“स्मृतियों और सपनों की धड़कनों के बिना वर्तमान का संघर्ष सजीव नहीं हो सकता”

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तीनों कालों का पारस्परिक प्रभाव रचनाकार के वजूद को रहस्मय बनाता है.
ग़ज़ल किसी तआर्रुफ़ की मोहताज नहीं। उसकी लोकप्रियता दिन ब दिन बढ़ती ही जाती है। बावजूद इस ह़कीक़त के कि ग़ज़ल की विधा में तकनीकी दृष्टि से कोई बुनियादी तब्दीली नहीं लाई जा सकती है। ‘आज़ाद ग़ज़ल’ जैसे प्रयोग ज़रुर किये गये लेकिन आम स्वीकृति नहीं प्राप्त कर सके। शायरी की ‘नज़्म’ शैली में बहुत आसानी से सफल प्रयोग किये जाते रहे हैं लेकिन ग़ज़ल का परम्परागत रुप अपनी जगह बरक़रार रहा। वही बहरें, क़ाफ़िया, रदीफ़। अनुभूति की अभिव्यक्ति के लिए वही इशारे, किनाये और प्रतीकवादी शैली आज भी सबकुछ वैसा ही है। शायद इसीलिये सोचा जा रहा था कि परम्परा की ज़ंजीरों से बंधी ग़ज़ल हमारे आधुनिक समय के साथ चलने में असमर्थ रहेगी लेकिन सबने देखा कि वक़्त ने इस अंदेशे को न सिर्फ बिल्कुल बेबुनियाद साबित कर दिया बल्कि यह भी दिखा दिया कि तकनीकी पाबन्दियों के बावजूद ग़ज़ल में वह लचक और सलाहियत है कि वह हमारे समय की ज़िन्दगी की तमाम जटिलताओं को शायरी की किसी भी दूसरी शैली की तरह ज़ाहिर करने में कामयाब है। बुनियादी बदलाव इस विषय में हुआ कि सोच के ऊपर जो पहरे लगे हुये थे वो सब उठा लिये गये। पहले कुछ विशिष्ट विषय ही ग़ज़ल के विषयों के रुप में स्वीकृत थे लेकिन आज अपनी सभी विसंगतियों और विरोधाभासों के साथ सम्पूर्ण जीवन ही ग़ज़ल का विषय है।

जहां तक मेरा सवाल है तो शायरी मेरे लिये खुद अपनी तलाश का सबसे मोतबर वसीला है। हर इंसानी वजूद के ‘शऊर’ की तामीर में अनगिनत कारक सक्रिय होते हैं और यह कारक बेशुमार संयोगों में रुप धारण करते हैं। हमारे समय में स्मृतियों और सपनों के रुप में अतीत और भविष्य भी विराजे होते हैं।

स्मृतियों और सपनों की धड़कनों के बिना वर्तमान का संघर्ष सजीव नहीं हो सकता। तीनों कालों का पारस्परिक प्रभाव रचनाकार के वजूद को रहस्मय बनाता है। वजूद के इसी रहस्य की कलात्मक खोज ही रचनाकार का बुनियादी सरोकार होना चाहिए। ‘ख़ुद गरिफ़्त’ की इन ग़ज़लों में मैंने इस सरोकार को निभाया है। किसी और बुलन्द बांग दावे या ख़ुशफ़हमी के बग़ैर बस यही सरोकार इस ग़ज़ल संग्रह का एकमात्र ‘जवाज़’ है।

~इजलाल मजीद.

इस कविता संग्रह से  -

उड़ती चिड़िया का साया है
मैं समझा पत्थर आया है

इक गिरती दीवार गिराकर
अपने भीतर कुछ ढाया है

खोद के हमने इन टीलों को
क्या खोया और क्या पाया है

मेरी हमदम मेरी दुश्मन
बस मिट्टी की ये काया है

तपते सहरा के आज़िम को
जलता सूरज ही साया है

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यूं भी अक्सर जहां में होता है
काटता वो नहीं जो बोता है

है सुबुकरौ सफ़र में उतना ही
राह में जिस क़दर जो खोता है

मुद्दतों से कहां वो सोया था
फूंक कर बस्तियां जो सोता है

शादमां देखकर मुझे अक्सर
मेरे भीतर यह कौन रोता है

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