सम्पूर्ण योग विद्या : योग द्वारा जीवन जीने की कला

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यह पुस्तक योग सीखने के इच्छुक व्यक्तियों के लिए सम्पूर्ण मार्गदर्शिका है. योगाभ्यास करने वालों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है.

संभवतः लोगों ने योग का अर्थ केवल व्यायाम, योगासन, प्राणायाम या शारीरिक क्रिया को समझ रखा है। लेकिन अगर हम योग को गहराई से समझ सकते और उसका वास्तविक अर्थ निकाल सकते तो हम इसे जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि बना लेते। योग से हम मात्र शारीरिक, मानसिक व भौतिक उच्चता ही प्राप्त नहीं करते हैं वरन् अपने जीवन की राह को सुखी और समृद्ध कर पूरे परिवार को संपूर्ण लक्ष्य दे सकते हैं एवं अध्यात्मिकता के चरम शिखर को भी छू सकते हैं।

मैं जब भी कोई योग शिविर लगाता हूँ, तो सभी शिविरार्थियों को योग के साथ-साथ उनके जीवन के उत्थान के लिए भी प्रेरित करता हूँ। अपने वक्तव्य में मैं योग के साथ जीने की कला भी सिखाता हूँ, ताकि साधक इसे आत्मसात् कर सकें।

योग शब्द का सामान्य अर्थ है जुड़ना, मिलना, युक्त होना या एकत्र करना। संस्कृत में योग की व्युत्पत्ति युज धातु से मानी गई है, योग शब्द 'युज" धातु के बाद करण और भाव वाच्य में धज प्रत्यय लगाने से बना है।
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यह एक नियम है कि हम जैसा सोचते हैं, शरीर में वैसा ही घटित होता है। उदाहरण के तौर पर हम देखते हैं कि जैसे ही हमें क्रोध आता है, हमारे हाव-भाव वैसे ही होने लगते हैं। भौंहें तन जाती हैं, रक्त संचार बढ़ जाता है। माँसपेशियाँ खिच जाती हैं। शरीर में एकत्रित ऊर्जा अनावश्यक रूप से नष्ट होती है, जिससे मानसिक तनाव बढ़ जाता है। हमारे आस-पास का परिवेश, वातावरण भी खराब हो जाता है। हमारी छवि बिगड़ जाती है और नकारात्मकता का प्रवेश हो जाता है। शरीर में एक प्रकार के विष का निर्माण होता है जो नुक़सानदायक होता है। हमेशा क्रोध करते रहने से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है, जिससे शरीर जल्द ही कमज़ोर हो जाता है और आसानी से रोगग्रस्त होने लगता है। जीवन में हमारे साथ कई बातें घटित होती हैं। हम शारीरिक एवं मानसिक रोग से ग्रसित व आर्थिक रूप से भी कमज़ोर हो जाते हैं। तो हमारे मित्र भी वैसे ही बनते हैं। कई बार गलत आदतें भी पड़ जाती हैं, जैसे नशे की लत। इससे दमकते चेहरे भी मुरझा जाते हैं। हम आहार लेते हैं, लेकिन शरीर पर उसका सकारात्मक असर नहीं दिखता। दिनों-दिन हालत बदतर होती जाती है। परिवार टूट जाते हैं, बच्चे संस्कारवान नहीं बन पाते। समाज तिरस्कार भरी दृष्टि से देखने लगता है। इससे हम उपेक्षाओं के शिकार हो जाते हैं। संसार से ऊब जाते हैं और जीवन अर्थहीन लगने लगता है। सुबह से शाम तक चिंता सताती है तथा रात्रि में नींद भी नहीं आती। जीवन दवाइयों के सहारे चलता है। चारों ओर निराशा नज़र आती है। तो क्या हम इसलिए पैदा हुए हैं? तो क्या हम बाक़ी ज़िदगी में कुछ नहीं कर पाएँगे ?

कौन कहता है कि अब तुम कुछ नहीं कर पाओगे? कौन कहता है कि तुम कुछ नहीं हो ?

नहीं, तुम बहुत कुछ हो।

योग सांख्य का ही क्रियात्मक रूप है। योग विश्व के सभी धर्म, संप्रदाय, मत-मतांतरों के पक्षपात और तर्क-वितर्क से रहित सार्वभौम् धर्म है, जो तत्व (आत्मा) का ज्ञान स्वयं के अनुभव द्वारा प्राप्त करना सिखलाता है और साधक को उसके अंतिम लक्ष्य (मोक्ष) तक पहुँचाता है।
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तुम आज भी वैसे हो। तुम अनंत शक्तियों के पुज हो। तुम्हारी आत्मा में कोई अवगुण नहीं है। जो भी अवगुण आए थे, वे सब बाहर से ही आए थे और बाहर ही छूट जाएँगे। तुम्हारे अंदर अनंत ज्ञान है। तुम सच्चे इंसान हो, तुम्हारे अंदर बहुत सारी क्षमताएँ हैं, उन्हें विकसित करो। तुम्हारे अंदर सुख का भंडार है। उठो, अभी! पूरे जोश के साथ उठो, अच्छा करने लगी, मत देखी ज़माने की। ज़माना तुम्हारा साथ तब देगा, जब तुम उनको विश्वास में ले लोगे।

अकेले ही संघर्ष करो। तुम्हारे साथ अदृश्य शक्तियाँ हैं। तुम्हारे पूर्वजों की किरणें हैं। 'नियम ले ली’ अभी से तुम्हारे अंदर नई चेतना का प्रादुर्भाव होगा।

क़सम खा लो कि आज से मैं नए जीवन की शुरुआत करूंगा, क्रोध नहीं करूंगा, माँसाहार का सेवन नहीं करूंगा, नशा नहीं करूंगा, अपशब्द नहीं बोलेंगा। कहो कि मैं अहंकार का त्याग करता हूँ, माया से मुक्ति चाहता हूँ और लोभ को छोड़ता हूँ।

अब मैं अपनी शुद्धता के साथ ही विचरण करूंगा।

मैं सबसे प्रेम करूंगा, सबको स्नेह दूँगा। किसी से कोई अपेक्षा नहीं करूंगा, सबको वात्सल्य दूँगा। ऐसा करने पर आप देखेंगे कि आपके चारों ओर शांति ही शांति है, शुद्ध वातावरण है। आपका मान-सम्मान बढ़ गया है। आप मुस्कुराते हैं तो आपको देखकर पूरा विश्व मुस्कराता है।

योग साधना के मार्ग में प्रवृत्त होने पर उदरप्रदेश के रोग जैसे अपच, अरुचि, अजीर्ण, क़ब्ज़, गैस, खट्टी डकार आदि में लाभ मिलता है। योग में बताए आहार से रक्तचाप, मधुमेह, हृदय रोग जैसी घातक बीमारियों से बचा जा सकता है। शांति एवं संतोष की भावना स्वभाविक रूप से जीवन में समाहित हो जाती है। छल-कपट, झूठ, चोरी एवं चरित्रहीनता से साधक दूर ही रहता है। जिस कारण व्यक्तिगत एवं सामाजिक, दोनों स्तरों पर नैतिकता का विकास होता है।
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कुछ दिनों बाद आप देखेंगे कि आपका शरीर पहले से अच्छा हो गया है, मानसिक रूप से आप अधिक स्वस्थ हो गए हैं। आप स्वयं की, और दूसरों की नज़रों में भी ऊपर उठ गए हैं। आप हर प्रकार से अच्छे हो गए हैं।

यह छोटा सा उदाहरण देने का हमारा उद्देश्य सिर्फ़ इतना है कि हम जैसा सोचते हैं, हमारे इस शरीर में वैसे ही रासायनिक तत्वों का निर्माण होने लगता है। हमारी सोच अच्छी होगी तो ऐसे रसायनों का निर्माण होगा जो अमृततुल्य होंगे जो कि हमें इस समय से लेकर मृत्यु पर्यन्त हर प्रकार की पोषकता प्रदान करेंगे। तो क्यों न हम आज से ही सब कुछ बदल लें और यम, नियम को अपने जीवन में अपना लें।

उपनिषद् में लिखा है कि 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्मांडे’ इस छोटे से वाक्य में अनगिनत बातें छिपी हैं। हमारा यह शरीर तो ब्रह्मांड की अभिव्यक्ति है। जो तत्व एवं शक्तियाँ इस ब्रह्मांड का निर्माण करती हैं, वही हमारे शरीर, मस्तिष्क और सूक्ष्म शरीर का भी निर्माण करती है। आप और हम देखते हैं कि प्रकृति का वातावरण असंतुलित हो रहा है। जिस कारण से हमारा ब्रह्मांड भी बीमार हो गया है एवं जहाँ-तहाँ प्राकृतिक विपदाएँ ही दिखाई दे रही हैं। इसी प्रकार यदि हमारा खान-पान, रहन-सहन भी असंतुलित होगा तो यह शरीर तथा मस्तिष्क भी रोगयुक्त हो जाएगा। हम पराधीन हो जाएँगे। इसलिए संतुलित जीवन जिएँ, बेफ़िक्र हो जाएँ। इस प्रकार हमें अपने जीवन जीने का अंदाज बदल कर और योग को आत्मसात् कर हम इस जीवन को सफल एवं सुंदरतम् बना सकते हैं।

~राजीव जैन 'त्रिलोक'.

सम्पूर्ण योग विद्या : योगासन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध, षष्ट्रकर्म, ध्यान एवं कुण्डलिनी योग

लेखक : राजीव जैन "त्रिलोक"
प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ : 326

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