असीम आनंद की ओर : अवेकनिंग विद ब्रह्माकुमारीज़

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जब हम पवित्रता, शांति व प्रेम के अपने सच्चे अस्तित्व के साथ जुड़ी भावनाओं व विचारों का चुनाव करते हैं तो जैसे सब कुछ परिवर्तित हो उठता है.

यह तथ्य कि आप इस पुस्तक को पढ़ रहे हैं इस बात को प्रमाणित करता है कि आप अपने व्यक्तित्व में आनंद को जोड़ने की इच्छा रखते हैं तथा इसकी दृढ़ प्रतिज्ञा कर चुके हैं। पहला क़दम उठाने के लिए बधाई। इसका सीधा मतलब यह है कि ये पृष्ठ आपको आपके वांछित आनंद को तलाशने, समझने, अनुभव तथा अभिव्यक्त करने में मददगार होंगे।

जब मैंने पहली बार अवेकनिंग विद ब्रह्मा कुमारी की यात्रा शुरू की थी तो हमारी दुनिया के तमाम कष्टों से लेकर हमारे अपने मन के दुःखों का पता लगाना आसान हो गया था। बच्चों से लेकर युवा और वरिष्ठ नागरिक तक हर कोई आंतरिक एवं बाहरी दुनिया दोनों के कोलाहल में डूबे हुए हैं। हर कोई आनंद की तलाश में है, लेकिन कइयों को पक्का मालूम नहीं है कि कहाँ, कैसे और कब इसे प्राप्त किया जाए। एक सुविधाजनक बिंदु मुहैया कराने के लिहाज से, जीवन को प्रकाश युक्त दृष्टिकोण से देखने की भावना से यह विचार पनपा कि एक केंद्र बिंदु के रूप में आनंद पर सविस्तार चर्चा की जाए।

इसी वजह से टीवी श्रंखला हैप्पीनेस अनलिमिटेड की शुरुआत हुई। इसके क़रीब 30 एपिसोड में प्रसन्नता में अंतर्निहित हर पहलू, प्रत्येक परत पर चर्चा की गई है। इस शो को दुनियाभर के दर्शकों से ज़बरदस्त सराहना मिल रही है। बहरहाल यह शो व्यक्तियों, परिवारों और सोसाइटियों के लिए शांति और आनंद की तलाश व प्राप्ति से जुड़े सवालों तथा उत्कट इच्छा पर एक अपनाने योग्य गाइड, समाधान के रूप में नज़र डालता है।

किसी को भी अपनी जीवन शैली में आनंद से भरपूर भावना के सार्थक और पूर्ण प्रदर्शन, मंथन, बीजारोपण और स्वीकारने तथा महारत हासिल करने में समय लगता है। इस वजह से टीवी शो के दर्शकों को अलग से निरंतर पथ-प्रदर्शन की आवश्यकता होती है ताकि उन्होंने टीवी पर देखकर जो भी सीखा उसका पालन, चिंतन, अनुसंधान कर सकें और उसे लागू कर सकें।

संभवतः यह पुस्तक देने के लिहाज से उपहार साबित हो। चाहे आप अपने घर में आराम कर रहे हों, कार्यालय में हों, यात्रा कर रहे हों या छुट्टियां मना रहे हों, ये पृष्ठ आपको प्रसन्नता के बारे में रोज़मर्रा के अनुभव पाने का मार्ग दिखलाने में मदद करेंगे, भले ही आप किसी भी परिस्थिति में हों। जैसे ही आप इस पुस्तक को अपने आध्यात्मिक पुस्तकालय में शामिल कर लेंगे, पढ़ेंगे, पुनर्विचार करेंगे तथा प्रसन्नता की आवृत्ति से तालमेल बैठाने के लिए अपने मन को पुनर्व्यवस्थित करेंगे, रुकेंगे और देखेंगे कि कैसे आपके इर्द-गिर्द का जीवन शानदार तरीक़े से उन्नत होता जा रहा है।

~बी.के. शिवानी

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किताब का एक अंश देखें :
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भाग 1 : प्रसन्नता का चुनाव

हम ही विकल्प चुनते हैं

जो कुछ भी पुराना और साधारण है, अब उससे विदा लेते हुए, अपने भीतर की सुंदरता को जगाने का समय आ गया है। वह समय अभी है। समय आ गया है कि हम लोग जागें और एक नई सोच, एक नए नज़रिए से जीवन की ज़िम्मेवारी स्वयं लें।

ओम शांति!

सुरेश ओबेरॉय : प्रसन्नता का क्या अर्थ है?

सिस्टर शिवानी : हम क्या कर रहे हैं, हमने कैसे संबंध बनाए हैं, हम क्या प्राप्त करना चाह रहे हैं और ऐसी बहुत सी बातों के साथ, हम सभी जीवन में प्रसन्नता ही तो पाना चाहते हैं। अगर हम जीवन के बारे में सोचें, तो स्पष्ट दिखाई देता है कि हम सभी प्रसन्नता व आनंद की तलाश में हैं।

सुरेश ओबेरॉय : जैसा कि आपने कहा, हम सभी प्रसन्नता की तलाश में हैं। परंतु हम किस माध्यम से इसकी तलाश कर रहे हैं?

सिस्टर शिवानी : हम इसे अलग-अलग साधनों से तलाश करते हैं - यह किसी भी तरह के साज़ो-सामान, संपत्ति, संबंध, उपलब्धियों और अच्छे स्वास्थ्य के माध्यम से हो सकता है। जैसे आप किसी से पूछते हैं कि वे अपने जीवन में क्या पाना चाहते हैं, तो वे प्रायः उत्तर देते हैं कि वे ‘सफलता’ पाना चाहते हैं। वे सफलता क्यों पाना चाहते हैं, क्योंकि इससे उन्हें ख़ुशी मिलती है। आप उनसे पूछते हैं कि आप किसी ख़ास वस्तु को क्यों ख़रीदना चाहते हैं। उनमें से अधिकांश का उत्तर यही होता है कि इससे उन्हें या उनके परिवार को प्रसन्नता होगी। आप किसी से पूछते हैं कि उन्हें किसी संबंध से क्या मिलता है? और फिर उत्तर मिलता है कि उन्हें संबंधों से प्रसन्नता मिलती है। तो कुल मिला कर, सभी एक ही चीज़ की तलाश में हैं -ख़ुशी।

सुरेश ओबेरॉय : परंतु यह प्रसन्नता सीमित है अथवा असीमित? यह तो सीमित होती है, ऐसा ही है न?

सिस्टर शिवानी : जी, ऐसा ही है। हम तो ये तक नहीं जानते कि क्या ये सच्ची ख़ुशी है।

सुरेश ओबेरॉय : तो क्या यह क्षणिक होती है - जैसे कोई बालक किसी खिलौने से खेलता है, उसे तोड़ देता है और उसके बाद वह अपने लिए नया खिलौना चाहता है, फिर दूसरे खिलौने से खेलता है और इस तरह यह सिलसिला जारी रहता है। दरअसल हक़ीक़त में हम चाहते क्या हैं? यदि हम प्रसन्नता की तलाश कर रहे हैं, तो क्या इसे ठोस और स्थायी नहीं होना चाहिए?

सिस्टर शिवानी : इसे स्थायी होना चाहिए, यही सबसे अहम बात है। अगर प्रसन्नता हमें पसंद है, अगर प्रसन्नता की हम इच्छा करते हैं, अगर ये हमारा स्वाभाविक रूप है, तब यह अन्य किसी बाहरी वस्तु पर निर्भर नहीं होगी। अगर यह किसी वस्तु पर निर्भर करती है, तो यह कभी निरंतर बनी रहने वाली नहीं हो सकती। अगर सादे शब्दों में कहा जाए, यदि आप इसे कहीं बाहर तलाश रहे हैं, तो आप उस वस्तु पर निर्भर हो रहे हैं और यह भावना लंबे समय तक बनी नहीं रहेगी। मान लेते हैं, अगर मौसम ख़ुशनुमा हो और आपको बहुत अच्छा लग रहा हो; तब तो आपका अच्छा लगने का भाव, मौसम पर निर्भर हो गया।

सुरेश ओबेरॉय : बिलकुल सही कहा आपने! पर मैं यह समझना चाहता हूँ कि कोई व्यक्ति इच्छाओं या निर्भरता के बिना प्रसन्नता कैसे पा सकता है?

सिस्टर शिवानी : संभवतः यह सबसे पुराने विश्वास तंत्रों में से एक है, जिसे हमने अपने जीवन का एक हिस्सा बना रखा है -यह विश्वास कि हमें कहीं बाहर से प्रसन्नता अर्जित करनी होगी, फिर भले ही वह उपलब्धियों से आए, दूसरे लोगों से मिले या हमारी वर्तमान स्थिति का नतीजा हो। “मैं यह काम इसलिए कर रही हूँ क्योंकि इसे करने से मुझे ख़ुशी हासिल होगी,” यह हमेशा यही समीकरण रहता है। जब कोई काम पूरा होगा और सही तरह से संपन्न होगा, तब ही हमें ख़ुशी होगी। तो, यहाँ ख़ुशी काम के सही तरह से संपन्न होने पर निर्भर है। किसी बच्चे को बचपन से यही संस्कार दिया जाता है कि अगर वह अच्छे अंक लाएगा तो माता-पिता प्रसन्न होंगे, जब वह अच्छा प्रदर्शन देगा, जब वह सुंदर दिखेगा, तो उसके माता-पिता को अच्छा लगेगा, वे उससे ख़ुश होंगे।

धीरे-धीरे बच्चे के मन में यह बात पैठ कर जाती है कि अगर उसके माता-पिता प्रसन्नता अनुभव करेंगे, तब ही उसे भी प्रसन्नता होगी और अगर उसके माता-पिता ही प्रसन्न नहीं हैं, तो वह प्रसन्नता का अनुभव कैसे कर सकता है?

प्रसन्नता तभी संभव है, जब हम सामने वाले व्यक्ति को उसी रूप में स्वीकार करना सीखते हैं, जैसा कि वह है। इसका अर्थ होगा कि हमें दूसरों को परखने या उनका विरोध करने की प्रवृत्ति, शिकायतों व दोषारोपण, निंदा व दूसरे को वश में रखने की इच्छा पर रोक लगानी होगी और किसी से भी प्रतियोगिता करने की आदत को छोड़ना होगा।
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सुरेश ओबेरॉय : क्या आप कोई आसान उपाय बता सकती हैं या कोई ऐसा तरीक़ा बता सकती हैं, जिसके माध्यम से हम प्रसन्नता के अर्थ को समझ सकें और यह समझ सकें कि इसे किसी भी तरह की निर्भरता के बिना कैसे हासिल किया जा सकता है?

सिस्टर शिवानी : पहले तो हमें यह जानने का प्रयास करना है कि हमारी ख़ुशी किस बात पर निर्भर हो रही है। रोज़मर्रा के जीवन में, हम प्रायः जिस निर्भरता का अनुभव करते हैं, वह वस्तुओं के लिए ही होती है। जैसे - जब मैं एक नई कार ख़रीद लूँगा, तो मुझे बहुत ख़ुशी होगी; मुझे अपने लिए नई संपत्ति ख़रीदने पर बहुत ख़ुशी होगी; मुझे शॉपिंग के लिए जाने से बहुत ख़ुशी मिलती है।

सुरेश ओबेरॉय : परंतु इसमें बुराई ही क्या है? क्या यह स्वाभाविक व्यवहार नहीं है?

सिस्टर शिवानी : क्या यह सच है? क्या ये निर्भरताएँ वास्तव में हमें प्रसन्न बना रही हैं?

सुरेश ओबेरॉय : अगर ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे भी एक नई कार ख़रीदने से ख़ुशी ही मिलेगी। 

सिस्टर शिवानी : बेशक़ आपको ख़ुशी मिलेगी, पर क्या इस कार से आपको वह ख़ुशी मिल रही है, जिसकी आप तलाश कर रहे हैं।

जब आपके पास एक नई कार होगी तो आपको बहुत प्रसन्नता होगी… जिसका मतलब होगा, अगर आपके पास कार नहीं होगी, तो आपका ख़ुश रहना मुश्किल होगा। इसका मतलब यह भी हुआ कि अगर दस दिन बाद ही, कार पर कोई खरोंच आ गई या किसी ने आपकी कार में टक्कर मार दी, तो ख़ुशी फिर से प्रभावित होने वाली है क्योंकि आपने अपने मन में यह विश्वास पाल लिया है कि आपको कार से ख़ुशी मिल रही है। जबकि यह सच नहीं है। आप एक नई कार ख़रीदते हैं - और हो सकता है कि यह दुनिया की सबसे महँगी कार हो। आप कार में बैठते हैं और यह बहुत आरामदेह है। तो इस आराम का अनुभव कौन ले रहा है? यह आपका शरीर है। इस कार में बहुत आलीशान सीटें, बहुत अच्छा म्यूज़िक सिस्टम और एक ताक़तवर ए.सी. भी लगा है। आपको कार में बैठ कर बहुत आराम मिल रहा है, इसलिए आप अपने-आप से कहते हैं कि मुझे अच्छा लग रहा है। ठीक उसी समय घर से एक फ़ोन कॉल आता है, और आपको पता चलता है कि घर में कोई दुःखद घटना घटी है। क्या तब भी आपकी प्रसन्नता यूँ ही बनी रहेगी?

सुरेश ओबेरॉय : नहीं, तब ऐसा नहीं होगा।

सिस्टर शिवानी : परंतु आप तो अब भी आरामदेह हैं। कार अब भी वही है और आप अब भी कार में ही बैठे हैं। यह कार आपके शरीर को आराम देने के लिए बनाई गई थी और भले ही आपके जीवन में और कोई भी घटना घटती रहे, यह आपके शरीर को उसी तरह आराम देती रहेगी।

सुरेश ओबेरॉय : तो क्या प्रसन्नता और आराम, दो अलग-अलग चीज़ें हैं?

सिस्टर शिवानी : जो भी वस्तु भौतिक रूप से रची गई है, वह हमें भौतिक रूप से आराम देगी। हम जिस कुर्सी पर बैठे हैं, वह एक भौतिक वस्तु है और आपके शरीर को आराम दे रही है, परंतु हम अपने-आप से कहते हैं कि यह हमें ख़ुशी दे रही है।

सुरेश ओबेरॉय : क्या हमारी यह मान्यता अनुचित है?

सिस्टर शिवानी : दरअसल, बात यह है कि हमें बचपन से ही ऐसा सोचने की शिक्षा दी गई है। हम इस सोच और मान्यता के साथ ही बड़े हुए हैं। पर अब हमें अपने ही विश्वास तंत्र पर सवाल उठाना होगा।

सुरेश ओबेरॉय : जब हम छोटे थे, तो अक्सर माता-पिता हमारे लिए कुछ ख़रीदते समय कहते, ‘इसके लिए ये ले लेते हैं, इसे ख़ुशी मिलेगी’ या वे हमें प्रसन्न करने के लिए हमें पिकनिक ले जाते थे। यही हमारी विचारधारा बन गई।

सिस्टर शिवानी : बिलकुल सही कहा आपने, अब हमारे पास सबसे सुंदर बँगला और कार है और वह सारी संपत्ति है, जिसे पाने का हम कभी सपना देखा करते थे, हमारे पास हर तरह का यंत्र मौजूद है। तो हम अब भी प्रसन्नता की तलाश में क्यों हैं? जब सारी वस्तुएँ हमारे पास आ चुकी हैं, तो क्या हमारी इस खोज को समाप्त नहीं हो जाना चाहिए था? हमें सब कुछ मिल गया। पर ऐसा लगता है मानो हम अब भी उसी ख़ुशी की तलाश में हैं, जिसका अर्थ है कि ये सभी यंत्र भी हमें ख़ुशी नहीं दे पाए। हमें इन यंत्रों से केवल आरामदायक जीवन ही मिल सकता है।

सुरेश ओबेरॉय : हमने कार का जो उदाहरण लिया, ज्यों ही घर से फ़ोन कॉल आता है जो आपको कोई दुःखद सूचना देता है, तो फिर वह आराम कहाँ गया?

सिस्टर शिवानी : कल्पना करें कि आप कार में बैठे हैं, आपकी पीठ बिलकुल सीधी है और आपके पैर भी आराम महसूस कर रहे हैं। इस समय मिली सूचना के कारण, आपका मन अचानक व्याकुल हो गया है। जब मन पीड़ा में हो तो उसके लिए शारीरिक सुख भी कोई मायने नहीं रखता। शरीर तो आरामदेह अनुभव कर रहा है -परंतु जो ‘मैं’ है, वह उस क्षण आरामदेह नहीं हैं।

हम प्रसन्नता की ख़ोज में हैं, इसलिए इस क्षण में हमारे लिए शारीरिक सुख-सुविधा भी कोई मायने नहीं रखेंगी। यह बात दूसरी तरह से भी देखी जा सकती है। हो सकता है कि हम शारीरिक रूप से बहुत आरामदेह नहीं महसूस कर रहे हों, केवल ज़मीन पर ही आलथी-पालथी लगाए बैठे हों, परंतु आंतरिक रूप से हम परमानंद में मग्न हों, और इसलिए हम बहुत आरामदेह महसूस कर रहे हों।

सुरेश ओबेरॉय : कोई व्यक्ति इस एहसास को पाने के लिए क्या कर सकता है?

सिस्टर शिवानी : अगर कोई व्यक्ति इस एहसास को पाना चाहे, तो उसे समझना होगा कि शारीरिक सुख, भावात्मक सुख से अलग मायने रखता है। हम अपने अंदरूनी आराम या सुख को महसूस नहीं कर पा रहे - वह आंतरिक स्थिरता, जिसे हम प्रसन्नता कहते हैं, परंतु हमें लगा कि अगर हम शारीरिक रूप से आरामदेह महसूस करेंगे, तो इसका अर्थ होगा कि हम प्रसन्न ही थे। आजकल हम ख़ुशी को भी ख़रीदने लगे हैं, अगर मैं यह ले लूँगा तो बहुत ख़ुशी होगी, वह ले लूँगा तो बहुत ख़ुशी मिलेगी… यह सूची कभी समाप्त ही नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं कि हमें वे वस्तुएँ ख़रीदनी ही नहीं चाहिए, बस केवल इतना करें कि उन्हें अपनी प्रसन्नता के साथ न जोड़ें। हम प्रायः कोई वस्तु इसलिए ख़रीदते हैं क्योंकि वह हमारे लिए उपयोगी या आरामदेह होती है। पर क्या यह प्रसन्नता है? नहीं!

हमें यह जानना है कि हम किसी वस्तु को क्यों ख़रीद रहे हैं और हम अपने मन से यह कहें कि जब हम यह ख़रीदेंगे तो हमें ख़ुशी मिलेगी। अगर हम भौतिक वस्तुओं के साथ अपनी प्रसन्नता को जोड़ते हैं, तो हम अपनी प्रसन्नता को स्थगित करते हुए, उसके साथ एक शर्त जोड़ देते हैं। मान लेते हैं कि हम एक नया घर बना रहे हैं, हम अपने-आप से कहते हैं कि जब यह घर बन जाएगा और हम उसमें रहने आ जाएँगे तो हमें बहुत ख़ुशी मिलेगी। इसका मतलब होगा कि इस काम में एक या दो साल भी लग सकते हैं।

तो, इस तरह हमने अपनी ख़ुशी को आने वाले समय के लिए स्थगित कर दिया है। एक बच्चे के बारे में सोचें - हम बच्चे को स्कूल में देखकर कहते हैं कि बचपन तो जीवन का सबसे बेहतर चरण है। परंतु बच्चा अपने आस-पास के बड़े लोगों को देखकर मन में सोचता है कि बड़े लोग कितने क़िस्मतवाले हैं, उन्हें न तो होमवर्क करना पड़ता है और न ही कोई परीक्षा देनी होती है। वह उनके स्थान पर आना चाहता है। बच्चा स्कूल से बाहर आने के लिए आतुर है ताकि प्रसन्नता अर्जित कर सके। उसे लगता है कि जब वह कॉलेज में प्रवेश करेगा, तो उसे बहुत ख़ुशी मिलेगी। फिर जब वह कॉलेज में जाता है, तो उसकी सोच में बदलाव आ जाता है। उसे लगने लगता है कि उसे असली ख़ुशी तो तभी मिलेगी, जब उसके पास एक अच्छी नौकरी होगी, उसका विवाह हो जाएगा और उसका एक परिवार होगा। पर जल्दी ही उसे लगने लगता है कि उसे तो ख़ुशी तभी मिल सकेगी, जब उसके बच्चे बड़े होकर, जीवन में अपने लिए बेहतर जगह बना लेंगे और सब कुछ ठीक हो जाएगा। अब उसके मन में क्या आता है? उसे लगता है कि ख़ुशी तो रिटायरमेंट होने के बाद ही मिल सकेगी। तो वह सही मायनों में प्रसन्न कब होगा? वह जीवन के अलग-अलग चरणों में अपनी प्रसन्नता को स्थगित करता आ रहा है। हम एक गहरे दुष्चक्र में उलझे हैं, जहाँ हम स्वयं से कहते हैं : जब ऐसा होगा, तब मुझे बहुत ख़ुशी होगी।

सुरेश ओबेरॉय : कितने अफ़सोस की बात है!

सिस्टर शिवानी : सच कहा आपने! यही कारण है कि हम लोग ख़ुश नहीं हैं।

सुरेश ओबेरॉय : हम अपने आस-पास बहुत से अमीर लोगों को देखते हैं; उनके पास अपने हेलीकॉप्टर हैं, प्राइवेट प्लेन हैं और निजी नौकाएँ हैं। वे अब भी एक से दूसरे मंदिर और एक से दूसरे गुरु के पास भटकते रहते हैं। आख़िरकार, वे चाहते क्या हैं? इस तलाश का अंत कैसे किया जाए?

सिस्टर शिवानी : यह समझना होगा कि ख़ुशी और साधना अलग चीज़ है और दूसरा यह समझना होगा कि यह हमारी आंतरिक रचना है और हम किसी भी दूसरी चीज़ के बिना अपने आप रच सकते हैं। आप एक कार लेते हैं और कहते हैं कि आप बहुत ख़ुश हैं। कार एक भौतिक वस्तु है, भाव-भावनाएँ नहीं हैं। कार आपको कोई ख़ुशी नहीं देगी, लेकिन आप अपने मन में सोचते हैं, ‘वाह! मैंने नई कार ली, जो मुझे चाहिए था वो मैंने पा लिया।’ यह सकारात्मक विचार है।

जब किसी महिला को नए आभूषणों का सेट मिलता है, तो वहाँ भी यही बात देखी जा सकती है। क्या उसे आभूषणों के सेट को पाकर ख़ुशी महसूस हो रही है? या वह उन आभूषणों को पाकर सकारात्मक सोच को जन्म दे रही है, जो उसे प्रसन्नता प्रदान करते हैं।

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सुरेश ओबेरॉय : परंतु क्या आपको नहीं लगता कि अगर आभूषणों का सेट न हो तो सकारात्मक विचार पैदा ही नहीं किया जा सकता?

सिस्टर शिवानी : इसका मतलब हमें प्रतिक्रिया उत्पन्न करने के लिए वस्तु की आवश्यकता है। यह वस्तु कुछ भी हो सकती है, जैसे आभूषणों का सेट। आप उस वस्तु को देखते हैं और अपने मन में उस सोच को स्थान देते हैं।

जब हमें वह वस्तु मिल जाती है, तो हमारी स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है, ‘मुझे अभी-अभी जो गहना मिला, यह तो वाक़ई बहुत सुंदर है।’ इस सोच को किसने जन्म दिया?

सुरेश ओबेरॉय : दरअसल इस सवाल का जवाब देना थोड़ा कठिन है। वह विचार मैंने पैदा किया या वह उस वस्तु के कारण पैदा हुआ?

सिस्टर शिवानी : किसी आभूषण जैसी भौतिक वस्तु में कोई विचार या भावनाएँ नहीं होतीं। आपने इसे देखा और आपके मन में एक भाव पैदा हुआ -‘मैंने कितना सुंदर आभूषण लिया है।’ अगर दस मिनट बाद, कोई कमरे में आकर कहे कि वह आप पर जँच नहीं रहा या कहे कि वह नक़ली है, तो क्या होगा? अब प्रतिक्रिया कौन पैदा कर रहा है? अगर वह प्रतिक्रिया उस वस्तु के कारण थी, तो अब भी वही प्रतिक्रिया होनी चाहिए, भले ही हालात में कितना भी बदलाव क्यों न आ जाए। इसके बाद, अगर आप अन्य लोगों को वह आभूषण दिखाते हैं तो क्या सबके मन में उसके लिए वही भावनाएँ पैदा होंगी? कोई महिला कहेगी, ‘कितना भड़कीला है, मैं तो नहीं पहन सकती, मुझे तो बिलकुल पसंद नहीं आया;’ कोई दूसरी कह सकती है - ‘मुझे गहने पसंद नहीं;’ यह भी सुनने में आ सकता है, ‘मैं भी इसे लेना चाहती थी, हाय! मेरे पास इतने पैसे ही नहीं हैं कि मैं ऐसे गहने ख़रीद सकूँ।’ यह सब बातें सेट को देखकर सोची जा सकती हैं।

सुरेश ओबेरॉय : किसी भी वस्तु के लिए मेरी प्रतिक्रिया मेरा अपना चुनाव है।

सिस्टर शिवानी : जी, यह आपकी अपनी सोच है।

सुरेश ओबेरॉय : मैं प्रतिक्रिया दे रहा हूँ, इसका अर्थ है कि मैं कुछ रच रहा हूँ। मैं प्रसन्नता या अप्रसन्नता में से कोई एक चीज़ रच रहा हूँ।

सिस्टर शिवानी : हम आभूषणों के उसी एक सेट के साथ आनंद, ईर्ष्या, ठेस आदि विचारों को जन्म दे सकते हैं। वस्तु वो ही है। अगर उस वस्तु के कारण भाव पैदा होते, तो सबके मन में एक से भाव पैदा होने चाहिए थे।

अगर कोई वस्तु -भले ही वह कोई कार हो या गहने या फिर कोई प्यारा सा बगीचा - अगर उसके कारण विचार पैदा हो रहे हैं, तो हर व्यक्ति के भीतर एक समान भाव पैदा होने चाहिए। ज़रा इस हरियाली को देखिए। आप सोच सकते हैं कि प्रकृति के साथ रहना कितना भला लगता है, जबकि दूसरा व्यक्ति बड़ी आसानी से उसे नज़रअंदाज़ कर आगे बढ़ सकता है, हो सकता है कि वह उस हरियाली पर ध्यान ही न दे।

एक ही वस्तु के लिए अलग-अलग प्रतिक्रियाएँ हो सकती हैं। प्रतिक्रिया सर्जक का चुनाव है और हम सर्जक हैं।

सुरेश ओबेरॉय : मैं ही सृजन करता हूँ और मैं ही प्रसन्नता या अप्रसन्नता को पैदा कर रहा हूँ। सिस्टर शिवानी, आपकी इसी बात से मुझे अपने बहुत से प्रश्नों के उत्तर मिल गए, परंतु यह बताएँ कि व्यक्ति किसी भाव के बिना क्या कर सकता है?

सिस्टर शिवानी : जब आप यह समझ लेते हैं कि इस सोच को आपने ही जन्म दिया है, तो सब कुछ बदल जाता है। दरअसल, हम नहीं जानते कि हम ही उन विचारों के जन्मदाता हैं और यह मानने लगते हैं कि वे हमें कहीं बाहर से मिल रहे हैं। मान लेते हैं, आपने मुझसे कुछ ऐसा कह दिया, जो मुझे थोड़ा अभद्र लगा और मुझे दुःख हुआ। मैं यह नहीं जानती कि यह दुःख का भाव मैं ख़ुद ही उत्पन्न कर रही हूँ। मैं आपसे बड़े आराम से कहती हूँ - आपने मुझे दुःखी किया। फिर मैं कहती हूँ कि आपको मुझसे अच्छे से बात करनी चाहिए ताकि मुझे बेहतर महसूस हो सके। बेहतर होगा कि आप मुझसे क्षमा माँगें क्योंकि जब आप मुझसे क्षमा माँग लेंगे तो मुझे बेहतर महसूस होगा यही निर्भरता है।

सुरेश ओबेरॉय : फिर वह व्यक्ति कहेगा कि मेरे कहने का यह मतलब तो नहीं था।

सिस्टर शिवानी : पर आपने मुझे दुःखी किया। हम इसी तरह बात को बढ़ा सकते हैं… आपकी वजह से मैं दुःखी हूँ। आपकी वजह से मैं नाराज़ हूँ। आपकी वजह से मैं उदास हूँ। आपके कारण मैं ख़ुश हूँ।

सुरेश ओबेरॉय : अगर सब कुछ मेरे आस-पास के लोगों के कारण ही हो रहा है तो इसका मतलब है कि मैं अपनी ज़िम्मेवारी नहीं ले रहा।

सिस्टर शिवानी : बिलकुल, न कोई ज़िम्मेवारी और न ही कोई नियंत्रण! अगर हम हमेशा ही किसी बाहरी वस्तु पर आश्रित हैं, तो सही मायनों में हम कितने असहाय हैं।

सुरेश ओबेरॉय : क्या यह वास्तव में एक दुर्बलता नहीं है?

सिस्टर शिवानी : परंतु क्या हम सब अपना जीवन इसी तरह नहीं जी रहे? जिस क्षण हम जान जाते हैं कि यह सब एक भ्रम है, हम कोई वस्तु या व्यक्ति के नियंत्रण में नहीं हैं, हम उन पर निर्भर नहीं हैं, हमारी सोच और प्रतिक्रिया हमारा अपना चुनाव है। यही स्वतंत्रता है। आध्यात्मिकता हमें सबसे पहले, इसी स्वतंत्रता का उपहार देती है। यह हमें मुक्त कर देती है। हम सारी निर्भरता से मुक्त हो जाते हैं, हम जिस भी वस्तु पर अपनी प्रसन्नता को निर्भर मानते थे, उसके कारण हम अपनी प्रसन्नता को स्थगित कर देते थे। हम बार-बार उसे स्थगित करते हुए, अपने-आप को यक़ीन दिलाते थे कि जब तक हमें अपना मनचाहा नहीं मिलता, तब तक हम प्रसन्न हो ही नहीं सकते।

जब हम पवित्रता, शांति व प्रेम के अपने सच्चे अस्तित्व के साथ जुड़ी भावनाओं व विचारों का चुनाव करते हैं तो जैसे सब कुछ परिवर्तित हो उठता है : दूसरों से माँगने के स्थान पर उनके साथ बाँटने लगते हैं; सब कुछ संग्रह करने की बजाय त्याग करना सीख जाते हैं; अपेक्षाओं के स्थान पर स्वीकृति को आश्रय देने लगते हैं, भविष्य और अतीत को छोड़ वर्तमान में जीने लगते हैं। हम आनंद, संतोष व परमानंद से भरपूर जीवन को रचते हैं, क्योंकि हमारे पास ही चुनने का विकल्प व शक्ति है। प्रसन्नता एक निर्णय है।
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सुरेश ओबेरॉय : इस बात को समझना बहुत कठिन है कि जो मैं चाहता हूँ, उसे पाए बिना मुझे ख़ुशी कैसे मिल सकती है?

सिस्टर शिवानी : हमने वस्तुओं की बात तो की परंतु उपलब्धियों के लिए क्या कहेंगे? ‘हम एक निश्चित लक्ष्य तक जाना चाहते हैं परंतु हम वहाँ नहीं पहुँच सके, तो ऐसे में आपको ख़ुशी कैसे महसूस हो सकती है?’ हम इसी मान्यता के साथ बड़े हुए हैं कि जो लोग अपना मनचाहा पा लेंगे, वही जीवन में प्रसन्न हो सकते हैं। जब हम बच्चे थे, तो हमें यही सिखाया गया।

सुरेश ओबेरॉय : मैं हमेशा से सोचा करता था कि इस तरह से विचार करना बिलकुल स्वाभाविक था। अगर मुझे लगातार तीन बार कोशिश करने से भी नौकरी नहीं मिलती तो मैं अवसादग्रस्त हो जाऊँगा, और यह बहुत स्वाभाविक-सी बात है। मैं तो ऐसा ही सोचा करता था।

सिस्टर शिवानी : आपने सोचा कि आपकी प्रसन्नता उस नौकरी के मिलने पर निर्भर करती है। आपको लगा कि यह एक सामान्य बात थी और इसलिए आपको यह प्रतिक्रिया भी सामान्य लगी, आपको लगा कि इस बात के लिए उदास होना भी एक सहज-सी बात थी। तनावग्रस्त होना सामान्य-सी बात है, चिंता करना सामान्य बात है परंतु प्रसन्न होना… वह हमें सामान्य बात नहीं लगती। समस्याएँ सामने आएँगीं, चुनौतियाँ भी आपके सम्मुख होंगी, परंतु आप उन्हें देख कर निराश होंगे या उनका सामना करेंगे… यह चुनाव आप पर ही निर्भर करता है।

क्योंकि बाक़ी सब कुछ तो बाहरी ही है।

सुरेश ओबेरॉय : परंतु यह बाहरी बातें भी तो मुझे भीतर से व्याकुल और बेचैन बना रही हैं। 

सिस्टर शिवानी : यह चुनाव की बात है। क्या यह बाहरी चीज़ें सबको समान रूप से बेचैन करती हैं? कोई व्यक्ति असफलता का सामना करते हुए अवसादग्रस्त होगा, कोई आत्महत्या कर लेगा और कोई यह भी तो कह सकता है, ‘सब ठीक है, मैं इसे फिर से करने जा रहा हूँ।’ वह अगली बार सफल हो जाता है। असफलता तो वही है परंतु इसकी प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग हैं।

यही वजह है कि हमारी भावनाएँ और हमारी सोच, हमारे अपने हाथ में ही हैं। केवल यह जान लेने से आपका जीवन बदल सकता है।

सुरेश ओबेरॉय : जब कोई घटना घटती है और आप प्रतिक्रिया देते हैं, तो उस समय अपने-आप को यह कहने का समय कहाँ होता है, ‘देखो, यह एक सोच है, परिस्थिति बाहर है… सोच आंतरिक चुनाव है।’ हमारे पास प्रतिक्रिया चुनने का समय ही कहाँ है?

सिस्टर शिवानी : ऐसा इसलिए है क्योंकि हम अपने जीवन को स्वचालित तरीक़े से जी रहे हैं। आप जानते हैं कि एक मशीन इसी तरह काम करती है। एक मशीन और एक इंसान में क्या अंतर है?

एक मशीन के पास कोई चुनाव नहीं होता - हम इसे बार-बार चलाते हैं और बार-बार बंद करते हैं। यह मशीन उस व्यक्ति पर निर्भर करती है, जो इसे चलाता है। आप बटन दबाते हैं, मशीन चालू हो जाती है। आप बटन बंद करते हैं, मशीन काम करना बंद कर देती है। इंसानों के पास चुनने की सुविधा है। कोई मेरे पास आता है, और मुझे कुछ कह देता है - मानो उसने कोई बटन दबा दिया हो; अगर मैं कोई मशीन हूँ तो मैं कहूँगी, ‘मुझे ग़ुस्सा आना तो स्वाभाविक है।’ स्वाभाविक कैसे है? मशीन के लिए यह स्वाभाविक है क्योंकि वो स्वचालित तौर पर काम करती है।

सुरेश ओबेरॉय : यह भी तो सच है न कि केवल कुछ साधु-संतों और ख़ास लोगों को छोड़ कर, बाक़ी सब लोग तो इसी स्वचालित तरीक़े से ही अपना जीवन बिता रहे हैं।

सिस्टर शिवानी : नहीं, यह बात केवल संतों के लिए नहीं है। आपको इस बात के प्रति जागरूक रहना है कि हम इंसान हैं। लोग बटन दबा रहे हैं परंतु हमारे पास चुनने का विकल्प भी है।

असीम आनंद की ओर : अवेकनिंग विद ब्रह्माकुमारीज़

(सिस्टर शिवानी से सुरेश ओबेरॉय के साथ संवाद पर आधारित)
अनुवाद : रचना भोला ‘यामिनी’
प्रकाशक : मंजुल पब्लिशिंग हाउस
पृष्ठ : 202

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