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प्रभात रंजन ने मनोहर श्याम जोशी के अनकहे पहलुओं को बेबाकी से लिखा है. |
प्रभात रंजन उन दिनों मनोहर श्याम जोशी पर शोध कर रहे थे। 'किस्सागो से पहली मुलाकात का किस्सा' में प्रभात रंजन लिखते हैं कि उस जमाने में उनसे मिलना आसान नहीं था। बिना समय लिए उनके पास जाने से उनके कोपभाजन बनने का खतरा रहता था। जाने-माने लेखक उदय प्रकाश के द्वारा दिए गए उपन्यास की वजह से प्रभात रंजन की पहली मुलाकात मनोहर श्याम जोशी से घर पर हुई। हालांकि शुरुआत में प्रभात रंजन के मन में जोशी जी को लेकर अलग-अलग सवाल कूदफाँद कर रहे थे। वे थोड़े घबराए हुए भी थे। प्रभात रंजन लिखते हैं कि जोशी जी ने उन्हें अपनी बातों से सहज बना दिया। वो अलग बात है कि जोशी जी ने उन्हें हिंदी विभागों में होने वाले शोधों को लेकर एक कहानी जरूर सुनाई।
जोशी जी के बारे में दिल्ली में टीवी की दुनिया से जुड़े लोग यही कहते थे कि अगर कोई धारावाहिक बनाने के बारे में सोचता भी था तो उसके दिमाग में सबसे पहले मनोहर श्याम जोशी का ही नाम आता था। वह सबसे पहले उनसे मिलने का टाइम लेता था।
मनोहर श्याम जोशी एक मारवाड़ी कहानी लिखने की योजना बना रहे थे। इसके लिए प्रभात रंजन को रिसर्च के लिए मारवाड़ियों की जानकारी एकत्रित करनी थी जो उनके लिए एक अलग अनुभव था। हालांकि बाद में इस कहानी पर काम ही नहीं हो सका।
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प्रभात रंजन लिखते हैं-'शुभ लाभ' का सारा शोध, सारी कहानी रह गई। लेखक-निर्माता के रिश्ते खराब होने लगे और मेरी वह नौकरी जाती रही। टीवी लेखक बनने का सपना उस समय पूरा नहीं हो पाया। मैं डीयू में एक बार फिर से पूर्णकालिक शोधार्थी बन गया।'
लेकिन प्रभात रंजन जोशी जी के यहां आते जाते रहे और उनसे काफी कुछ सीखते रहे।
जोशी जी का व्यक्तित्व ही ऐसा था कि लोग उनसे प्रभावित हो जाते थे। प्रभात रंजन लिखते हैं कि वे दीवानों की तरह मनोहर श्याम जोशी की रचनाओं को नहीं पढ़ते थे बल्कि उनके व्यक्तित्व से, उनकी पृष्ठभूमि से जोड़कर पढ़ते थे।
मनोहर श्याम जोशी अपने उपन्यास एक महीने में लिखने की क्षमता रखते थे। 'कसप' उपन्यास महीने भर में लिख लिया था। जोशी जी को समय-समय पर भारी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ता था। विद्यानिवास मिश्र ने उनके एक उपन्यास पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि हिंदी साहित्य में कुछ आशा, कुछ विश्वास तो होना ही चाहिए। आपके इस उपन्यास में चरम निराशा है।
इस तरह की आलोचनाओं से जोशी जी पर कभी कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि वे और अधिक उत्साह के साथ लेखन कार्य करते रहे।
जोशी जी 21 साल की उम्र में पूर्ण रूप से मसिजीवी बन गए और दूसरी बात यह है कि उनका पहला उपन्यास 47 की उम्र में आया। 1960 के दशक में उन्होंने तीन उपन्यास लिखने शुरू किए लेकिन कोई पूरा नहीं हो पाया। जोशी जी भविष्य की भी अच्छी खासी समझ रखते थे। उन्होंने बहुत पहले ही कह दिया था कि आने वाले समय में तकनीक हिंदी को विचार की जकड़ से आजाद कर देगी।
मनोहर श्याम जोशी का दिमाग लगातार नये-नये आईडिया पैदा करता रहता था। और सभी आईडिया पर लिखना संभव नहीं था। उनके संपर्क में जो युवा लेखक आता उसे भी लिखने के लिए कोई न कोई आईडिया जरुर देते थे।
'हमजाद' उपन्यास की पहली समीक्षा प्रभात रंजन ने की थी। इसपर प्रभात लिखते हैं कि 'उत्तर-आधुनिकता मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास' विषय पर शोध करना अभी ठीक से शुरू भी नहीं हुआ था और उसके पहले ही समीक्षा के माध्यम से मैंने खुद को 'उत्तर- आधुनिकता और मनोहर श्याम जोशी' दोनों साबित कर दिया था।
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मनोहर श्याम जोशी शंभुदत्त सती से अपनी रचनाएं टाइप करवाते थे। उनकी आखिरी फिल्म 'हे राम' तक शंभुदत्त टाइप करने का काम करते रहे। साप्ताहिक हिंदुस्तान के संपादक बनने के बाद भी वह बोल कर ही लिखवाते थे। उनके समकालीन लेखक कमलेश्वर हाथ से ही लिखते थे। वे अपनी उंगलियों में पट्टी बांधकर लिखा करते थे। उन्होंने एक दिन प्रभात रंजन से कहा था कि जिस दिन में हाथ से लिखना छोड़ दूंगा, मैं लेखन ही नहीं कर पाऊंगा। हिंदी का लेखक 'कलम का मजदूर' ही होता है और उसे लेखन का राजा बनने का प्रयास नहीं करना चाहिए। लेकिन उन्होंने एक बात बाद में कही कि जोशी जी के पहले दो उपन्यास 'कुरू-कुरू स्वाहा...' और 'कसप' बहुत सुगठित हैं। दोनों हाथ से लिखे गए थे।
जोशी जी ने अपने जीवनकाल में एक भी उपन्यास या रचनात्मक साहित्य ऐसा नहीं लिखा, जो तथाकथित शुद्ध खड़ी बोली हिंदी में हो। 'आउटलुक' के संपादक आलोक मेहता को उन्होंने एक शब्द को लेकर बड़ी शिकायत ही चिट्ठी लिखी थी। उनका मानना था कि साहित्यिक कृति तो लोग अपनी रुचि से पढ़ते हैं और पत्र पत्रिकाओं को भाषा सीखने के उद्देश्य से। इसलिए उनकी भाषा की शुद्धता के ऊपर पूरा ध्यान देना चाहिए। लेकिन जब भी भाषा की शुद्धता को ध्यान में रखकर रचनात्मक साहित्य लिखा जाता है तो वह लद्धड़ साहित्य हो जाता है।
प्रभात जी लिखते हैं कि कि जोशी जी 21 साल की उम्र में पूर्ण रूप से मसिजीवी बन गए और दूसरी बात यह है कि उनका पहला उपन्यास 47 की उम्र में आया। 1960 के दशक में उन्होंने तीन उपन्यास लिखने शुरू किए लेकिन कोई पूरा नहीं हो पाया। जोशी जी भविष्य की भी अच्छी खासी समझ रखते थे। उन्होंने बहुत पहले ही कह दिया था कि आने वाले समय में तकनीक हिंदी को विचार की जकड़ से आजाद कर देगी।
उपलब्धियों का तो पता नहीं, लेकिन मुझे लेखक के रुप में अपने मानकों पर खरा न उतर पाने का बहुत अफसोस है।किताब का लिंक : https://amzn.to/2EdkMr2
प्रभात रंजन एक किस्सा बताते हैं कि 'जमीन-आसमान' नामक धारावाहिक की अच्छी शुरुआत के बाद जोशी जी ने उसे इसलिए छोड़ दिया क्योंकि इसकी सहायक निर्देशिका तनुजा चंद्रा से उनकी ठन गई और इस लड़ाई में महेश भट्ट ने अपनी निर्देशिका का ही पक्ष लिया। यही वजह रही कि 'कजरी' नामक उनके महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर कई लोगों ने फिल्म बनाने की सोची मगर उनके 'लड़ाई वाले किस्से' सुनकर कल्पना लाजमी भी पीछे हट गईं।
पुष्पेश पंत ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि हिंदी में ऐसे लेखक अधिक नहीं है जिन की रचनाएं आम पाठकों और आलोचकों के बीच समान रूप से लोकप्रिय हों। ऐसे लेखक और भी कम है जिनके पैर किसी विचारधारा की बेड़ी से जकड़े ना हों। मनोहर श्याम जोशी ऐसे ही अपवाद हैं जो एक साथ एक ही समय पारंपरिक और आधुनिक दुनिया में निवास करते अपने पाठकों का मनोरंजन और विचारोत्तेजन करते हैं। जितनी विधाओं में उन्होंने लेखन किया है, वह भी विस्मित करने वाला ही लगता है। पत्रकारिता, संस्मरण, कहानी, उपन्यास के साथ-साथ उन्होंने कविताएं भी लिखीं। धारावाहिक टीवी लेखन में उनका नाम अग्रगण्य है। प्रभात रंजन ने ना केवल जोशी जी के लेखन पर अपना शोध कार्य बखूबी पूरा किया बल्कि शोध कार्य के दौरान जोशी जी के साथ बिताए अपने संस्मरणों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर एक और बड़ी जिम्मेदारी पूरी की है।
यह पुस्तक गुरु और शिष्य के ऐसे संबंध को भी दर्शाती है जो बेहद दिलचस्प है। प्रभात ने खट्टी-मीठी बातों को अच्छी तरह बयान किया है।
पालतू बोहेमियन
लेखक : प्रभात रंजन
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 128
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