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हमारा समाज 21वीं सदी की सुविधाओं और 18वीं सदी की पिछड़ी मानसिकता के बीच जी रहा है. |
इस पुस्तक में आधुनिकता के प्रबल समर्थकों, विरोधियों और 18वीं सदी के भी इसी तरह के दोनों वैचारिक बिन्दुओं के समर्थकों और आलोचकों को पढ़ना चाहिए। शंभुनाथ की इस कृति की भूमिका में वे जो लिख रहे हैं, वह उनकी मंशा और पुस्तक की विषयवस्तु का सारांश है।
हमारा समाज 21वीं सदी की सुविधाओं और 18वीं सदी की पिछड़ी मानसिकता के बीच जी रहा है। इसलिए यह एक तरह से सांस्कृतिक आत्म-आविष्कार का समय है, जब धर्म और आधुनिकता के बीच, आधुनिकता और मनुष्यता के बीच, मनुष्यता और हाशिये की आवाज़ों के बीच संवाद जरुरी है। हिंदू मिथकों को शुद्धतावादी और उच्छेदवादी नजिरए से न देख कर, इस पुस्तक में उनकी की गई आलोचनात्मक पुनर्व्याख्या का ऐतिहासिक संदर्भ यही है।
पुस्तक का अध्ययन करने से पता चलता है कि लेखक हिन्दुत्वाद की विराटता और विविधता के रुप को स्वीकार करते हुए उसे इस स्वरुप तक संजोए रखने में कई मिथकों की भूमिका को भी अंगीकार करता है। साथ ही भारत के प्राचीन साहित्य और काव्यात्मक सांस्कृतिक धरोहर को सामाजिक परिवेश का सुरक्षा कवच मानता है।
शंभुनाथ के अनुसार सभी युगों के मिथकों में कुछ सामान्य बातें हैं। पहली यह कि हर काव्य में कथा है और दूसरा यह कि प्रत्येक कथा में कुछ पर विश्वास, कुछ पर संदेह जताया गया है। इसे वे समझाते हैं -'यदि राम पर विश्वास है तो रावण पर संदेह है। यदि कृष्ण और पांडवों पर विश्वास है तो कौरवों पर संदेह है। यदि राम, कृष्ण और शिव 'अच्छाइयां' हैं तो रावण, दुर्योधन और दक्ष 'बुराइयां' हैं।'
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लेखक का मानना है कि मिथकीय कथाओं में रुपभेद, सुधार और विस्तार हर युग में हुए और कोई मिथकीय कथारुप शाश्वत नहीं था।
मिथक इतिहास नहीं है। इतिहास मिथक नहीं है। फिर भी दोनों के बीच संबंध स्थापित किया जाता है।
मिथक जब बाजार की वस्तु बनते हैं, शुरुआत उनके इतिहासीकरण से होती है। 21वीं सदी में शिव को एक रोचक सनसनीखेज इतिहास बना कर एक लजीज डिश की तरह भी पेश किया गया है।
पुस्तक में लेखक शंभुनाथ हिन्दू जनमानस पर दूसरे सम्प्रदायों यथा बौद्ध तथा विदेशी धर्मों के प्रभाव के कारण कई मिथकों की परंपरा को स्वीकार करते हैं। वह चाहते हैं कि हिन्दू मिथकों को शुद्धतावादी और उच्छेदवादी नजिरए से न देख कर आलोचनात्मक पुनर्व्याख्या की जाए। यही आज की जरुरत है।
हिन्दू मिथक : आधुनिक मन
लेखक : शंभुनाथ
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 238
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