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'वाह उस्ताद' में संगीत घरानों से जुड़े दिलचस्प् किस्से मनोरंजक भाषा-शैली में लिखे गये हैं. |
हिन्दी और अंग्रेजी लेखन में जबर्दस्त महारत प्राप्त प्रवीण कुमार झा, जो भी लिखते हैं, बहुत ही खोजपूर्ण तथा रोचक विषय पर लिखते हैं। 'कुली लाइन्स' उनकी बहुत ही लोकप्रिय पुस्तक है। उसके बाद 'वाह उस्ताद' शीर्षक से उनकी एक और पुस्तक प्रकाशित हुई है। राजपाल एण्ड सन्ज़ द्वारा प्रकाशित इस किताब में लेखक ने एक तरह से हिन्दुस्तानी संगीत के एतिहासिक संगीतकारों, राग, ताल और सुरों के प्रकाण्ड पंडितों का बहुत ही मनोरंजक तथा खोजपूर्ण इतिहास लिखा है।
इस तरह की सामग्री को अपने में समेटे अपनी तरह की शायद यह पहली पुस्तक है। संगीत घरानों का इतिहास इसे कहा जाये तो बेहतर होगा। लेखक को यह पुस्तक तैयार करने में काफी परिश्रम और समय लगाना पड़ा होगा।
भूमिका में प्रवीण कुमार झा लिखते हैं,'इस किताब में मैं संगीत के घरानों और रागों की सैर करता हूँ। मैं ट्रेन से दर-बदर नहीं घूमा, बल्कि अपने एक गुप्त कमरे में बंद होकर एकांत में संगीत सुन-सुन कर घूमा। संगीत में रस बढ़ जाता है, जब हम कुछ मूलभूत बातें जान लें।' लेखक का मानना है कि संगीत केवल संगीतज्ञों के लिए नहीं बल्कि श्रोताओं के लिए भी है। 'वाह उस्ताद' में संगीत घरानों से जुड़े दिलचस्प् किस्से मनोरंजक भाषा-शैली में लिखे गये हैं। संगीत घरानों की जानकारी देने के लिए पुस्तक का पहला खंड 'घराने आखिर हैं क्या?' शीर्षक से लिखा गया है।

पुस्तक में ग्वालियर घराना, आगरा घराना, रामपुर सहसवान घराना, किराना घराना, पटियाला घराना, मेवात घराना, बनारस घराना, दिल्ली घराना आदि घरानों के बारे में लेखक ने बहुत कुछ लिखा है। इसे गीत, संगीत और गायन के प्रेमियों के साथ दूसरों को भी पढ़ने में आनन्द आएगा।
आगरा घराने के आख़िरी उस्ताद अकील अहमद ख़ान उर्फ मोहन पिया ने आगरा में उनके घर पहुँचे पत्रकार गिरिंद्रनाथ झा को एक साक्षात्कार के दौरान जो व्यथा बतायी उससे एक विख्यात संगीत उस्ताद की उपेक्षा का पता चलता है। अकील अहमद ख़ान को ढ़ूंढने में गिरिंद्रनाथ झा को बहुत पापड़ बेलने पड़े। उस्ताद साहब के पड़ौसी तक उनके बुढ़ापे में भुला बैठे, उन्हें अपने मेडल तक बेचने पड़े।
उस्ताद अकील अहमद ख़ान के शब्दों में,'यह ताजमहल का शहर है। यहाँ मुर्दों के मकबरे देखने पूरी दुनिया आती है और ज़िन्दा लोगों को कोई नहीं पूछता।'
अकील जी की आँखों में सुनहरे दिनों के अतीत की परछाईं झलकती है और वे एक खूबसूरत बंदिश लगाते हैं -
'हाथ लजुरिया, सर पे गगरिया।
पनिया भरत जिया घायल करे,
छमाछम पानी भरे।'
प्रवीण झा एक जगह लिखते हैं-'बांसुरी जैसी मधुर और कोमल ध्वनि के पीछे दो पहलवान रहे। पन्नालाल घोष तो बंगाल के मुक्केबाज़ी चैंपियन थे, और हरिप्रसाद चौरसिया कुश्ती लड़ते थे।’
बड़े गुलाम अली ख़ान की चर्चा करते हुए लेखक बताते हैं कि उनकी आवाज़ इतनी बुलंद थी कि आस-पड़ोस वाले जाग जाते थे। वह अपना तानपुरा उठाकर शमशान चले जाते और वहीं रियाज़ करते। लकवा होने के बाद भी वे रियाज़ करते रहे, बल्कि उनकी आवाज़ और खुल गयी। पहले मुस्लिम गायकों में वे रहे जिन्होंने आकाशवाणी के लिए भजन रिकॉर्ड किया,'हरि ओम् तत्सत्'।

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प्रवीण झा एक जगह लिखते हैं -'बनारस की ख़ासियत है कि जितना ही यहाँ सात्विक धर्मनिष्ठ संगीत है, उतना ही यहाँ मंदिरों में गांजा की सोंट मार कर तबला बजाने का माहौल बनता है। और जिस अदब से पान खाते हुए यहाँ के गले सँवर गए, उतनी ही यहाँ के तवायफ़ घरों से नज़ाकत जन्मी।'
पुस्तक में लेखक ने भारतीय संगीत जिसे भक्ति अथवा शास्त्रीय संगीत भी कहा जा सकता है, के उस्तादों और उस्ताद शिष्यों से जुड़ी बहुत ही महत्वपूर्ण तथा दिलचस्प जानकारी उपलब्ध करायी है। नार्वे में बसे पेशे से चिकित्सक लेखक प्रवीण कुमार झा की यह पुस्तक एक ख़ास दस्तावेज है।
पुस्तक अंश : घराने आखिर हैं क्या?
संगीत घराने को अंग्रेज़ी में 'स्कूल ऑफ़ म्यूज़िक' कह सकते हैं। एक पुश्तैनी तालीम। कई संगीत अध्येता कहते हैं कि जब किसी की तीन पीढ़ियाँ हो जाएँ, तो 'घराना' कहला सकता है। वहीं, कुछ लोग इसे एक ख़ास संगीत शैली भी कहना चाहेंगे। दिल्ली की कई पीढ़ियाँ निकल गयीं, तो भी लोग 'घराना' मानने से कतराते हैं। इंदौर में लगभग इकलौते उस्ताद अमीर ख़ान की गायकी से इंदौर घराना बन गया। बनारस में इतनी अलग-अलग तरह की शैलियाँ रहीं कि यह कहना कठिन है कि बनारस का घराना आख़िर है क्या? और अब तो यह सब एक रुप होता जा रहा है, सभी घराने मिलकर एक होते जा रहे हैं, घरानों के सभी 'सीक्रेट' अब ओपेन-सोर्स बन गए। जिसे मर्ज़ी अपना ले।
लेकिन फिर भी, हम घरानों के अस्तित्व से इनकार नहीं कर सकते। और इसलिए उन्हें समझना ज़रूरी है। तानसेन के समय और उससे पहले भी, घराने नहीं होते थे। तब ध्रुपद गाया जाता था, और उनकी ‘बानी’ होती थी। यह एक संगीत शैली थी, कोई पुश्तैनी मामला नहीं था। डागुर बानी, नौहर बानी, खंडार बानी और गौहर बानी। जैसे मियाँ तानसेन गौहर बानी से थे। इन सबके केंद्र या प्रश्रय राजदरबारों और ज़मींदारों के माध्यम से थे। ज़ाहिर तौर पर दिल्ली की मुग़ल गद्दी ही केंद्र थी।
बाद में जब ख़याल गायकी का उदय हुआ, और गायक भारत में अलग-अलग स्थान पर पसरने लगे तो उनके घराने बनने लगे। ग्वालियर और आगरा घरानों से शुरुआत हुई। यहाँ ख़ास परिवार के वंशजों ने घरानों को आगे बढ़ाया। इनके ही कुछ शिष्य जब पसरने लगे तो यह वृक्ष बढ़ता गया। कैराना में किराना घराना, अतरौली में, रामपुर में, पटियाला में, जयपुर में, मैहर में। इस तरह से विस्तार होने लगा। इनमें कुछ ने अपने साथ तानसेन के वंशज होने का तमगा लगाया और ‘सेनिया’ कहलाए। हालाँकि उस वक़्त गायकी ही मुख्य थी, लेकिन प्रसिद्ध बीनकार घराने, तबला घराने और सारंगी घराने भी पनपे। यह गायन के सहयोगी थे, लेकिन इनकी पुश्तैनी ट्रेनिंग अलग थी।
एक और बात रही कि घरानों के नाम ख़ानदानी पूर्वज धरती के आधार पर थे। वह नाम भले किराना (कैराना) रखें, लेकिन उनका केंद्र दक्खिन में धारवाड़ में रहा। जयपुर अतरौली घराने का केंद्र कोल्हापुर बना। आगरा घराना बड़ौदा, मैसूर और मुंबई में पसरा। शाहजहाँपुर घराना और इटावा घराना बंगाल चला गया। वहीं, ग्वालियर घराने के मुख्य वंश कुछ हद तक ग्वालियर में ही रहे।
आज़ादी के बाद जब राज-दरबार खत्म हुए, तो बिखराव बढ़ता ही गया। अब मैहर के लोग कैलिफ़ोर्निया में भी मिलेंगे। ये सीमाएँ मिट गयीं।
वाह उस्ताद
लेखक : प्रवीण कुमार झा
प्रकाशक : राजपाल एंड सन्ज़
पृष्ठ : 176
पुस्तक लिंक -
MarkMyBook : https://markmybook.com/book.php?book=586354
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लेखक : प्रवीण कुमार झा
प्रकाशक : राजपाल एंड सन्ज़
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