कच्चे रंग : “एक तलाश है, अल्फाज़ में छिपे मौन की”

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'ख़ूबसूरती की भी, कविता की तरह कोई एक परिभाषा हो पाना मुश्किल है..'
अक्सर मन में ये सवाल उठता है कि कविता आखि़र है क्या? और उस सवाल के उठने का एक ख़ास कारण ये है कि मैं कभी भी औपचारिक तौर पर साहित्य का विद्यार्थी नहीं रहा और शायद इसीलिए अभी तक मुझे कविता की ऐसी कोई परिभाषा मिली नहीं है, जो हर तरह की कविता को, ख़ासकर अल्फ़ाज़ के बिना कही गयी या रची गयी कविता को भी परिभाषित कर पाये। सो मेरी समझ के हिसाब से, कविता वह है जो आपको छू जाये, कहीं गहरे में, और कभी आपको सोचने पर मजबूर करे और कभी वह एहसास महसूस करने पर जिन्हें आप जानबूझकर या अनजाने में नज़रअन्दाज़ करते आये हों। कभी वह आपको झकझोर दे, और कभी सहला दे। कभी नींदें उड़ा दे और कभी लोरी जैसा आराम दे कर सुला दे। अब वह कविता, कविता की शक्ल में भी एक कहानी की शक्ल में भी। कितनी बार ऐसा होता है कि कुछ ख़ूबसूरत देखते, पढ़ते या सुनते ही, बरबस मुँह से निकल जाता है, ‘‘It’s so poetic’’ और ख़ूबसूरती का भी यहाँ सिर्फ एक ही अर्थ नहीं है। कभी-कभी दर्द को भी इतनी ख़ूबसूरती से अभिव्यक्त किया जाता है कि वह कविताई हो जाता है। यूँ भी ख़ूबसूरती को देखने और परखने का सबका अपना-अपना नज़रिया और मापदण्ड होता है और इसीलिए ख़ूबसूरती की भी, कविता की तरह कोई एक परिभाषा हो पाना मुश्किल है।

और इस परिभाषा की अनभिज्ञता मेरे लिए एक बहुत बड़ा कारण है कि मैं पिछले चौबीस साल से लगातार कविता लिख रहा हूँ। एक तलाश है, अल्फ़ाज़ में छिपे मौन की, जिसमें मैं भटक रहा हूँ। कविता लिखना एक ऐसा सफ़र है, जो शुरु तो ‘‘स्वान्तः सुखाय’’ से ही हुआ, लेकिन धीरे-धीरे ये स्व से परे होता चला गया। धीरे-धीरे सार्वभौमिक अनुभवों को समेटने लगा, उन्हें अपना कर, महसूस कर, अभिव्यक्त करने लगा। चलते-चलते स्वार्थ ने ज़िम्मेदारी की शक्ल इख़्तियार कर ली और कविता घर-आँगन की चारदीवारी से उचककर बाहर झाँकने लगी और गली-कूँचों, शहरों, देशों और अनजान लोगों के तजुर्बे ख़ुद में समेटने लगी।

~मोहित कटारिया.

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‘कच्चे रंग’ संग्रह से...

कभी-कभी कोई भूली-बिसरी खुशबू
मिल जाती है,
बरसों बाद किसी मोड़ पर
और हाथ पकड़कर ले जाती है
पढ़वाने के लिए,
अतीत की किताब के
पीले पड़ चुके,
ख़स्ता हाल पन्ने।

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मिल सकते हैं
और मिल भी जाते हैं कभी-कभी
अनजान रास्तों से गुज़रते हुए भी
जाने-पहचाने लोग कुछ
जो बिछुड़ गये थे
पिछले किसी मोड़ पर कहीं।

वो लोग मगर
जो बिछुड़ जाते हैं
मिलकर बस ख़्वाबों ही में
वो फिर कभी नहीं मिलते,
कहीं नहीं मिलते!

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कुछ नज़्मों के रंग
कच्चे होते हैं बहुत,
तितलियों के रंगों जैसे।

रह जाते हैं
अँगुलियों के पोरों पर
लिखते हुए उन्हें;
या आँखों के डोरों में
फिर से पढ़ते-सुनते-सुनाते हुए कभी।

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