ख़ास किताबों की ख़ास बातें

सुधीश पचौरी, आशीस नंदी और गोपेश्वर सिंह की ​किताबों की चर्चा..
समय पत्रिका लाया है तीन ख़ास किताबें जिन्हें वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया है। गोपेश्वर सिंह की 'आलोचना के परिसर', आशिस नंदी की 'जिगरी दुश्मन' और सुधीश पचौरी की पुस्तक 'तीसरी परम्परा की खोज' के बारे में जानें ---

𝟙 आलोचना के परिसर
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आलोचना के परिसर
लेखक : गोपेश्वर सिंह
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 308

यह आलोचना-पुस्तक पिछले वर्षों में साहित्यिक-सामाजिक विषयों पर लिखे गए गोपेश्वर सिंह के लेखों का संग्रह है। इसमें कोई एक विषय या रचनाकार नहीं है लेकिन साहित्य के साथ समाज इनकी चिन्ता के केन्द्र में है। अलग-अलग समय और अवसरों पर लिखे गये इन लेखों में कहीं-कहीं आवृत्ति मिल सकती है। ये लेख 'बहुवचन', 'तद्भव', 'नया पथ', 'साखी', 'सामयिक सरस्वती', 'वागार्थ', 'पाखी', 'जनसत्ता' आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से कई लेख उनके व्याख्यान के लिखित रुप हैं।

किताब में गोपेश्वर सिंह लिखते हैं कि तेजी से बदलते समय में जो साहित्य लिखा जा रहा है उसके अर्थ और मूल्य की खोज आलोचना के किसी पुराने परिसर तक सीमित रहकर नहीं की जा सकती। किसी रचना में रचनाकार के मूल आशय की खोज और उसके परे जाकर उसकी समीक्षा के जरिए एक नयी रचना को उपलब्ध करना आलोचना का मुख्य उद्देश्य होना चाहिए। इस क्रम में रचना के सामाजिक अर्थ एवं साहित्य-सौन्दर्य का जो झिलमिल-सा पर्दा है उसको थोड़ा सरकाकर, ओट में चुपचाप खड़ा जो सच एवं कला है, उसे मुखरता देने के लिए आलोचना के नये और भिन्न परिसर की दरकार होती है।

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𝟚 जिगरी दुश्मन
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जिगरी दुश्मन
लेखक : आशीस नंदी
अनुवाद : अभय कुमार दुबे
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 182

आशीस नंदी की पुस्तक 'जिगरी दुश्मन' उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ मानस के स्तर पर किए जाने वाले प्रतिरोध को गम्भीरता से लेती है। लेकिन इसमें कुछ नयी ज़िम्मेदारियाँ भी अंतर्निहीत हैं। इस कालजयी कृति का प्रकाशन वाणी प्रकाशन ने किया है। हिन्दी अनुवाद अभय कुमार दुबे द्वारा किया गया है।

लेखक की यह रचना मुख्यत: उन मानसिक संरचनाओं और सांस्कृतिक शक्तियों की पड़ताल है जिन्होंने ब्रिटिश भारत में उपनिवेशवाद की संस्कृति के साथ सहयोग किया या उनका विरोध किया। साथ ही इसमें उत्तर-औपनिवेशिक चेतना के अध्ययन का आशय भी निहित है। यह रचना उन सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक रणनीतियों पर भी गौर करती है जिनकी मदद से यह समाज उपनिवेशवाद के अनुभव के बावजूद बचा रह पाया और उसे अपने आत्म की प्रतिरक्षामूलक पुनर्परिभाषा बहुत ज़्यादा करने में चक्कर में नहीं फँसना पड़ा।

'जिगरी दुश्मन' की मान्यता है कि कोई भी संस्कृति किसी दूसरी संस्कृति का प्रति-ध्रुव नहीं होती। इस कृति में उपनिवेशित समाजों को संयुक्त रुप से उपनिवेशिक समाजों के प्रति-आत्म के रुप में नहीं देखा गया है, और न ही उपनिवेशिक समाज इसमें संयुक्त रुप से उपनिवेशितों के आदर्श आत्म का रुप लेते हैं। न ही यह किताब निम्नता-बोध पर मरहम लगाने का काम करती है और न ही उसकी दिलचस्पी अतीत के अतिशय आशावादी आहवान में है।

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𝟛 तीसरी परम्परा की खोज
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तीसरी परम्परा की खोज
लेखक : सुधीश पचौरी
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 263

यह पुस्तक, हिन्दी साहित्य के उपलब्ध '​इतिहासों' की अब तक न देखी गयी 'सीमाओं' को उजागर करते हुए, हिन्दी साहित्य के इतिहास के पुनर्लेखन का एक नया दरवाज़ा खोलती है!

'नव्य इतिहासशास्त्र' के आगमन के बाद एक हज़ार बरस के हिन्दी साहित्य के इतिहास को, सिर्फ़ दो आचार्यों की कुछ किताबों के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता!

उत्तर-आधुनिक नजरिए, उत्तर-संरचनावादी विखण्डन-पद्धति, मिशेल फूको की इतिहास-लेखन-पद्धति, ग्रीनब्लाट और हैडन व्हाइट आदि के विचारों से विकसित 'नव्य इतिहासशास्त्र' ने इतिहास-लेखन के क्षेत्र में आज एक भारी क्रान्ति पैदा कर दी है।

'इतिहास' साहित्य की 'पृष्ठभूमि' (बैकग्राउण्ड) नहीं बल्कि 'साहित्य' भी इतिहास की 'पृष्ठभूमि' है यानी साहित्य अपने आप में एक 'इतिहास' है! यही इतिहास का 'साहित्यिक मोड़' है। हर प्रकार की 'कृति' (टेक्स्ट) एक 'इतिहास' है और हर 'टेक्स्ट' के 'कांटेक्स्ट' हैं और हर टेक्स्ट 'झगड़े की जगह' है।

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