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वेदों-उपनिषदों में जो उल्लेख है वह ईश्वर, ब्रह्माण्ड, जीवन-मरण तथा लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की तलाश की कोशिश थी. |
लेखक ने वैसे तो उपनिषदों की संख्या 223 तक बतायी है तथा गीता प्रेस गोरखपुर का हवाला देकर उन्हें दो सौ बताया है लेकिन मुख्य रुप से वे चार उपनिषदों पर ही अपना लेखन केन्द्रित करते हैं। उनका मानना भी है तथा वे वैदिक ग्रंथों के सूक्तों तथा श्लोकों आदि के उदाहरण देकर उनमें व्याप्त आपसी मतभिन्नता के प्रमाण भी देते हैं। इस सबके बावजूद वे इन सभी ग्रंथों के सार तत्व को एक ही मानकर चलते हैं।
पुस्तक का अध्ययन करने पर पता चलता है कि वेदों और उपनिषदों में तत्कालीन ऋषि मुनियों ने जो उल्लेख किया है वह ईश्वर, ब्रह्माण्ड, जीवन-मरण तथा लौकिक और पारलौकिक ज्ञान की तलाश की कोशिश थी। यानी ब्रह्मज्ञान की कोई भी संपूर्ण जानकारी न तब थी और न आज तक है। लेखक ने स्वयं भी यही निष्कर्ष निकाला है तथा पृष्ठ 32 पर लिखा है कि ‘उपनिषदे ब्रह्मज्ञान की गारंटी नहीं है।’

लेखक के अनुसार बृहदारण्यकोपनिषद शतपथ ब्राह्मण का अंतिम अध्याय है। इसमें सृष्टि रचना के बारे में कहा गया है। लिखा है -‘पहले केवल आत्मा था, वह अकेला था-अहमस्मि। वह भयभीत हुआ। उसने चारों ओर देखा, दूसरा कोई नहीं था। तो डर कैसा? वह निर्भय हो गया।’ अकेले को रमण सुख नहीं था। अकेले को आनंद नहीं था। तो एक और भी होना चाहिए। उदाहरण के लिए जैसे स्त्री-पुरुष संयुक्त होकर आनंदित होते हैं, वैसी ही इच्छा हुई। उसने स्वयं को पति-पत्नी के रुप में विभाजित कर लिया। वह एक से दो हो गया। आत्मा द्वारा यहां शरीर धारण का उल्लेख नहीं है।
पुस्तक में लेखक का कथन है कि उपनिषद अध्ययन का अपना रस है। वही रस, आनंद बाँटने, मित्रों को इस ओर प्रेरित करने के प्रयोजन से ऐसी पुस्तिका की योजना लेखक के मन में थी।
लेखक कहते हैं -‘ज्ञान का ज्ञान’ शब्दों से नहीं मिला लेकिन शब्द ही सहारा है। शब्द मार्ग संकेत है। उपनिषदों के शब्द संकेत जिज्ञासा को तीव्र करते हैं -छुरे की धार की तरह। सो मैंने अपनी समझ बढ़ाने के लिए ईशावास्योपनिषद्, कठोपनिषद्, प्रश्नोपनिषद् व माण्डूक्योपनिषद् के प्रत्येक मन्त्र का अपना भाष्य लिखा है। उपनिषद् ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं। विश्व दर्शन पर उनका प्रभाव पड़ा है। भारत को समझने का लक्ष्य लेकर यहाँ आये विदेशी विद्वानों को भी उपनिषदों से प्यार हुआ है।

संसार दुःखमय ही नहीं है। सुख और दुःख मानसिक स्थितियाँ हैं। बुढ़ापे को दुःख कहा गया है और मृत्यु को भी। बुढ़ापा हमारी वृद्धि का चरम है।

जीवन में प्रकटतः द्वैत है, सब तरफ ‘दो’ हैं। शुभ और अशुभ हैं। दिन और रात हैं। अच्छा और बुरा हैं। जीवन और मृत्यु हैं। व्यक्त और अव्यक्त हैं। ईश्वर और मनुष्य हैं। आत्मा और परमात्मा हैं। इसी तरह ज्ञान और कर्म या सांख्य और योग हैं। जीवन का गठन एकाकी नहीं है। दोनों मिलकर एक हैं।


जो लोग चारों वेद, सभी ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों आदि का अध्ययन करने का समय नहीं निकाल पाते तथा इस विराट आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक साहित्य की जानकारी चाहते हैं उनके लिए हृदयनारायण दीक्षित की पुस्तक ‘ज्ञान का ज्ञान’ बहुउपयोगी है। वे थोड़ा पढ़कर, कम समय खर्च कर बहुमूल्य सामग्री में अथाह ज्ञान का सार प्राप्त कर सकते हैं। वैदिक ग्रंथों की पड़ताल की यह अमूल्य निधि है जिसे पढ़कर पाठक लाभान्वित होंगे।