विक्रम सिंह का नया उपन्यास 'अपना खून' रोचकता से भरपूर है

apna-khoon-vikram-singh
उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि दिखाए जाने के चलते उपन्यास में जिज्ञासा और रोचकता बढ़ती जाती है.

विक्रम सिंह का नया उपन्यास 'अपना खून' रोचकता से भरपूर है। पितृसत्तात्मकता व्यवस्था समाज में कैसे आज भी बनी है इसका बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करता है। हमारे भारतीय समाज में इस व्यवस्था को मजबूत करने के लिए महिला किस प्रकार जिम्मेदार है और काफी सीमा तक महिला को मजबूर भी किया जाता है कि वह पितृसत्तात्मकता व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बे-मन से सही पुरुष का सहयोग करें।

उत्तराखंड आंदोलन की पृष्ठभूमि दिखाए जाने के चलते उपन्यास में जिज्ञासा और रोचकता बढ़ती जाती है। इतना ही नहीं उत्तराखंड के गरीबी पहाड़ी जनजीवन को इस उपन्यास में जिस प्रकार दिखाया गया है, वो आंखें नम कर देता है। इस उपन्यास को पढ़ने वाला कोई भी पाठक हो, यह जानकर आश्चर्यचकित होगा कि आज भी पहाड़ पर रहने वालों का जीवन अभावग्रस्त ही नहीं दुष्कर भी है। हालांकि सरकारी योजनाओं के चलते स्थितियों में काफी सुधार हुआ है, परन्तु इसके बावजूद भी ईजा और दीपा जैसे अनेकों गरीब लाचार परिवार हैं, जिन तक सही मायनों में कोई सरकारी लाभ नहीं पहुंच सका है। जबकि ईजा का पति खड़गराम उन आंदोलनकारियों में शामिल था, जिन्होंने उत्तराखंड को अलग राज्य का दर्जा दिलाने के लिए अपनी जान की बाजी तक लगा दी। बावजूद इसके उसके पीछे उसके परिवार की वही दयनीय स्थिति है।

उत्तराखंड में किस प्रकार ब्रिटिशों का आगमन हुआ और कैसे उनसे मुक्ति के लिए पहाड़ों पर संघर्ष हुआ, लेखक ने बखूबी दिखाने का प्रयास किया है। उपन्यास में दीपा और इंदर की अधूरी प्रेमकथा, कहानी को विस्तार अवश्य प्रदान करती है, परन्तु हर बार की जैसे यह कथा भी पूर्ण होने से पहले ही कहीं खो जाती है। इंदर अपनी माँ के इलाज के लिए शहर जाता है, हाड़-तोड़ प्राइवेट काम करता है लेकिन अंत में अपनी माँ को टीबी की बीमारी से बचा नहीं पाता है और माँ की मृत्यु हो जाती है। माँ की मौत के बाद जब गांव वापस लौटता है, तो दीपा के बारे में पता चलता है कि उसकी तो शादी हो गयी। कहानी के युवा पात्र इंदर के रूप में पहाड़ के युवा बेरोजगार को देख सकते हैं। पहाड़ पर रोजगार के अवसर न होने के चलते वहाँ के युवा किस प्रकार रोजगार की तलाश में तराई के क्षेत्रों में चले जाते हैं और पहाड़ को पलायन का दर्द झेलना पड़ता है।

उपन्यास का मुख्य पात्र रूप सिंह है जो इंडियन ऑयल प्लांट में सरकारी मुलाजिम है और शान से मैदानी क्षेत्र में आलीशान घर बनाकर अपनी पत्नी कलावती के साथ रह रहा है। कहानी में सरकारी नौकरी के पहले के संघर्ष को भी बखूबी दिखाया गया। परन्तु सब होने के बाद भी उसके पास कुछ नहीं, मतलब शादी के कई वर्षों बाद भी वह बाप नहीं बन सका। कमी उसमें नहीं, उसकी पत्नी में थी। इसलिए वह हर शाम शराब में डूब जाता है और दुखी भी होता है।

निःसंतानता के कष्ट के कारण कलावती उससे से एक दिन कह ही देती है कि क्यों न हम बच्चा गोद ले ले। यह सुनकर रूप सिंह को अच्छा नहीं लगता, वह कलावती से कहता है, 'अपना खून चाहता हूँ'। इसके बात पर कलावती निरुत्तर हो जाती है।

आगे क्या होता है? क्या वह दूसरी शादी करता है? क्या उसका जीवन बदल जाता है? ऐसे कई प्रश्न आपको यह उपन्यास पढ़कर मिलेंगे।

~डॉ. राम भरोसे
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजकीय महाविद्यालय पोखरी (क्वीली) टिहरी गढ़वाल उत्तराखंड.


अपना ख़ून
लेखक : विक्रम सिंह
प्रकाशक : जेवीपी पब्लिकेशन्स
पृष्ठ : 120
किताब लिंक : https://amzn.to/34nWB77