इंद्र : देवलोक का विवादित चरित्र

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वर्तमान काल के इंद्र का नाम पुरंदर है और वह महर्षि कश्यप और अदिति के बारह पुत्रों में से एक है.
हम आशुतोष गर्ग के द्वारा अनुवाद की पुस्तकें पढ़ते हैं तो अच्छा महसूस होता है। उनके पास अपनी एक लय है, एक सरलता है। अनुवाद के बाद वह पुस्तक उनकी खुद की लिखी पुस्तक होती है। आशुतोष का पहला हिन्दी उपन्यास 'अश्वत्थामा : महाभारत का शापित योद्धा' जब आया तो उन्होंने ऐसे पात्र को लिया जिस पर इस तरह लिखा गया। वास्तव में अश्वत्थामा की कथा को बेहद दिलचस्प अंदाज़ में उन्होंने प्रस्तुत किया। पाठकों ने उनकी यह पुस्तक खूब पसंद की है। अब आशुतोष ने दूसरी पुस्तक 'इंद्र' रची है जिसमें अलग ही तरह का रोमांच, हर अध्याय में उत्सुकता और रोचकता है।

'इंद्र : देवलोक के वर्तमान राजा पुरंदर की गाथा' का प्रकाशन मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने किया है। किताब का आवरण देखने लायक है। बहुत ही सुन्दरता से इसे संध्या प्रभात ने तैयार किया है जो विश्व की जानीमानी डूडल डिजाइनर हैं। मंजुल प्रकाशन से आयी इस साल कई किताबों के कवर संध्या ने ही तैयार किए हैं, जिनमें प्रेमचंद की 'गोदान' और 'गबन' को नए रुप में पाकर खुशी मिलती है।

पुरंदर के पास जो कुछ है, उसका निर्माण उसने स्वयं नहीं किया है। वह देवताओं का राजा तथा देवलोक का स्वामी है। इस नाते उसके पास जो धन, वैभव और संपत्ति है, वह सब उसे अपने पूर्ववर्तियों से प्राप्त हुआ है।
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पौराणिक कथायें आध्यात्मिक कथा-लोक की सर्वाधिक मनोरंजक और शिक्षाप्रद काल्पनिक रचनायें हैं। आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी उन पर भरोसा करने वालों की भारी संख्या है। पौराणिक कथाओं के मूल ढांचे को छेड़े बिना कई लेखकों ने इन्हें अपने शब्दों में अपने ढंग से परिभाषित करने की कोशिश की। इस तरह के लेखन को आधुनिक प्रगतिशील युग में पाठकों द्वारा पसंद किया गया है जिसका सबूत ऐसी पुस्तकों की बढ़ती बिक्री है।

पौराणिक कथाओं को नए तथा प्रभावशाली रुप में पाठकों के सामने रखने में आशुतोष गर्ग सफल हुए हैं। उनकी पुस्तक 'इंद्र' पहले पन्ने से अंतिम पन्ने तक इतनी रोचक है कि आप उत्सुकता से पढ़ते रहेंगे। यह सब इसलिए भी है क्योंकि उनका लिखने का अंदाज़ बेहद रोचक है। जब पाठक को उस अंदाज़ से जुड़ाव का अहसास होने लगता है तो वह मुरीद होने लगता है। ऐसे बहुत पाठक आशुतोष गर्ग को पूरी तल्लीनता से पढ़ते हैं। यही वजह है कि उनकी यह दूसरी किताब भी आते ही चर्चित हो गयी।

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आशुतोष कहते हैं कि बहुत-से लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि इंद्र, देवताओं के राजा का नाम नहीं है। इंद्र किसी पात्र का नाम नहीं है। वास्तव में इंद्र एक पदवी, एक उपाधि है। यह उस व्यक्ति का पदनाम है, जिस पर देवताओं की नगरी देवलोक पर शासन करने का दायित्व है। सरल शब्दों में, देवलोक के राज-सिंहासन पर बैठने और देवताओं का राजा कहलाए जाने वाले व्यक्ति को 'इंद्र' कहते हैं।

लेखक ने बताया है कि वर्तमान काल के इंद्र का नाम पुरंदर है और वह महर्षि कश्यप और अदिति के बारह पुत्रों में से एक है। आशुतोष ने हर कथा में उसे पुरंदर के नाम से ही पुकारा है। वर्तमान काल का इंद्र देवलोक की राजधानी अमरावती में रहता है।

यह दुख की बात है कि पुरंदर के असीम बल, ज़बरदस्त युद्ध-कौशल तथा बी​ती उपलब्धियों के बावजूद, उसका चरित्र, अहंकारी और कामुक राजा के रुप में उभरा है। वह निस्संदेह देवलोक का स्वामी और देवताओं का राजा है किंतु दुर्भाग्य से, उसे देवताओं और मनुष्यों से वांछनीय सम्मान और विश्वास प्राप्त नहीं हुआ।
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देवलोक जब से अस्तित्व में है तब से कई लोग इंद्र के आसन पर बैठ चुके हैं। भगवान ब्रह्मा जब निंद्रा से जागते हैं तो वह एक नए ब्रह्मांड की रचना करते हैं तथा जब उनकी रात होती है तो समस्त सृष्टि का नाश हो जाता है।

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इस पुस्तक में लेखक ने इंद्र अर्थात् पुरंदर से जुड़ी अनेक कथाओं का सिलसिलेवार बहुत ही मनोरंजक भाषा में वर्णन किया है। पुस्तक में इन कथाओं या घटनाओं को पढ़ने से देवताओं के राजा इंद्र के चरित्र का पता चलता है। वैसे तो कथाओं में इंद्र अवगुणों से भरा देवता है, लेकिन वह काम वासनाओं से भरा, बेहद अय्याश किस्म का चरित्र भी है। वह घबरा भी बहुत जल्दी जाता है, माफी मांगने की कला भी उसे बखूबी आती है। पुरंदर को जब लगता है सब कुछ ठीक है तो वह अपनी ताकत को रोक नहीं पाता। वह मानो खुद को सबकुछ मान बैठता है। वह दंभ से भर जाता है। उसमें नयी शक्ति आ जाती है। पुरंदर दूसरों से ईर्ष्या भी बहुत तेजी से करने लगता है। उसे अपने किए पर पछतावा भी होता है। मगर मौका मिलते ही वह अपनी चाल बदल लेता है। पुरंदर देवलोक का विवादित चरित्र है जिसे हम दिलचस्पी के साथ किताब में पढ़ते हैं।

ऐसा नहीं कि पुरंदर ने सभी काम बुरे किए हैं। उसने देवताओं का राजा होने के नाते अपना फर्ज़ भी निभाया है। अपने बज्र का उपयोग कर पुरंदर असुरों और दैत्यों का संहार भी करता है। समस्याग्रस्त लोगों की मदद के लिए वह आगे आया। कई बार अनियंत्रित क्रोध तथा अत्यधिक अहंकार-भरे क्षणों में महिर्षयों का अपमान भी कर बैठा, इंद्रासन बचाने के लिए भक्त प्रह्लाद तक को ठगने से पीछे नहीं हटा, अपने गुरुओं की हत्या की और न जाने क्या-क्या।

आशुतोष गर्ग की पुस्तक 'इंद्र' को पढ़ना किसी शानदार अनुभव से कम नहीं है। अब उनकी अगली किताब का इंतज़ार पाठकों को है।
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