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शेखर पाठक ने एक सदी से भी लम्बे संघर्षों के इतिहास को इस पुस्तक में सफलता के साथ संजोया है. |
आज़ाद भारत से पहले और आज़ादी बाद के शासकों द्वारा पहाड़ी जन-जीवन के साथ जो रवैया अपनाया उसमें लेखक को कोई ख़ास अंतर नहीं दिखाई दिया। जंगलों और वनों की रक्षा के लिए चलने वाले कई आंदोलनों से लेखक का संबंध रहा तथा उससे पूर्व और तत्कालीन जन आंदोलनों के अनेक पुस्तकालयों से प्राप्त संबंधित पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं आदि का गहन अध्ययन कर वन बचाओ संघर्ष तथा चिपको आंदोलन की आवश्यकता और परिस्थितियों का अध्ययन किया। देश की आज़ादी में भी इन आंदोलनों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
शेखर पाठक लिखते हैं कि पिछले दो सौ साल का जंगलात व्यवस्था और आंदोलनों का इतिहास बताता है कि जंगलों की केन्द्रीयता हमारे जीवन में बनी रहेगी। ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के विकसित हो जाने पर भी जंगलों की व्यापक पारिस्थितिक भूमिका रहेगी। जलवायु परिवर्तन के दौर में जंगलों की महत्ता और बढ़ेगी। नगरीकरण से त्रस्त समाज को जंगल ही राहत देंगे और मिट्टी को रोकने का जतन करने वाली जंगलों से अधिक प्रभावी कोई व्यवस्था अभी दुनिया में विकसित नहीं हुई है।

14 अध्यायों और 600 पृष्ठों की यह पुस्तक वन्य प्रेमियों तथा पर्यावरण के प्रति जागरुकता का विशाल तथा महत्वपूर्ण साधन है। इसे पढ़ने से छोटे-बड़े तमाम ऐसे आंदोलनों का पता चलता है जिन्होंने पहाड़ और वन सुरक्षा में अहम योगदान दिया।
‘हरी भरी उम्मीद’ बीसवीं सदी के विविध जंगलात आन्दोलनों के साथ चिपको आन्दोलन का पहला गहरा और विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत करती है. यह अध्ययन समाज विज्ञान और इतिहास अध्ययन की सर्वथा नयी पद्धति का आविष्कार भी है.

पुस्तक में लेखक ने जंगलात आंदोलनों के भूगोल का अपेक्षाकृत विस्तृत परिचय देने का प्रयास किया है। जंगलात की पहली लड़ाई का विस्तार है कि जंगलात संबंधी चेतना और बिखरे विरोध का रुपान्तरण एक सुसंगठित प्रतिरोध में हुआ। कैसे बेगार तथा जंगलात के आंदोलनों ने इस दूरस्थ क्षेत्र को भारतीय संग्राम से जोड़ा। लेखक ने पुस्तक में नेतृत्व, संगठन, जन हिस्सेदारी तथा नेता-कार्यकर्ताओं के बहाने चिपको आंदोलन की पड़ताल की है। साथ ही आंदोलन में महिलाओं और युवाओं के योगदान पर भी विस्तार से चर्चा की है।