‘हम, तुम और वो ट्रक’ एक रोचक दस्‍तावेज़ है

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यह उपन्‍यास बार-बार आगाह करता है कि मानवीय सन्दर्भों में करेक्‍ट होना अधिक महत्‍वपूर्ण है...
इस एक लंबी कहानी या स्‍मृतियों के आख्‍यान को, जिसे प्रचलन में ’लघु-उपन्‍यास’ कहा जाता है, यदि मैं न पढ़ता, तो शायद इस बहुत महत्‍वपूर्ण तथ्‍य या ’सच’ तक न पहुंच पाता कि किसी साधारण व्‍यक्ति की निज़ी स्‍मृतियां भी किस हद तक ’राजनीतिक’ हो सकती हैं और अत्‍यंत सहज, परोक्ष तथा समूचे सतह और अपनी आंतरिक बुनावट में बिल्‍कुल ’अ-राजनीतिक’ दिखाई देते छोटे-छोटे विवरण भी, किस तरह किसी बहुत महत्‍वपूर्ण ’ऐतिहासिक’ परिवर्तन या विचलन का संकेत अचानक देने लगते हैं।

अगर 2012 में नोबेल पुरस्‍कार से सम्‍मानित चीनी लेखक मो यान का बहुत कम पृष्‍ठों वाला यह लघु-उपन्‍यास पढ़ने में मुझे उससे ज्‍़यादा वक्‍़त लगा, जितना आमतौर पर लगता है, तो उसका मुख्‍य कारण था, इसे पढ़ते हुए स्‍वयं अपनी ही नितांत निज़ी स्‍मृतियों के अनदेखे तहख़ानों में छुपे अपने ही परिवेश के अगोचर ’इतिहास’ का, एक के बाद एक, किसी श्रंखला की तरह क्रमश: उजागर होते जाना। इसे पढ़ते हुए लगातार अपनी ही उन स्‍मृतियों का सामना करना पड़ा जो मो यान के इस आत्‍मवृतात्‍मक किस्‍से में है। 1969 से लेकर 1979 और फिर 1989 से लेकर 2009 तथा उसके बाद की यह काल-रेखा(टाइम लाइन) अकेले चीन की ही नहीं रह जाती, वह हमारे देश के गांव-देहातों से लेकर कस्‍बों और महानगरों में आए बदलावों की भी कहानी बन जाती है। अंतरराष्‍ट्रीय राजनीतिक संबंधों के जाने-माने विद्वान और जेएनयू के प्रोफेसर पुष्‍पेश पंत का यह अनुवाद भर नहीं रह जाता बल्कि उससे दूर बढ़कर यह दो देशों -चीन और भारत के समानांतर इतिहास का समकालीन रूपक बन जाता है। एक ऐसा रूपक, जिसके अर्थ बहुत गहरे और व्‍यापक हैं। नेहरू, माओ, चाऊ एन लाई, टीटो, सुकर्णों, कमाल नासिर के ज़माने से निकलते हुए यह देंश शिआओ पेंग और आज के चीन के बनने का वह आख्‍यान है, जिसे पढ़ते हुए लगातार लगता है हर तरह की सत्‍ताएं अपने मूल में लगभग एक जैसी होती हैं।

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यह उपन्‍यास बार-बार आगाह करता है कि मानवीय सन्दर्भों में करेक्‍ट होना अधिक महत्‍वपूर्ण है, बजाय किसी समय की राजनीति के संदर्भ में। 

इस छोटे से उपन्‍यास में कई ऐसे पात्र हैं, जो देर तक पाठक के साथ रह जाते हैं। हे जीवू और लू वेनली या स्‍वयं कथावाचक जैसे पात्र हमें अपने परिचित चरित्रों की भरपूर याद दिलाते हैं, प्‍यार, छल, भ्रम, प्रेग्‍मेटि्ज्‍़म, धोखे और महत्‍वाकांक्षाओं से भरे तो दूसरी ओर मशीन-युग के पुराने ट्रक को अब भी ‘जुगाड़’ से चलाने वाला ट्रक का ड्राइवर और खुद उसका ट्रक भी। यह ट्रक भी तो एक केंद्रीय चरित्र ही है।

इतिहास के इस ‘कॉमिक’ या ‘हास्‍य’ का यह लघु-उपन्‍यास एक रोचक दस्‍तावेज़ है। ... और कम महत्‍वपूर्ण नहीं है कि यह उसी देश के साहित्‍य में आया है, जिससे फिलहाल राजनयिक स्‍तर पर हम प्रतिद्वंदिता और संदेह के रिश्‍तों से गुज़र रहे हैं।

-उदय प्रकाश.

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