ़ा जाए, इसका तरीक़ा भी वे ख़ुद बता देते हैं और यही तरीक़ा ठीक भी है:
अभी तो नाव किनारे है फ़ैसला न करो
ज़रा बढ़ोगे तो गहराइयाँ भी आएँगी।
-डॉ. कुँअर बेचैन.