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इक़बाल को ग़ज़लों की तरह नज़्में लिखने में बड़ी महारत हासिल थी... |
इक़बाल को शाइरी का शौक़ स्कूली जीवन में ही हो गया था और वह अपनी रचनाएं उस समय के नामी शाइर उस्ताद ‘दाग़’ के पास संशोधन के लिए भेजा करते थे, परन्तु वास्तव में, उनकी शाइरी का आरम्भ लाहौर पहुंचने के बाद ही हुआ। जिस समय उन्होंने अपने मित्रों के आग्रह पर अपनी एक रचना किसी मुशाइरे में पढ़ी, तब उनकी आयु बाईस वर्ष की थी।
सन् 1899 में इक़बाल ने पंजाब विश्वविद्यालय से दर्शनशास्त्र में एम.ए. किया और पहले लाहौर के ओरिएण्टल कॉलेज में और फिर गवर्नमेंट कॉलेज में प्रोफ़ेसर के पद पर अध्यापन का कार्य किया।
उस समय उनकी शाइरी की चर्चा पूरे भारत में होने लगी थी और उनकी रचनाएं उर्दू की श्रेष्ठ पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ करती थीं। इक़बाल को ग़ज़लों की तरह नज़्में लिखने में बड़ी महारत हासिल थी। उनकी दर्दभरी नज़्में सुनकर लोग रोने लगते थे, जिन्हें उस समय की विख्यात उर्दू पत्रिका ‘मख़ज़न’ के सम्पादक शेख़ अब्दुल क़ादिर ने अपनी पत्रिका में प्रकाशित करना आरम्भ कर दिया।
आरम्भिक दिनों में इक़बाल देशप्रेम और ब्रिटिश हुकूमत के विरोध में ही लिखा करते थे। उन्होंने भारत की पराधीनता और दरिद्रता पर ऐसी रचनाएं लिखीं जिन्हें सुनकर लोग ख़ून के आँसू बहाया करते थे। इसके साथ ही उन्होंने प्राकृतिक सौन्दर्य पर भी अनेक रचनाएं लिखीं, जिनमें उन्होंने भारत के पर्वतों, नदियों और लहलहाते खेतों का बड़ा ही मनोहारी वर्णन किया है। इक़बाल ने अनेक महापुरुषों के विषय में भी लिखा, जिनमें गुरु नानक, शेख़ चिश्ती, भगवान राम और स्वामी रामतीर्थ प्रमुख हैं।
उनके द्वारा लिखा गया ‘सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ नामक तराना आज भी भारत-भर में प्रसिद्ध है और अनेक अवसरों पर गाया जाता है। इक़बाल की मृत्यु सन् 1938 में हुई।

इक़बाल की शायरी :
अनोखी वज़्आ है, सारे ज़माने से निराले हैं
ये आशिक़ कौन-सी बस्ती के यारब रहने वाले हैं
इलाजे दर्द में भी दर्द की लज़्ज़त पे मरता हूं
जो थे छालों में कांटे नोके-सोज़न से निकाले हैं
फला-फूला रहे यारब चमन मेरी उमीदों का
जिगर का ख़ून दे-देकर ये बूटे मैंने पाले हैं
न पूछो मुझसे लज़्ज़त ख़ानमां बरबाद रहने की
नशेमन सैकड़ों मैंने बनाकर फूंक डाले हैं
उमीदे हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
ये हज़रत देखने में सीधे-सादे, भोले-भाले हैं
नहीं बेगानगी अच्छी रफ़ीक़े राहे मंज़िल से
ठहर जा ऐ शरर! हम भी तो आख़िर मिटने वाले हैं.
လ〜လ〜လ〜လ〜လ〜လ
असर करे-न करे, सुन तो ले मेरी फ़रियाद
नहीं है दाद का तालिब ये बन्दा ए आज़ाद
ठहर सका न हो रे चमन में ख़ेमा ए गुल
यही है फ़सले बहारी यही है बादे मुराद
क़ुसूरवार ओ ग़रीबउद्दयार हूं लेकिन
तेरा ख़राबा फ़रिश्ते न कर सके आबाद
मेरी जफ़ा तल्बी को दुआएं देता है
वो दश्ते सादा वो तेरा जहाने बे बुनियाद
ख़तरपसन्द तबीअ़त को साज़गार नहीं
वो गुलिस्तां कि जहां घात में न हो सैयाद