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आंबेडकर पहले अस्पृश्य थे जिन्होंने जाति व्यवस्था के खिलाफ खुल कर बगावत की. |
पुस्तक पढ़ने से पता चलता है कि डॉ. आंबेडकर जीवन पर्यन्त जातीय भेदभाव के शिकार रहे। उन्होंने प्राचीन साहित्य और इतिहास का अध्ययन किया तथा इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि भारतीय समाज में ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए कई मेहनतकश, ईमानदार और देशभक्त समुदायों को जातिवाद के आधार पर नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर दिया। वे जिस महार समुदाय में पैदा हुए थे, उस पूरे समुदाय के प्रति भी ब्राह्मणवादी लोगों द्वारा भारी भेदभाव किया जाता था। वे इस अन्याय को होते हुए अपनी आँखों से देख रहे थे तथा गाँव से स्कूल तक उन्हें भारी भेदभाव और जातीय अपमान को सहन करना पड़ा। उच्च शिक्षा प्राप्त करने तक वे ब्राह्मणवादी भेदभाव के खिलाफ रोष से भर चुके थे और उन्होंने ऐसी भेदभावपूर्ण व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने का निश्चय कर लिया था जहाँ चन्द लोग दूसरे अपने ही जैसे लोगों के साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार कर रहे थे।
''महार जाति के लोग अस्पृश्यता के जिस कलंक से जूझ रहे थे उसकी सघनता का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि कई जगह तो उन्हें अपने गले में घड़ा लटकाकर भी चलना पड़ता था ताकि उनका थूक उस ज़मीन को दूषित न कर दे जिस पर ब्राह्मणों के पैर पड़े हैं। अपने पाँवों के निशानों को मिटाने के लिए उन्हें अपने पीछे की ज़मीन को भी बुहारते हुए चलना पड़ता था। कम से कम उन्हें ब्राह्मणों से अच्छा-ख़ासा फ़ासला तो रखना ही पड़ता था ताकि अपनी परछाईं से भी वे उनको दूषित न कर दें।''किताब का लिंक : https://amzn.to/2DUv1jE
आंबेडकर ने ब्राह्मणवादी एकाधिकार के कारण अपना मूलधर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाया। साथ ही अपने समर्थकों के बीच घोषणा की कि-''मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश को देवता नहीं मानता, न ही उनकी पूजा करुंगा। मैं राम और कृष्ण को भगवान नहीं मानता, न ही उनकी पूजा करुंगा। मैं बुद्ध को विष्णु का अवतार नहीं मानता। मैं न तो श्राद्ध करुंगा और न ही देवताओं को चढ़ावा चढ़ाऊँगा। मैं किसी ब्राह्मण के माध्यम से कोई धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न नहीं कराऊँगा। मैं अपने पुराने धर्म, हिन्दू धर्म को ख़ारिज करता हूँ जोकि मनुष्य मात्र की उन्नति के लिए हानिकारक है, मनुष्य और मनुष्य के बीच भेद करता है और मुझे एक निम्नतर व्यक्ति के रुप में देखता है।''
डॉ. आंबेडकर ने हजारों दलितों के साथ हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म स्वीकार किया। हालांकि उसके कुछ दिन बाद 6 दिसम्बर 1956 को आंबेडकर का निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार भी सामूहिक धर्मांतरण की एक नई लहर का अवसर बन गया था। उस दौरान करीब एक लाख लोगों ने बौद्ध धर्म की दीक्षा ली। महाराष्ट्र में अस्पृश्यों की बस्तियों और मोहल्लों से हिन्दू देवी-देवताओं की प्रतिमाओं और चिन्हों को हटाया गया। अस्पृश्यों ने अपनी आनुष्ठानिक हैसियत से जुड़े दायित्वों और कार्यों को करने से मना किया जो तनाव और बहुधा हिंसा का सबब भी बना।
इससे पूर्व आंबेडकर ने सभी धर्मों का अध्ययन किया था। अगस्त 1936 में आंबेडकर ने सिख धर्म अपनाने के फैसले का ऐलान किया। सितम्बर में उन्होंने अपने 13 अनुयायियों को सिख धर्म का अध्ययन करने के लिए अमृतसर भेजा। लेकिन उसके बाद एक के बाद ऐसी घटनाएँ घटीं जिसके बाद आंबेडकर ने लंबा विचार विमर्श किया।
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पुस्तक में, आंबेडकर ने ऐसा क्यों किया? ब्राह्मणों सहित तमाम सवर्ण हिन्दुओं के प्रति उनकी क्या राय थी? गाँधी तथा दूसरे कांग्रेसी नेताओं से उनके क्या मतभेद थे तथा दलितों की सत्ता में भागीदारी के उन्होंने क्या-क्या प्रयास किए? वे अपने मिशन में कहाँ तक सफल हुए? आधुनिक भारत में दलितों की वैचारिकता में बदलाव में उनकी भूमिका जैसे अनेक सवालों के जवाब के लिए यह पुस्तक पढ़नी जरुरी है। लेखक ने पूरी निष्ठा, ईमानदारी और प्रमाणों के साथ डॉ. आंबेडकर के संघर्षपूर्ण जीवन पर प्रकाश डाला है।
भीमराव आंबेडकर : एक जीवनी
लेखक : क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो
अनुवाद : योगेन्द्र दत्त
प्रकाशक : राजमकल प्रकाशन
पृष्ठ : 208
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