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नैतिकता के उच्च मानदण्डों की आड़ में स्वार्थसिद्धि या अपने-अपने राजनीतिक स्वामी की स्वार्थसिद्धि का खेल.. |
कम्युनिस्टों को आपसी बहस आदि में राष्ट्रवादी शब्द अपमानजनक लगता रहा है, वो लोग राष्ट्रवाद को दोष देते हैं या कालान्तर में उन्होंने राष्ट्रवाद को साम्प्रदायिकता से जोड़ दिया है। उनके आका मार्क्स भी मानते हैं कि मज़दूरों का कोई देश नहीं होता और जब देश ही नहीं होता तो देशभक्ति या राष्ट्रभक्ति उनके लिए छद्म या छलावा है। कम्युनिस्ट हमेशा से भारत को देश नहीं बल्कि कई राष्ट्रीयताओं का झुण्ड मानते रहे हैं।...राष्ट्रवाद भारत की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाली कांग्रेस पार्टी के खाते में था लेकिन वामपंथियों के प्रभाव में धीरे-धीरे उन्होंने राष्ट्रवाद को प्लेट में सजाकर भारतीय जनता पार्टी को सौंप दिया।
लेखक ने साहित्य, इतिहास तथा राजनीतिक पुस्तकों के विस्तृत अध्ययन से उपलब्ध तथ्यों का हवाला देकर पाठकों के सामने अपनी बात मजबूती से रखने की कोशिश की है। उन्होंने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करने वाले बुद्धिजीवियों की कटु आलोचना की है। इसके लिए उन्हें कई तरह के उदाहरण भी दिए हैं जिनसे कई चीज़ें साबित होती हैं।
अनंत विजय को मुस्लिम कट्टरवाद से सख्त नफ़रत है जबकि वे इस्लाम की उदारवादी सोच के कायल हैं। लेखक मार्क्सवाद की चर्चा के साथ ही मुस्लिम आतंकवाद और उसके कथित पैरोकारों की आलोचना पर उतर आते हैं। उन्होंने धार्मिक कट्टरता को आतंकवाद की नर्सरी करार देते हुए उसे रोकने का दायित्व इस्लामी बुद्धिजीवियों के सिर मंढते हुए लिखा है,''इस्लामिक बुद्धिजीवियों पर ज़िम्मेदारी ज़्यादा है। उनको धर्म की आड़ में कट्टरता को पनपने से रोकने के लिए धर्म की गलत व्याख्या पर प्रहार करना होगा। धर्म के ठेकेदारों के खिलाफ बोलना शुरु करना होगा। जब मानवता और इन्सानियत की आती है तो फिर वो मामला किसी का भी आन्तरिक नहीं रह जाता है क्योंकि आतंक की तबाही न तो धर्म देखती है और न ही रंग वो तो सिर्फ जान लेती है।''

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पुस्तक पढ़ने से पाठक को स्वत: ही ज्ञान हो जाएगा कि लेखक अनंत विजय ने बिन्दुवार जिस तरह से विभिन्न पहलुओं पर चर्चा की है वह बिना गंभीर अध्ययन के संभव ही नहीं। पुस्तक वामपंथी और गैर-वामपंथी सभी के लिए पठनीय है।
'मार्क्सवाद का अर्धसत्य' का अंश पढ़ें :
कार्ल मार्क्स और 'मार्क्सवाद' -ये दो शब्द ऐसे हैं जो भारत में बुद्धिजीवियों के एक बड़े तबके को बहुत लुभाते हैं। इन दो शब्दों के रोमांटिसिज़्म में वो इसके आकलन में वस्तुनिष्ठ नहीं हो पाते हैं। तमाम धाराओं को इन दो शब्दों की धारा में बहाने का दुराग्रह करते चलते हैं। आलोचना से लेकर रचना तक की कसौटी का मूल आधार यही दो शब्द रहते हैं।

मार्क्सवादी बहुधा धर्म को अफ़ीम कहते और प्रचारित करते हैं। यह लाइन इसके अनुयायियों को बहुत भाती है। वो लगातार इसका प्रचार करते हैं और इस लाइन के आधार पर धर्म को भला-बुरा कहते चलते हैं। धर्म को अफ़ीम मानने वाले यह भूल जाते हैं कि धर्म लोगों को एक मर्यादा में रहना भी सिखाता है। मार्क्सवाद की जो अवधारणा है वो पूंजीवाद का निषेध करती है लेकिन परोक्ष रुप से पूरी तौर पर भौतिकतावाद की वकालत करती है। वहां परिवार, सामाजिक बन्धन या मान्यता नाम की चीज़ें अमान्य हैं।
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरा बताते हुए जिस तरह से करीब दो दर्जन लेखकों ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटाया था उसको देखकर लेनिन के शब्द उधार लेकर कहा जा सकता है कि पुरस्कार वापसी के ये लेखक भी इन्फैण्टाइल डिसऑर्डर के शिकार थे। अब अगर हम प्रतिपक्ष के सौद्धान्तिक पक्ष को परखते हैं तो यह साफ तौर पर उभरता है कि वो देश, काल और परिस्थिति के हिसाब से अपना पक्ष बदलते रहे हैं। आज जिन लोगों को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर ख़तरा नज़र आ रहा है उनमें से ज़्यादातर लोग इमरजेंसी के दौर में लिख रहे थे।
अपनी इस किताब में मैंने मार्क्सवाद को एक सिद्धान्त के तौर पर परखने की बिल्कुल कोशिश नहीं की है, बल्कि इस वाद के बौद्धिक अनुयायियों और भक्तों के क्रियाकलापों को सामने रखने का प्रयत्न है। पिछले एक दशक और खास तौर पर 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद इतनी घटनायें घटीं और मार्क्सवादियों ने जिस तरह से उन घटनाओं पर प्रतिक्रियायें दीं, जिस तरह से उन घटनाओं को तूल देकर राजनीति के अखाड़े में ताल ठोकी उसने उनकी मंशा साफ़ कर दी। साहित्यिक मसलों की आड़ में जमकर राजनीति हुई। नैतिकता के उच्च मानदण्डों की आड़ में स्वार्थसिद्धि या अपने-अपने राजनीतिक स्वामी की स्वार्थसिद्धि का खेल खेला गया। मैंने इस पुस्तक में मार्क्सवादियों के बारे में कोई ठोस निष्कर्ष भी पेश नहीं किया है बल्कि उन घटनाओं को पाठकों के सामने रख दिया है ताकि वो अपने विवेक से इस बारे में निर्णय ले सकें।