Book Review - गाँधी : एक सचित्र जीवनी

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इसे गाँधी पर लिखी गयी अब तक की मुकम्मल किताब कहा जाए तो गलत नहीं होगा.
महात्मा गाँधी पर लिखी यह किताब एक शानदार दस्तावेज़ है। इसमें हम गाँधी के जीवन के रंगों को रोचक वर्णन और तस्वीरों के माध्यम से देख पाते हैं। बचपन से लेकर अंतिम विदाई तक के नज़ारे बेजोड़ हैं। इसे गाँधी पर लिखी गयी अब तक की मुकम्मल किताब कहा जाए तो गलत नहीं होगा। पुस्तक की भाषा सरल है। लेखक ने घटनाओं को खींचने के बजाय कम शब्दों में स्पष्ट तौर पर बताया है।

बहुत दिनों बाद एक ऐसी पुस्तक पढ़ने को मिली है जिसमें लगभग हर पन्ने पर तस्वीर है और हर तस्वीर को देखने पर हम उस काल में भी विचरते हैं। इसे आप ऐसे देख सकते हैं जैसे आपके सामने स्वयं एक कहानी चल रही हो। आपके सामने गाँधी, वह दौर और हलचल -सब ब्लैक एंड वाइट तस्वीरों में। है ना शानदार अनुभव!

रोली बुक्स के संस्थापक और प्रकाशक प्रमोद कपूर ‘गाँधी : एक सचित्र जीवनी’ के लेखक हैं। इस पुस्तक का हिन्दी और मराठी अनुवाद मंजुल पब्लिशिंग हाउस द्वारा किया गया है जबकि मूल अंग्रेजी में यह पुस्तक रोली बुक्स ने प्रकाशित की है। हिन्दी अनुवाद मदन सोनी ने किया है। किताब अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, डच, फ्रेंच, रशियन, जर्मन और इटैलियन भाषा में उपलब्ध है।

पुस्तक को 6 भागों में बाँटा गया है :

1869-1914
हिन्दुस्तान, इंग्लैंड और दक्षिण अफ़्रीका के शुरुआती वर्ष

1915-1929
हिन्दुस्तान वापसी, असहयोग आन्दोलन और स्वाधीनता का आह्वान

1930-1939
नमक सत्याग्रह और गोल मेज़ कॉन्फ्रेंस

1940-1946
क्रिप्स मिशन और भारत छोड़ो आन्दोलन

1946-1947
साम्प्रदायिक दंगे, विभाजन और आज़ादी

1948
हत्या और दाह-संस्कार

'गाँधी : एक सचित्र जीवनी' एक शरारती, ज़िन्दादिल लड़के के एक महात्मा के रूप में विकसित होने का अंतरंग अध्ययन है। काठियावाड़ में उनकी आरम्भिक शिक्षा और कम उम्र में विवाह से लेकर लन्दन की भव्यता के साथ उनके पहले अनुभव तक, दक्षिण अफ़्रीका में एक क़ानूनी प्रकरण में संयोग से उनके रोज़गार मिल जाने से लेकर पीटरमेरिट्ज़बर्ग की रेल की उनकी उस सवारी तक जो बराबरी के हक़ को लेकर उनकी पहली लड़ाई का सबब बनी, एक अपेक्षाकृत नाकामयाब वकील ओने से लेकर मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाले धर्मयोद्धा के रूप में उनकी विश्वस्तरीय प्रतिष्ठा तक - गाँधी ऐसे बिरले विद्रोही थे जिन्होंने आने वाली पीढ़ियों के लिए जन-प्रतिरोध के अर्थ को पुनर्परिभाषित किया था। यह पुस्तक एक सघन अनुसन्धान का निष्कर्ष है जो दुनिया भर के स्रोतों से जुटाये गये छायाचित्रों द्वारा छोड़े गये निशानों का पीछा करती हुई गाँधी के जीवन में प्रवेश करती है। क्रमबद्ध पाठ्य सामग्री और उसके साथ दिए गये छायाचित्र गाँधी की अनूठी जटिलता को साकार कर देते हैं - उनकी सफलताओं और विफलताओं को, अपने समकालीनों के साथ उनके आत्मीय रिश्तों को, और स्वयं अपने परिवार के साथ रहे उनके पेचीदा रिश्ते को भी। यह पुस्तक गहरे लगाव के साथ सामने लाया गया एक मुश्किल उद्यम और पाठकों की नयी पीढ़ी के लिए गाँधी की पद्धतियों और सन्देश को चर्चित करने का प्रयास है।.
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महात्मा गाँधी के बारे में लेखक कहते हैं कि वे शायद इतिहास के महानतम राजपुरुष थे, एक जन्मजात राजनेता और क्रान्तिकारी, असाधारण रुप से साहसी दृष्टा थे, लेकिन साथ ही साथ एक ऐसे व्यक्ति भी जिनका अक्सर खुद उनकी ही शिक्षाओं से मेल नहीं बैठता था, जिनकी उन नेताओं और राजपुरुषों के साथ कोई पटरी नहीं बैठती थी, जिनके साथ वे काम या समझौता-वार्ताएँ करते थे, और जिनकी खुद उनके चरित्र के बहुत-से पक्षों के साथ कोई पटरी नहीं बैठती थी, ख़ास तौर से एक पिता और पति के रुप में।

मोहनदास करमचन्द गाँधी के पिता करमचन्द पोरबन्दर राज्य के मुख्यमंत्री थे जबकि दादा उत्तमचन्द पोरबन्दर के प्रधानमंत्री रह चुके थे। गाँधी के पिता ने चार विवाह किए थे और वे अंतिम विवाह से उत्पन्न चौथे और अंतिम बेटे थे। 13 साल की उम्र में गाँधी का विवाह कस्तूरबा से कर दिया गया। लेखक प्रमोद कपूर ने लिखा है कि गाँधी एक ईर्ष्यालु पति थे और कस्तूरबा उनकी इजाजत के बिना कहीं जा नहीं सकती थीं।

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पुस्तक में गाँधी के हाईस्कूल की अंकसूची भी देखी जा सकती है। वे एक औसत दर्जे के छात्र थे। उन्होंने अपने प्रधानाध्यापक को एक आवेदन-पत्र लिखा जिसमें अपनी छात्रवृत्ति अन्य छात्र को दिए जाने का आग्रह किया। इस पत्र की तस्वीर भी पुस्तक में है। 18 साल की उम्र में गाँधी पढ़ाई के लिए लन्दन पहुँचे। वहाँ से लौटकर बम्बई में वकालत के पेशे में कामयाबी प्राप्त न करने में असमर्थ रहे। फिर दक्षिण अफ्रीका में कानूनी सलाहकार बने। अदालत में पगड़ी पहनकर पहुँचे तो अदालत से बाहर निकाल दिए गए। इस किस्से को पुस्तक में दिलचस्प तरीके से बयान किया गया है। डरबन में प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर निकाल कर फेंक दिया गया। लेखक ने उस स्टेशन पर लगी एक पट्टी का जिक्र किया है जिसपर लिखा है: ‘इस पट्टी के आसपास 7 जून 1893 की रात को एम.के. गाँधी को प्रथम श्रेणी के डिब्बे से बाहर धकेल दिया गया था। इस घटना ने उनकी ज़िन्दगी की दिशा बदल दी थी। उन्होंने नस्लपरक उत्पीड़न के खिलाफ लड़ाई लड़ने का संकल्प ले लिया था। उस दिन से ही उनके अहिंसक आन्दोलन की शुरुआत हुई।’

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पुस्तक में गाँधी के क्रिकेट प्रेम का जिक्र भी किया गया है। डरबन के ग्रेविले क्रिकेट क्लब का एक दुर्लभ चित्र प्रकाशित किया गया है जिसमें गाँधी जमीन पर बैठे दिखाए गये हैं। लेखक ने इतिहासकार रामचन्द्र गुहा के हवाले से लिखा है कि गाँधी का एक सहपाठी उन्हें जोशिला क्रिकेट खिलाड़ी और ऑलराउंडर के तौर पर याद करता था जिन्हें इस खेल की अनिश्चितताओं की गहरी समझ थी। गाँधी को दक्षिण अफ्रीका में बोअर युद्ध और जुलू विद्रोह के दौरान उनकी सेवाओं के लिए पदक प्रदान किए गये। वे और उनके हिन्दुस्तानी स्वयंसेवकों का दस्ता घायलों को स्ट्रैचर पर लादकर मीलों तक पैदल चलते थे।

दक्षिण अफ्रीका में मोहनदास करमचन्द गाँधी ने 1903 में इंडियन ओपिनियन नामक अखबार का प्रकाशन शुरु किया जिसे हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती और तमिल में भी प्रकाशित किया गया। सामाजिक विचारक जॉन रस्किन की पुस्तक ‘अन्टू दिस लास्ट’ ने गाँधी के जीवन को हमेशा के लिए बदल दिया। इसी पुस्तक की प्रेरणा से उन्होंने फीनिक्स बस्ती बसायी।

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‘37 की उम्र में व्रत लेने के बाद गाँधी 1906 से लेकर 1948 में अपनी मृत्यु के समय तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते रहे। उन्होंने दूध का सेवन करना बन्द कर दिया था, क्योंकि उनका विश्वास था कि वह पाशविक आवेग को भड़काता है। उन्होंने फलाहार शुरु किया और सबसे सस्ते फल खाने लगे। पका हुआ भोजन त्याग दिया। कच्ची मूँगफली, केले, खजूर, नींबू और जैतून का तेल ही उनके सामान्य आहार का हिस्सा बन गए।’

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गाँधी ने रुसी चिंतक और लेखक लियो टाॅलस्टाॅय की पुस्तक ‘अ लेटर टू अ हिन्दू’ का गुजराती भाषा में अनुवाद किया। वे उन्हें अपना गुरु मानते थे। दोनों के बीच पत्र-व्यवहार होता रहा। अपनी पहली किताब ‘हिन्द स्वराज’ लिखी जिसकी पाण्डुलिपि तैयार करने में उन्हें मात्र नौ दिन लगे। गाँधी दोनों हाथों से लिखने में महिर थे। उन्होंने लगभग 60 पन्ने दाएँ हाथ से भी लिखे। यह पुस्तक 1909 में गुजराती में प्रकाशित हुई तो उसपर अंग्रेजों ने प्रतिबंध लगा दिया जबकि इसके अंग्रेजी अनुवाद पर कोई प्रतिबंध नहीं था। गाँधी की दोनों हाथों की लिखावट के नमूने हम चित्रों के माध्यम से ‘गाँधी: एक सचित्र जीवनी’ में देख सकते हैं।

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प्रमोद कपूर ने गाँधी के यहूदी दोस्तों का भी जिक्र किया है। गाँधी की यात्राओं, जेल-जीवन, उपवास आदि का बहुत ही रोचकता से वर्णन किया गया है। बीच-बीच में ऐसे मजेदार किस्से तथ्यों के साथ इस पुस्तक में दर्ज हैं जिन्हें उस ज़माने की तस्वीरों के साथ प्रकाशित कर पाठकों के लिए उपलब्ध कराया है।

हिन्दुस्तान लौटने के बाद गाँधी ने सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की। जब वहाँ एक अछूत परिवार आ गया तो आश्रम को कुछ व्यापारियों ने धन मुहैया कराना बंद कर दिया। लेकिन गुमनाम दानदाताओं से पैसा आता रहा। आश्रम में ज्यादातर लोगों ने उस अछूत परिवार का विरोध किया। यहाँ तक कि कस्तूरबा भी आश्रम छोड़ने की धमकी देने लगी थीं। बाद में गाँधी के किशोर बेटों रामदास और देवदास ने उन्हें मना लिया। लेखक लिखते हैं,‘समय गुज़रने के साथ कस्तूरबा को इस परिवार से इतना लगाव हो गया कि उन्होंने लक्ष्मी को अपनी बेटी के रुप में गोद लेने के लिए गाँधी से इजाज़त माँगी, क्योंकि उनकी अपनी कोई बेटी नहीं थी।’

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प्रमोद कपूर की पुस्तक ‘गाँधी’ में पटेल और गाँधी के प्रगाढ़ रिश्ते पर भी चर्चा की गई है। दोनों में दोस्ती होने पर पटेल यूरोपीय सूट छोड़कर धोती-कुर्ता पहनने लगे थे। जेल में पटेल गाँधी के लिए शहद और नींबू का शर्बत तैयार करते थे और फल भी काटते थे। नीम के डण्ठल का इंतज़ाम भी करते ताकि गाँधी अपने दाँत साफ़ कर सकें। उनके कहने पर पटेल कताई और संस्कृत सीखने लगे थे। यरवदा जेल में गाँधी के साथ पटेल ने लिफ़ाफ़े भी बनाये।

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कुछ ऐसे किस्से और चित्र हैं इस पुस्तक में प्रकाशित किए गये हैं जो शायद ही आपको अन्यत्र मिलें। गाँधी का जब एक अस्पताल में ऑपरेशन किया जा रहा था तो बिजली चली गयी तब डॉक्टरों ने लालटेन की रोशनी में सर्जरी की। अपने से 28 साल छोटे सुभाष चन्द्र बोस को उन्होंने एक खत के जरिए आहार सम्बंधी योजना बतायी थी जिसमें उन्होंने एक काबिल वैद की तरह अच्छे स्वास्थ्य के लिए अहम जानकारियां दी थीं। इस आहार योजना को आप इस पुस्तक में जान सकते हैं।

गाँधी पाँच बार नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिए नामांकित हुए और तीन बार पुरस्कार की अंतिम सूची में उनका नाम शामिल हुआ। पहली बार वे 1937 में नामांकित और सूचिबद्ध किए गए। 1938 और 1939 में वे नामांकित हुए, लेकिन सूचीबद्ध नहीं किए गए। उनका अगला नामांकन 1947 में हुआ और अन्तिम, उनकी मृत्यु के दो दिन पहले, 1948 में हुए नामांकन के बाद उनका नाम फिर सूची में शामिल हुआ। 1948 में पुरस्कार का फैसला होने से पहले ही उनकी हत्या कर दी गई। उस साल शांति पुरस्कार किसी को नहीं दिया गया, क्योंकि समिति को ‘कोई काबिल जीवित प्रत्याशी’ नहीं मिल सका।

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लेखक ने पुस्तक में उन स्त्रियों का वर्णन भी किया है जिन्होंने गाँधी का अनुसरण किया। उनमें अंग्रेज एडमिरल की बेटी मैडलिन स्लेड भी थीं जिन्हें गाँधी अपनी बेटी कहते थे। मैडलिन का नाम बदलकर उन्होंने मीराबेन रख दिया था। गाँधी से कटुता के बाद वे हिमालय की तराई में जाकर बस गईं लेकिन बापू के प्रति उनकी अगाध श्रद्धा कायम रही। एक अमेरिकी महिला नीला क्रेम कुक का जिक्र करते हुए लेखक प्रमोद कपूर लिखते हैं कि आश्रमवासी उन्हें नीला नागिनी कहकर पुकारते थे। वे गाँधी के संपर्क में आने के बाद उनके आश्रम पहुँची, लेकिन कुछ समय बिताने के बाद वहाँ से वृन्दावन निकल गईं। अमेरिका निर्वासित किए जाने के बाद उन्होंने इस्लाम कबूल किया और कुरान का अनुवाद किया। बाद में वे ईरानियन बैले एंड ऑपेरा की डायरेक्टर भी बनीं। इसी तरह सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृता कौर, मनु गाँधी, आभा गाँधी, एस्थर फेएरिंग, सुशीला नय्यर, सोन्या श्लेजिन, सचेता कृपलानी, मिली ग्राहक पोलाक आदि महिलाओं की चर्चा की गई है।

प्रमोद कपूर ने एक पुस्तक में लिखते है,‘जैसे ही गाँधी का प्रभाव बढ़ना शुरु हुआ, वैसे ही सारी स्थिति बदल गई। जिन्ना में कटूता आ गई और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। जब उनके और कांग्रेस के नेताओं के बीच मतभेद खुलकर सामने आ गए, तो जिन्ना इंग्लैंड में रहने लगे। उन्होंने लुई फ़िशर से कहा था,‘गाँधी आज़ादी नहीं चाहते... नेहरु नहीं चाहते कि अंग्रेज़ जाएँ। वे एक हिन्दू राज चाहते हैं।’

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पाकिस्तान को 55 करोड़ की राशि भेजने की खबर जब सुर्खियाँ बनी तो ‘मराठी अखबार हिन्दू राष्ट्र के प्रकाशन से जुड़े कट्टर हिन्दुओं के एक समूह ने गाँधी से छुटकारा पाने का निश्चय कर लिया।’ प्रमोद कपूर लिखते हैं कि एक षड़यन्त्र के तहत 20 जनवरी 1948 को गाँधी की हत्या की पहली नाकाम कोशिश हुई। योजना के मुताबिक बम फेंके जाते और दहशत फैलाकर गाँधी को करीब से गोली मार दी जाती। पाकिस्तान से आए मदन लाल पाहवा नामक शरणार्थी ने बम फेंका और उसे गिरफ्तार किया गया। जब उससे पूछताछ की गई तो उसने स्वीकारा,‘वो फिर आएंगे।’ और वे आए। इस बार 30 जनवरी को, जब नाथूराम गोडसे ने एकदम करीब से गोलियाँ दागकर गाँधी की हत्या कर दी।

प्रमोद कपूर की यह किताब हमें मोहनदास करमचन्द गाँधी के जीवन की कहानी बेहतरीन चित्रों के माध्यम से बताती है। गाँधी पर आयी अबतक की किताबों में यह सबसे ख़ास और अलग है।

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