ऐसी-वैसी औरत : अपने परायों से शोषित नारी की आवाज़

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आखिर कौन है यह 'ऐसी वैसी औरत'? इस सवाल का जवाब यह किताब देने की कोशिश कर रही है.
दरअसल औरत किस्मों में नहीं बंटती। औरत समाज का हिस्सा उसी तरह है जिस तरह पुरुष हैं। फिर भी हमारे समाज में 'ऐसी-वैसी औरत' है। वह हमारे बीच है, हमारे साथ चलती है, बैठती है, उठती, खाती-पीती है, वह माँ है, बेटी है, बहन है, पत्नी है। लेकिन समाज उसे 'ऐसी-वैसी औरत' भी कहता है। आखिर कौन है यह 'ऐसी वैसी औरत'? इस सवाल का जवाब यह किताब देने की कोशिश कर रही है।

अंकिता जैन की पुस्तक का नाम है 'ऐसी वैसी औरत' जिसमें दस कहानियाँ एक से बढ़कर एक हैं। हर कहानी इतना असर छोड़ती है कि लंबे समय तक जो उसमें घटा, जो आपने जिस अंदाज़ में पढ़ा, वह सब याद रहता है। एक तरह से कहा जाए कि ऐसा लगता है जैसे सब आपके सामने घट रहा है, ठीक एक ​पिक्चर की तरह जो पर्दे पर चल रही है। हम एकटक उसके हर दृश्य को देख रहे हैं, आनंद ले रहे हैं। और हाँ, हम कहानी के अंतिम पैराग्राफ को बहुत बार फिर से पढ़ने की इच्छा भी जाहिर करते हैं। कई बार तो पूरी कहानी फिर से पढ़ने का मन करता है। शब्दों की बुनाई जिस तरह घटनाओं के साथ पिरोकर अंकिता जैन करती हैं, वह अद्भुत है। यही तो कहानी पढ़ने का सुकून है। भाषा में जादूगरी कुछ नहीं होती, शब्दों का फेर है, मगर जब शब्दों को खूबसूरती से इस तरह उकेरा जाए कि मज़ा आ जाए तो वह कहानी अपनी लय नहीं खोती और पाठक उत्साहित और उत्सुक होकर उसे पढ़ता है।

'मालिन भौजी' कहानी को ही लीजिए जो किताब की पहली कहानी है। शुरुआत एक थाने से होती है। बड़ा ही अजीब माहौल है। दिमाग में उधेड़बुन है। अंकिता ने यहाँ ऐसा दृश्य उकेरा कि हम पात्रों के साथ-साथ मौजूद हैं, यानी हम लिखाई के साथ आगे बढ़ते हैं, गंभीरता से एक-एक शब्द को पढ़ते हैं। सच बात यह है कि पहली कहानी पढ़कर किताब खत्म करने तक हम नहीं ठहरते -बस पढ़ते जाते हैं क्योंकि उत्सकुता बढ़ती जाती है। ऐसा होता है और बार-बार होता है।

'मालिन भौजी' का एक अंश देखें : 'गुज़रने वाले को याद करना और उसकी याद में ज़िन्दगी अपने ही हाथों में दफ़ना देना ये दो अलग-अलग बातें हैं, जिन्हें आज भी समाज के नाम पर थू-थू करके एक कर दिया जाता है।'


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'छोड़ी हुई औरत', 'सत्तरवें साल की उड़ान' आदि कहानियाँ हमारे समाज में घट रही अच्छी-बुरी बातों को दर्शाती हैं। सभी कहानियाँ स्त्री के आसपास सिमटी हैं, लेकिन उनका दायरा बहुत बड़ा है। वे उस समाज की विस्तृत व्याख्या करती हैं जो औरत को अच्छी नज़र से नहीं देखता। आवाज़ें आ रही हैं, आती हैं -शायद नज़रिए में फ़र्क आए!

'ऐसी-वैसी औरत' अंकिता जैन की पहली हिन्दी किताब है जिसे हिन्द युग्म ने प्रकाशित किया है। पुस्तक में नारी के उपेक्षित और पीड़ित पक्ष पर दस कहानियाँ हैं। ये कहानियाँ नारी के महत्वपूर्ण लेकिन दरकिनार किए गए पक्ष की कड़वी सच्चाईयाँ हैं।

पुस्तक की भूमिका में लेखिका ने इन कहानियों को लिखने का मंतव्य स्पष्ट करते हुए अपनी बात इस प्रकार शुरु की है -'ऐसी-वैसी औरत' लिखना मेरे लिए शौक़ से ज़्यादा एक ज़रुरत थी, उन कहानियों को सामने लाने की ज़रुरत जो मुझसे जुड़े, मेरे आसपास के लोगों के जीवन में घटित तो हुईं, लेकिन उन्हें न ही कोई नाम मिला, न पहचान। वे एक बुरी कहानी, बुरा ख़्वाब बनकर दब गईं। कई जगह तो हाल इससे भी बुरा रहा।'

अंकिता के अनुसार इस किताब की कहानियों में जिन औरतों को मुख्य चरित्र में रखा गया है, वे ऐसे चरित्र हैं, जिन्हें ऐसी गन्दगी समझा जाता है, जिस पर मिट्टी डालकर उसे छुपा दिया जाता है -तब तक के लिए जब तक कि उसे साफ़ करने वाला जमादार न आ जाए।

रात के अंधेरे में ज़िन्दगी जब काली हो जाती है न बेटा, तब वो झूठ चिल्लाता है, ख़ुद को सच और सफेद बनाने के लिए, लेकिन तब कुछ हो नहीं पाता... और मैंने अपनी परछाईं को भी अलविदा कहने का मन बना लिया।
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इस पुस्तक में लेखिका ने अपने बोर्डिंग, हॉस्टल, नौकरी के दौरान साथ काम करने वाली लड़कियों, फ्लैट में साथ रहने वाली लड़कियों, दोस्त, रिश्तेदारों, काम करने वाली दाइयों और खाली समय में चौराहे पर बैठकर जिन लड़कियों व औरतों को उन्होंने आते-जाते देखा उनमें से ही इन कहानियों के पात्र लिए गए हैं।

मौजूदा सामाजिक परिवेश में ऐसी औरतों के साथ बाहरी तत्वों से लेकर करीबी नाते रिश्तेदारों द्वारा जो बरताव किया जाता है। उन्हें छला जाता है, नोचा-खसोटा जाता है, वे ताउम्र बेजुबान होकर बदनामी के डर से शोषण सहन करती हैं। इन दस कहानियों में उन्हीं की आवाज़ बुलन्द की गयी है। बदलते प्रगतिशील समाज में यह सब होना हमारे लिए विचारणीय है।

अंकिता जैन की एक किताब 2015 में आयी थी। नाम था 'द लास्ट कर्मा' जो अंग्रेज़ी में थी। उसे खूब सराहा गया था। इस साल इनकी एक ओर किताब आयी है 'मैं से मां तक' जो चर्चित हो रही है।

शब्द खत्म हो जाते हैं, कहानियाँ नहीं। अंकिता को पढ़कर हमारी सोच आगे सोचने पर मजबूर होती है। दिमाग आगे की कहानी बुनने लगता है। यानी वह कल्पनाओं के सागर में चला जाता है खुद की कहानी बनाने की उत्सुकता के साथ।

कई बार कुछ किताबें आपके लिए कुछ ज़्यादा ही अच्छी हो जाती हैं। आप उन्हें बार-बार पढ़ते हैं। इस तरह पढ़ते हैं कि पढ़कर दूसरों को उसके हिस्से सुनाते भी हैं। ऐसे हिस्से जो कई बार कुछ लोग अपनी डायरी आदि में नोट भी कर लेते हैं। अंकिता जैन की किताब भी ऐसी है जिसके कई हिस्से आप तमाम ज़िन्दगी याद रखेंगे। और सबसे बड़ी बात कि बहुत कुछ उनकी कहानियों में है जो हमने अपने आसपास देखा भी है। पाठक अंकिता से खुद को जुड़ा पायेंगे। ऐसा इसलिए नहीं कि उन्होंने समाज की बात को रखा है, बल्कि इसलिए क्योंकि वे ज़िन्दगी के कैनवस को बेहतरीन कूची से रंगना जानती हैं।

अंकिता जैन की हर कहानी जब समाप्ति की ओर होती है तो सन्न कर देती है। ये कहानियाँ संदेश देती हैं। सवाल उठाती हैं। सोए हुए लोगों को जगाने की कोशिश करती हैं। ऐसे प्रयास को सराहा जाना चाहिए और अंकिता को जरुर पढ़ना चाहिए।
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आखिर में ...

कभी तिराहे पर,
कभी आँगन में टाँगा,
कभी किसी खटिया
तो खूँटी से बाँधा,
कभी मतलब से
तो कभी यूँ ही नकारा
कभी जी चाहा तो,
खूब दिल से पुकारा
कभी पैसों से
तो कभी बेमोल ही खरीदा,
मुझे पा लेने का
बस यही तो है तरीका,
नाम था मेरा भी
पर किसे थी जरूरत,
कहते हैं लोग मुझे
ऐसी-वैसी औरत।

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