Brajesh Rajput Interview : "पॉलिटिक्स पर लिखना आसान नहीं होता"

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राजनीतिक घटनाओं को क़लमबद्ध कर उसे किताब की शक्ल देना मुश्किल काम होता है जिसे ब्रजेश राजपूत ने किया.

ब्रजेश राजपूत टीवी के सीनियर पत्रकार हैं और रिपोर्टिंग के साथ साथ लगातार लेखन कर रहे हैं उनकी हाल में आयी किताब 'वो सत्रह दिन' बेहद चर्चित हो रही है. मध्यप्रदेश के कमलनाथ सरकार गिराने के घटनाक्रम पर लिखी इस किताब को पॉलिटिकल थ्रिलर कहा जा रहा है.  

भोपाल में रहने वाले ब्रजेश राजपूत से बात की समय पत्रिका ने उनकी नयी किताब और आने वाली किताब के बारे में.

⬤ मध्यप्रदेश के राजनीतिक घटनाक्रम पर लिखी इस किताब को पढ़ने वाले इसे पॉलिटिकल थ्रिलर कह रहे हैं ऐसा क्या है वो सत्रह दिन में जो इसे नया नाम दिया जा रहा है? 

यह किताब मध्यप्रदेश में मार्च में हुए सत्ता-पलट की घटनाओं पर है। मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ की सरकार को गिराने के लिये तीन मार्च से लेकर बीस मार्च तक जो घटनाक्रम हुआ उसका इसमें सिलसिलेवार ब्यौरा कहानी की शैली में तो है ही, साथ ही उन घटनाओं के पीछे क्या क्या हो रहा था, उस सच्चाई को भी सरल अंदाज में कहा गया है। दरअसल हम सब यही जानते हैं कि मार्च में कमलनाथ सरकार गिर गयी। मगर सरकार गिराने और बचाने के लिये बीजेपी और कांग्रेस दोनों पक्षों की ओर से क्या क्या हो रहा था? कैसी रणनीतियां बन रहीं थी? कौन थे ये योजना और रणनीति बनाने वाले? विधायक कैसे भोपाल से गुडगांव और फिर कैसे बेंगलुरू पहुंचे, ये सब इस किताब में है। ये सारी कहानी क्लाइमैक्स के सत्रह दिनों की है। जिसमें तीन तारीख से कमलनाथ सरकार को गिराने की कोशिश हो रही थी, ये बात सामने आती है और बीस मार्च को कमलनाथ इस्तीफा दे देते हैं। तीन से लेकर बीस तक हर दिन एक नयी कहानी है जिसमें रोमांच है सस्पेंस है और रोचकता है। इसलिये इसे वरिष्ठ पत्रकार रशीद किदवई ने पॉलिटिकल थ्रिलर कहा है।

⬤ पॉलिटिक्स पर लिखने की याद क्यों आयी और पॉलिटिक्स पर लिखना कठिन होता है या आसान?

पॉलिटिक्स हमारी रोजमर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ी होती है। रोज हम अपने आसपास पॉलिटिक्स होते हुए देखते हैं। पॉलिटिक्स की खबरों से हमारा दिन शुरू होता है तो रात भी हम पॉलिटिक्स की चर्चा के साथ खत्म करते हैं। मगर इतने सालों तक प्रतिष्ठित चौबीस घंटे के न्यूज चैनल में काम करने के दौरान मैंने जाना कि पॉलिटिक्स में आपकी हमारी रूचि भले ही बहुत हो मगर हम सब पॉलिटिक्स के बारे में जानते बहुत कम है। खासकर उस पॉलिटिक्स के बारे में जिसमें बड़े-बड़े लोगों, नेताओं के हित जुड़े होते हैं और वो पॉलिटिक्स अपने मुताबिक ही चलाते हैं। 

कमलनाथ की सरकार गिरने की घटना तो वो थी जो हम सबने अपने आंखों से देखी, मगर जो आखें नहीं देख पायीं उसकी कहानी कहने की हमने सोची। हमें रिपोर्टिंग के दौरान बहुत कुछ पता चला जो वक्त की कमी के कारण हम अपनी रिपोर्ट में कह नहीं पाये। इसलिये उस जानकारी को इस किताब 'वो सत्रह दिन' में लिखने की सोची। सच तो यह है कि पॉलिटिक्स पर लिखना आसान नहीं होता क्योंकि जिनके बारे में लिखा जा रहा है वो सब बेहद ताकतवर लोग होते हैं और उनके भरोसे को तोड़ना या नाराजगी मोल लेना किसी पत्रकार और लेखक के लिये आसान नहीं होता।

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⬤ आपकी किताब में भोपाल, दिल्ली और बेंगलूरू की कहानियां और वहां के घटनाक्रमों का सजीव ब्यौरा है। ये कैसे आपने जुटाया?

कमलनाथ सरकार संकट में आयी तो एक साथ कई घटनाएं भोपाल, दिल्ली, गुडगांव, जयपुर और बेंगलुरू में होने लगी थीं। इन सारी घटनाओं को एक फ्रेम में देखने पर लगा कि ये बड़ा घटनाक्रम घट रहा है जिस पर लिखा जाना चाहिये। फिर इस दौरान जहां-जहां एक्शन हो रहा था वहां अपने संपर्क तलाशे और उन सबको भरोसे में लेकर वहां का ब्यौरा जुटाया और उन ब्यौरों को कुछ दूसरे दोस्तों से क्रॉस चेक भी किया और फिर उस पर कलम चलाई। मैं अपने को खुशनसीब मानता हूं कि इस अविश्वसनीयता के दौर में भी लोगों ने मुझ पर भरोसा किया और बहुत सारी जानकारियां फोन पर ही दीं। क्यांकि ये वो वक्त था जब देश में लॉकडाउन लगा हुआ था और घरों से निकलना मुश्किल हो रहा था। वरना ऐसी अंदर की बातें लोग आपस की भेंट में ही बताते हैं। फोन पर ऐसी बातों से अब लोगों को डर लगता है खासकर वो नेता जिसका बहुत कुछ दांव पर लगा रहता है।

⬤ यह किताब अमेज़न पर आते ही सौ सबसे ज्यादा बिकने वाली किताबों में बनी हुई है। क्यों पसंद की जा रही है आपकी किताब?

इस किताब की लोकप्रियता देखकर मैं हैरान हूं। पहले दिन से ये किताब लगातार दो हफ्तों तक अमेज़न की सौ सबसे ज्यादा बिकने वाली भारतीय किताबों की सूची में जगह बनाये हुए है। मैं और मेरे प्रकाशक- शिवना प्रकाशन के पंकज सुबीर दोनों नए हैं। हमने इसका ज्यादा प्रचार-प्रसार भी ज्यादा नहीं किया। कोरोना के कारण इसका विमोचन भी नहीं कर पाये। मगर इस किताब को जिस तरीके से पाठक हाथों-हाथ ले रहे हैं तो उससे वही बात साबित हो रही है कि कंटेंट में दम होगा तो किताब बिकेगी। फिर चाहे वो नया लेखक लिखे या नया प्रकाशक। किताब को लिखने के दौरान मैं आश्वस्त था कि कोई भी किताब एक बार पढ़ेगा तो दो या तीन बैठकों में पूरी पढ़ जायेगा क्योंकि पर्दे के पीछे या मशहूर व्यंग्यकार डॉ. ज्ञान चतुर्वेदी की भाषा में कहें तो इस किताब में अंत:पुर की कहानियां हैं जिनको पढ़ने और जानने में सदियों से लोगों की रूचि रही है।

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⬤ यह आपकी चौथी किताब है, टीवी की रिपोर्टिंग और फिर ये लेखन कैसे संभव हो पाता होगा सब एक साथ?

यह वो सवाल है जो अक्सर मुझसे पूछा जाता है। मगर मैं मानता हूं कि यदि आप लिखना पसंद करते हैं तो मौका पाते ही लिखेंगे। टीवी रिपोर्टिंग में काम के दौरान मैं भोपाल के अखबारों में लगातार लिखता रहा। जिसके कारण लिखने का अनुशासन बना रहा और कई बार लगातार लिखने वाले किस्से ही किताब के तौर पर सामने आ गये। मेरी पसंदीदा किताब 'ऑफ द स्क्रीन' मेरी टीवी रिपोर्टिंग के पर्दे के पीछे की कहानियों का रोचक ब्यौरा है जिसे बहुत पसंद किया गया और लोगों ने जाना कि अरे टीवी का काम इतना मुश्किल होता है। यही हाल चुनावों पर लिखी दो किताबों का है। चुनाव के दौरान अखबारों में लेख लिखे। बाद में उनको पलट कर देखा तो लगा ये तो किताब का हिस्सा हो सकते हैं और इन्हीं लेखों के दम पर किताबें तैयार हो गयीं। 

मैं टीवी रिपोर्टर हूं इसलिये मेरी किताबों में आपको जमीन का अनुभव मिलेगा। मेरी किताबें इन्हीं मुददों पर लिखी किताबों से अलग होती हैं और पसंद की जाती हैं।

⬤ दो चुनाव की किताबें, एक टीवी रिपोर्टिंग की किताब और एक राजनीतिक घटनाक्रम की किताब के बाद अब आगे क्या लिखा जा रहा है?

लिखना मुझे आनंद देता है। अपना नाम अखबार या कागज पर छपा देख मैं अब भी रोमांचित हो जाता हूं। टीवी रिपोर्टिंग के दौरान छोटी-छोटी कहानियां तलाशना, उनको विजुअलाइज कर उनके सहारे बड़ी बातें कहना मुझे अच्छा लगता है। पिछले छह सालों में चार किताबें आ जायेंगी ये पहले सोचा नहीं था। मगर ये प्रभु कृपा है जो अब तक लिख पाया। तीन किताबों के बाद एक उपन्यास पर काम कर रहा हूं जो एक लडकी की संघर्ष वाली जिंदगी पर आधारित है। इस उपन्यास के लिखने के बीच में ही वो सत्रह दिन आ गयी। ये क्वारंटीन काल में लिखी किताब है जब हमें कोरोना के संदेह मे चौदह दिन घर बैठा दिया गया था। उसकी उपज है ये रोमांचक किताब।

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