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'ख़ूबसूरती की भी, कविता की तरह कोई एक परिभाषा हो पाना मुश्किल है..' |
और इस परिभाषा की अनभिज्ञता मेरे लिए एक बहुत बड़ा कारण है कि मैं पिछले चौबीस साल से लगातार कविता लिख रहा हूँ। एक तलाश है, अल्फ़ाज़ में छिपे मौन की, जिसमें मैं भटक रहा हूँ। कविता लिखना एक ऐसा सफ़र है, जो शुरु तो ‘‘स्वान्तः सुखाय’’ से ही हुआ, लेकिन धीरे-धीरे ये स्व से परे होता चला गया। धीरे-धीरे सार्वभौमिक अनुभवों को समेटने लगा, उन्हें अपना कर, महसूस कर, अभिव्यक्त करने लगा। चलते-चलते स्वार्थ ने ज़िम्मेदारी की शक्ल इख़्तियार कर ली और कविता घर-आँगन की चारदीवारी से उचककर बाहर झाँकने लगी और गली-कूँचों, शहरों, देशों और अनजान लोगों के तजुर्बे ख़ुद में समेटने लगी।
~मोहित कटारिया.

‘कच्चे रंग’ संग्रह से...
कभी-कभी कोई भूली-बिसरी खुशबू
मिल जाती है,
बरसों बाद किसी मोड़ पर
और हाथ पकड़कर ले जाती है
पढ़वाने के लिए,
अतीत की किताब के
पीले पड़ चुके,
ख़स्ता हाल पन्ने।
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मिल सकते हैं
और मिल भी जाते हैं कभी-कभी
अनजान रास्तों से गुज़रते हुए भी
जाने-पहचाने लोग कुछ
जो बिछुड़ गये थे
पिछले किसी मोड़ पर कहीं।
वो लोग मगर
जो बिछुड़ जाते हैं
मिलकर बस ख़्वाबों ही में
वो फिर कभी नहीं मिलते,
कहीं नहीं मिलते!
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कुछ नज़्मों के रंग
कच्चे होते हैं बहुत,
तितलियों के रंगों जैसे।
रह जाते हैं
अँगुलियों के पोरों पर
लिखते हुए उन्हें;
या आँखों के डोरों में
फिर से पढ़ते-सुनते-सुनाते हुए कभी।