हिन्दू होने का अर्थ : हिन्दुत्व और उसके अर्थ का व्यक्तिपरक चिंतन

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हिन्दू धर्म के अनुसार सत्य के सभी खोजियों का गन्तव्य एक ही है.
'मैं हिन्दू क्यों हूँ और क्या ईश्वर का मेरे लिए कोई मायने है, मुझसे कभी दूर नहीं हुए। मैंने यह जानने की कोशिश कभी बन्द नहीं की और इन्हीं सवालों के जवाब पाने की कोशिश ने मुझे यह पुस्तक लिखने के लिए प्रेरित किया।' लेखक हिन्दोल सेनगुप्ता ने हिन्दू धर्म पर चिंतन किया है तथा उसकी बेहतरीन व्याख्या की है। पुस्तक का प्रकाशन मंजुल पब्लिशिंग हाउस ने किया है।

'हिन्दू होने का अर्थ' पुस्तक के लेखक ने मैनहटन की घटना से पहले अध्याय की शुरुआत की है जहाँ उनसे एक बुजुर्ग व्यक्ति ने हिन्दुओं के नर्तक देवता के बारे में पूछा था। हिन्दोल लिखते हैं कि इस किताब के चिन्तन के सालों के दौरान वे हिन्दुत्व के अनेक कौतूहलपूर्ण विश्वासों से सम्मोहित रहे हैं जिनमें कुछ हास्यास्पद हैं और कुछ विलक्षण हैं।

हिन्दू मानस समस्त वस्तुओं में अन्तर्निहित अखण्ड एकत्व देखता है और इसलिए रेशों और एक से दूसरे को अलगाने की कोशिश नहीं करता, बल्कि एकत्व में आनन्द लेता है।
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डी.आर. भण्डारकर के व्याख्यानों का उदाहरण देते हुए पुस्तक में लिखा गया है कि प्रागैतिहास के अनुसन्धान में वे इस बात की ओर संकेत करते हैं कि किस तरह युग-चेतना को पकड़ने की कोशिश करने वालों द्वारा रचे गये ग्रन्थों, रामायण और महाभारत ​में मिलने वाले सन्दर्भ अनेक ऐतिहासिक तथ्यों की पुष्टि करते हैं। डायना ऐक के हवाले से लिखा है कि हिन्दुओं के मिथकीय ग्रन्थों में न सिर्फ देश के भूगोल की बहुत प्रमुखता से व्याख्या की गई है बल्कि इसके विपरीत इन ग्रन्थों में हिन्दू मिथक भारत के भौगोलिक स्थलों में निरन्तर स्थित रहे हैं।

हिन्दोल सेनगुप्ता महात्मा गांधी का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि जगत का एक भ्रम के रुप में, 'माया' के रुप में, विचार और आत्मा के भीतर और आत्मा के बाहर एक एकीकृत रुप में 'सत्य' का विचार एक हिन्दू द्वारा संसार को देखने के ढंग के सन्दर्भ में एक मौलिक विचार है।

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लेखक ने ​ईसाइयों और मुस्लिमों के साथ धार्मिक चर्चायें भी की हैं। उन्होंने दुनियाभर के गिरजाघरों आदि में प्रार्थनायें की हैं। सूफी रहस्यवादी कविताओं से वे खासे प्रभावित हैं। लेखक ने हमें बताने की कोशिश की है कि वह क्या चीज़ है जिसने हिन्दुत्व को हज़ारों सालों तक अखण्ड रखा है और उसे एक जीवित सभ्यता का धारक बनाए रखा। जबकि दूसरी कई सभ्यतायें जैसे -मिस्र, यूनीनी और रोमन तबाह हो गयीं।

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इसके लिए उन्होंने बंकिमचन्द्र चटर्जी के हवाले से कहा है कि हिन्दू के लिए ईश्वर के साथ उसका सम्बन्ध और मनुष्य के साथ उसका सम्बन्ध, उसका आध्यात्मिक जीवन और उसका सांसारिक जीवन इस तरह भेदपरक नहीं हो सकते। उसके जीवन के ये दोनों हिस्से एक सुगठित और सामंजस्यपूर्ण समग्र की रचना करते हैं, जिनको घटकों में अलग करना उसके समूचे तानेबाने को तोड़ देना है।

हिन्दू धर्म के मौलिक चिन्तन की महान विरासत का सच्चा सम्मान हम तभी कर पाएँगे जब हम इस बात को समझेंगे कि हर युग में प्रकट होने कि जो बात भगवदगीता में कही गई है वह अपने भीतर पुनर्जन्म लेना है। हम ही हैं जिनकी हमें प्रतीक्षा है। किसी मसीहा कि प्रतीक्षा हिन्दू दर्शन की मूल भावना के ख़िलाफ़ जाती है। 
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ईश्वर की वाणी ह्रदय में अंकित सत्य की वाणी है जो सारे निरूपणों को अतिक्रान्त करती है।
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लेखक ने माइकेल डैनिनो के कथा का जिक्र करते हुए लिखा है कि हिन्दुओं के लिए सत्य असमाप्य है। रहस्योद्घाटनों का अन्त नहीं हो सकता। कोई एकमात्र बच्चा नहीं, कोई अनितम पैगम्बर नहीं। किसी भारतीय गुरु ने कभी नहीं कहा कि उसका सन्देश अन्तिम है और उसके परे कुछ नहीं हो सकता। हर कोई नई शिक्षा की शुरुआत करने के लिए, संसार को एक नया सन्देश देने के लिए और चिन्तन का एक नया सम्प्रदाय स्थापित करने के लिए स्वतन्त्र है।

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इस पुस्तक में लेखक हिन्दोल सेनगुप्ता स्पष्ट करते हैं कि हिन्दू धर्म के अनुसार सत्य के सभी खोजियों का गन्तव्य एक ही है। हिन्दुत्व या सनातन धर्म ईसा और बुद्ध दोनों को ही दिव्य अवतारों के रुप में स्वीकार करता है। लेखक यह भी कहते हैं कि कोई काफिर और विधर्मी नहीं।

हिन्दू धर्म एक ऐसी दुनिया की वकालत करता है जिसमें पारस्परिक सम्मान हो, जिसमें कोई भी यह न सोचे कि उसका मार्ग 'दूसरों के' मार्ग से महान है। 
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हिन्दुओं के लिए मूर्ति वह चीज़ नहीं है जहाँ आपकी दृष्टि रुक जाती हो, बल्कि वह वह लैंस हैं जिसके रास्ते आपकी दृष्टि दिशा पाती है।
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किताब कहती है कि हिन्दू धर्म एक ऐसी दुनिया की वकालत करता है जिसमें पारस्परिक सम्मान हो, जिसमें कोई भी यह न सोचे कि उसका मार्ग 'दूसरों के' मार्ग से महान है। इसका यह भी अर्थ है कि हिन्दू इस बात को समझता है कि सच्ची शांति हासिल करने के लिए यह पारस्परिक सम्मान एक प्रस्थान-बिन्दु होना चाहिए।

अंतिम अध्याय में हिन्दोल सेनगुप्ता साफ कहते हैं कि अपने धर्म को समझने के इच्छुक किसी भी हिन्दू को इसके मर्म की ओर, इसके फ़लसफ़ों की ओर रुख़ करना चाहिए इसके पछतावों की ओर नहीं। यह हिन्दुत्व की उदारमनस्कता है जिस पर एक सच्ची हिन्दू अस्मिता निर्मित की जा सकती है।

हिन्दुत्व और उसके अर्थ का हिन्दोल सेनगुप्ता ने बेहतरीन ढंग से व्यक्तिपरक चिंतन किया है। इसमें वे सफल भी हुए हैं।


हिन्दू धर्म क्या है और हिन्दू होने का क्या अर्थ है, इस पर हिन्दोल सेनगुप्ता का विमर्श विचारोत्तेजक है। इस बहुस्तरीय, विस्मयकारी ढंग से जटिल आस्था-पद्धति को जो अन्तत: हमारे वास्तविक आत्म का अन्वेषण है, यह पुस्तक एक वैश्विक आयाम देती है। साथ ही, यह उन चुनौतियों को सामने रखने से भी परहेज़ नहीं करती जो आधुनिकता इस प्राचीन संस्कृति के समक्ष उछालती रही है।
~माइकल डेनिनो (भारतविद्, प्रोफ़ेसर, आईआईटी गाँधीनगर)

तत्कालीन कलकत्ता के असेम्बली ऑफ़ गॉड चर्च स्कूल के एक जिज्ञासु छात्र से लेकर हिन्दुत्व की भूमिका तक एक लम्बी यात्रा है। उनका तर्क है कि इस्लाम और ईसाइयत के बीच का टकराव और एशिया का उदय एक अर्थ में आपस में जुड़े हुए हैं और आपसी संघर्षों से भरी हुई इस दुनिया में हिन्दू लोगों को बहुलतावाद को अंगीकार करने के लिए प्रेरित करने की महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
~डॉ. आर. वैद्यनाथन (प्रोफ़ेसर ऑफ़ फ़ायनेंस, आईआईएम बेंगलुरु)

यह पुस्तक समकालीन हिन्दू की चुनौतियों को एक ऐसी दुनिया में स्पष्ट करती है, जो सुदृढ़ सेक्युलर आधुनिकता और उभरते हुए धार्मिक जोश के बीच दुविधा में फँसी हुई है। लेखक ने इस कृति को हिन्दू होने के अर्थ को समझने की अपनी निजि यात्रा के नतीजे के रुप में देखता है।
~एस. गुरुमूर्ति (लेखक और हिन्दुत्व तथा अर्थशास्त्र के शिक्षक)


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