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तीनों कालों का पारस्परिक प्रभाव रचनाकार के वजूद को रहस्मय बनाता है. |
जहां तक मेरा सवाल है तो शायरी मेरे लिये खुद अपनी तलाश का सबसे मोतबर वसीला है। हर इंसानी वजूद के ‘शऊर’ की तामीर में अनगिनत कारक सक्रिय होते हैं और यह कारक बेशुमार संयोगों में रुप धारण करते हैं। हमारे समय में स्मृतियों और सपनों के रुप में अतीत और भविष्य भी विराजे होते हैं।
स्मृतियों और सपनों की धड़कनों के बिना वर्तमान का संघर्ष सजीव नहीं हो सकता। तीनों कालों का पारस्परिक प्रभाव रचनाकार के वजूद को रहस्मय बनाता है। वजूद के इसी रहस्य की कलात्मक खोज ही रचनाकार का बुनियादी सरोकार होना चाहिए। ‘ख़ुद गरिफ़्त’ की इन ग़ज़लों में मैंने इस सरोकार को निभाया है। किसी और बुलन्द बांग दावे या ख़ुशफ़हमी के बग़ैर बस यही सरोकार इस ग़ज़ल संग्रह का एकमात्र ‘जवाज़’ है।
~इजलाल मजीद.
इस कविता संग्रह से -
उड़ती चिड़िया का साया है
मैं समझा पत्थर आया है
इक गिरती दीवार गिराकर
अपने भीतर कुछ ढाया है
खोद के हमने इन टीलों को
क्या खोया और क्या पाया है
मेरी हमदम मेरी दुश्मन
बस मिट्टी की ये काया है
तपते सहरा के आज़िम को
जलता सूरज ही साया है

यूं भी अक्सर जहां में होता है
काटता वो नहीं जो बोता है
है सुबुकरौ सफ़र में उतना ही
राह में जिस क़दर जो खोता है
मुद्दतों से कहां वो सोया था
फूंक कर बस्तियां जो सोता है
शादमां देखकर मुझे अक्सर
मेरे भीतर यह कौन रोता है
