
‘आख़िरी बाज़ी’ भले ही एक उपन्यास है, लेकिन यह असल जिंदगी की घटनाओं से प्रेरित है और उनसे ही वजूद में आया है-आर.डी.एक्स. का बड़ा जखीरा, जो 1993 के सीरियल बम धमाकों के बाद से ही गुम था और भारतीय एजेंसियों के पास उसका सुराग तक नहीं था, भोपाल में एक ही मकसद के लिए जेल तोड़कर पाँच लोगों के भागने की घटना, भारतीय जहाज और एक कारोबारी जहाज को सोमालियाई लुटेरों द्वारा अगवा किया जाना और फिर स्पष्ट रूप से, पाकिस्तान की ओर से भारत में आतंक फैलाने की साजिश तथा सन् 1947 में लक्षद्वीप को हड़प लेने की उसकी मंशा।
बचपन से ही वरदी में जवानों को देखकर मैं आकर्षित हो जाया करता था। उस समय मैं यही सोचता था कि हम अगर चैन से सो पाते हैं तो उन नायकों की वजह से, जिनके बारे में मैं पढ़ा करता था और जो शाहवाज अली मिर्जा और विक्रांत सिंह जैसे लोग थे।
यह कहानी मेरे दिमाग में लंबे समय से थी, लेकिन प्रकाशकों या दोस्तों के सामने मैं इसे तब तक नहीं रख सकता था, जब तक कि यह पहली अग्निपरीक्षा को पास न कर ले। मेरी पत्नी वेल्ली और दोनों बेटे-अली अम्मार और अली जेन को पिछले साल एक दिन मैं अचानक ही अंधेरी के अपने पसंदीदा रेस्टोरेंट में शाही डिनर के लिए ले गया तो सब हैरान रह गए। उन सभी को न केवल मेरा आइडिया पसंद आया, बल्कि खाने का लुत्फ उठाते हुए वे कहानी के दिलचस्प मोड़ और रोमांचक पलों पर चर्चा भी करने लगे। सम्मानित महोदया वेल्ली थेवर, जो मेरी सबसे कटु आलोचक हैं, उन्होंने इस कहानी पर अपनी मुहर लगाते हुए कहा, “निकल पड़ेगी, निकल पड़ेगी।” असल में, उसने तो इस पर फिल्म बनाने के लिए निर्देशक और मुख्य किरदारों पर भी चर्चा शुरू कर दी!
फिर मैंने पुलिस फोर्स में अपने कई दोस्तों और खुफिया बिरादरी के करीबी सहयोगियों को इसे सुनाने की प्रक्रिया शुरू की। प्लॉट में नए-नए मोड़ भी डालने लगा। अपने दो युवा साथियों और शिष्यों- बिलाल सिद्दीकी और गौतम मेंगले के सुझावों से कहानी का खाका और दमदार बनाया गया। बिलाल उस समय अपनी किताब ‘द स्टारडस्ट अफेयर’ के लेखन में काफी व्यस्त था और अपनी पहली किताब ‘द बार्ड ऑफ ब्लड’ के नेटफ्लिक्स पर रूपांतरण की पटकथा लिख रहा था। हालाँकि गौतम, जो एक बेहतरीन पत्रकार है, वह इस कहानी से जुड़े विचारों को विस्तार देने और सह-साजिशकर्ता की भूमिका में आ गया।
और आखिर में, मैं एक बार फिर से कहना चाहूँगा कि इस किताब में मेरे हीरो, मिर्जा और विक्रांत, मेरी कल्पना की उपज भर नहीं हैं। वे उन गुमनाम पुलिसकर्मियों और खुफिया विभाग के अधिकारियों का सार हैं, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ।
-एस. हुसैन जैदी.
──────────────────────
आख़िरी बाज़ी उपन्यास का एक अंश देखें :
──────────────────────
राजू कनौजिया सुखी आदमी था। उसकी पत्नी मायके गई हुई थी। दोनों के दो बेटे थे। राजू का पड़ोसी तीन महीने के लिए शहर से बाहर गया हुआ था और उसकी पत्नी राजू पर डोरे डाल रही थी और मामला दिन-ब-दिन जोर पकड़ता जा रहा था। उसने तय किया कि वह उसे एक-दो दिन और रिझाने देगा और फिर ‘थोड़ा दूध मिलेगा क्या’ के बहाने उसके घर जाएगा।
विदेश मंत्रालय परिसर में वॉशरूमों की सफाई के अपने काम को निपटाते हुए मन-ही-मन उसने हिसाब लगाया कि उसके पास कितने पैसे बचे थे। सोच रहा था, आजकल महँगाई कितनी बढ़ गई है, यहाँ तक कि दूसरे के साथ चक्कर चलानेवाली घरवाली भी कुछ-न-कुछ माँग ही लेगी। अगर वह उसके साथ रँगरेलियाँ मनाना चाहता है तो उस मौके पर एक तोहफा तो बनता ही है।
अपने ही खयालों में खोए होने की वजह से उसका ध्यान बाहर मची अफरा-तफरी पर जाने से करीब-करीब रह गया। उस समय वह दूसरी मंजिल के सामान्य शौचालय से बाहर निकल रहा था। उसे बस, एक झलक भर मिली। शौचालय के दरवाजे पर खड़ा होकर कनौजिया उत्सुकता से उस नाटे व मोटे आदमी को देख रहा था, जो शेरवानी एवं रोएँदार टोपी लगाए हुए था और लड़खड़ाता हुआ कॉन्फ्रेंस रूम से बाहर निकला था। उसका एक हाथ अपने चेहरे पर था, जबकि कई सुरक्षाकर्मियों और राजनयिकों ने उसके चारों ओर घेरा बना रखा था। उसे पहचानने में एक या दो मिनट लग गए। वह शख्स कोई और नहीं, उस दिन के कार्यक्रम का खास मेहमान था!
अधिकांश स्मार्टफोन वालों की तरह ही कनौजिया के भीतर पहले तसवीर खींचने और फिर पूछताछ करने की आदत थी। वह झटपट सामान्य शौचालय के भीतर गया, दरवाजे को जरा सा ही खुला रहने दिया और अपने सेलफोन को बाहर निकाला ही था कि कुछ लोग उसके करीब से गुजरे। अधिकारियोंवाले शौचालय की ओर जाने के लिए जैसे ही उन लोगों का समूह दरवाजे के पास से गुजरा, कनौजिया ने पाकिस्तानी उच्चायुक्त की एकदम शानदार तसवीर खींच ली। उसकी नाक से खून बह रहा था और वह इस तरह रो रहा था, जैसे स्कूल में किसी दबंग लड़के ने उसकी पिटाई कर दी हो।
.....

पेपरबैक : https://amzn.to/2zMv4iE
हार्डकवर : https://amzn.to/2BsJRPS
इ बुक : https://amzn.to/37I2pYK
कनौजिया जो कुछ देख रहा था, वह 26 नवंबर, 2008 को होनेवाली सिलसिलेवार घटनाओं का नतीजा था, जब दस आतंकवादियों ने मुंबई शहर पर हमला बोला था और उसके चैन-सुकून को छीन लिया था। साठ घंटे तक भारतीय सुरक्षा बलों के जवान बहादुरी से लड़ते रहे और बाकी सब असहाय होकर देखते रहे।
पुलिस अधीक्षक विक्रांत सिंह, जो महाराष्ट्र कैडर के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे, वे भी उनमें से एक थे। उस समय आतंकवाद निरोधी दस्ते के डिप्टी कमिश्नर विक्रांत अपने नागपाड़ा के दफ्तर में इंडियन मुजाहिदीन के एक मॉड्यूल से जुड़े कागजी काम निपटा रहे थे, जिसका पर्दाफाश उन्होंने दो हफ्ते पहले महीनों की कड़ी मेहनत के बाद किया था।
पुलिस अधीक्षक विक्रांत सिंह, जो महाराष्ट्र कैडर के भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी थे, वे भी उनमें से एक थे। उस समय आतंकवाद निरोधी दस्ते के डिप्टी कमिश्नर विक्रांत अपने नागपाड़ा के दफ्तर में इंडियन मुजाहिदीन के एक मॉड्यूल से जुड़े कागजी काम निपटा रहे थे, जिसका पर्दाफाश उन्होंने दो हफ्ते पहले महीनों की कड़ी मेहनत के बाद किया था। तभी उनका फोन बजा और उनका वायरलेस पागलों की तरह शोर करने लगा। अगले दस मिनट तक उन्होंने जो कुछ सुना, उस पर उन्हें यकीन नहीं हो रहा था। आखिरी वक्त पर वे अपने दफ्तर से बाहर भागे, चमड़े के खोल में पिस्तौल डाली और एक हाथ में दूसरी मैगजीन ली, वहीं दूसरे हाथ से अपनी कार की चाबी निकाली।
अगले दो दिनों तक ओबेरॉय-ट्राइडेंट होटल में विक्रांत उन आतंकियों से गोलीबारी करते रहे, जो उस शहर को तबाह करने पर तुले थे। वही शहर, जिसे वे बेहद चाहते थे। उन्होंने अपने कई साथियों को, जिनमें सीनियर भी थे और जूनियर भी, उस गोलीबारी में शहीद होते देखा था। राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड ने जब होटल पर धावा बोला और संघर्ष को अंजाम तक पहुँचाया, तब खरोंच खाए, मैले-कुचैले और गुस्से से पागल विक्रांत ने पुलिस की पहली गाड़ी देखते ही उसे रोका, उसमें सवार हुए और कोलाबा पुलिस स्टेशन निकल गए, जो पास में ही था। उन्होंने जाँच-पड़ताल के कमरे में खुद को बंद कर लिया। पुलिस स्टेशन में तैनात चार सिपाहियों में से एक ने कमरे के पास से गुजरते हुए भीतर से कई बार आई धम-धम की आवाज सुनी।
अभी वह सोच ही रहा था कि शोर मचाए या नहीं, तब तक दरवाजा खुला और विक्रांत बाहर निकले। उनके चेहरे पर किसी तरह का कोई भाव नहीं था। हाँ, दाहिने हाथ के मुक्के से खून बह रहा था। सिपाही की तरफ देखे बिना ही वे बाहर निकल गए, जबकि सिपाही भागकर कमरे के अंदर गया। दूर की दीवार पर उसने ताजा-ताजा बने गड्ढे को देखा, जिस पर खून के धब्बे थे।
.....

शौचालय के एक कोने में जाकर कनौजिया उस फोटो को देखने लगा, जिसे उसने खींचा था। यह जरूर कोई बड़ा आदमी है। कनौजिया ने देखा था कि उसे भारी सुरक्षा के बीच बिल्डिंग में लाया गया था और कई बेहद महत्त्वपूर्ण लोग उसके स्वागत के लिए भागकर गए थे। उसने अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाए और आखिर में उसे याद आया कि कैंटीनवाले ने उस दिन शाम को होनेवाले एक सांस्कृतिक कार्यक्रम के बारे में बताया था। भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ताना संबंधों को बेहतर बनाने के लिए गजल का कार्यक्रम था।
इंडियन मुजाहिदीन मॉड्यूल के पर्दाफाश की वजह से 26/11 के कुछ ही समय बाद विक्रांत का ट्रांसफर डेपुटेशन पर इंटेलिजेंस ब्यूरो में हो गया, जैसा कि वह हमेशा से ही चाहता था। उसने निगरानी और जाँच की दुनिया में खुद को ऐसे झोंक दिया, जैसे उस पर कोई भूत सवार हो।
उसने फोटो को एक बार फिर गौर से देखा। उस आदमी के चेहरे का बायाँ हिस्सा, जो उसके हाथ से ढका नहीं था, साफतौर पर सूजा हुआ था और बैंगनी होने लगा था। 13 मेगापिक्सेल कैमरे का और गलियारे में पर्याप्त रोशनी का कमाल था कि तसवीर आश्चर्यजनक रूप से साफ खिंच गई थी। पर यह था कौन? शायद गूगल कुछ बता सके।
आख़िरी बाज़ी
लेखक : एस. हुसैन जैदी
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 248
यहाँ क्लिक कर पुस्तक प्राप्त करें :-
पेपरबैक : https://amzn.to/2zMv4iE
हार्डकवर : https://amzn.to/2BsJRPS
इ बुक : https://amzn.to/37I2pYK
लेखक : एस. हुसैन जैदी
प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन
पृष्ठ : 248
यहाँ क्लिक कर पुस्तक प्राप्त करें :-
पेपरबैक : https://amzn.to/2zMv4iE
हार्डकवर : https://amzn.to/2BsJRPS
इ बुक : https://amzn.to/37I2pYK