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अरुंधति रॉय, प्रभात रंजन, हिमांशु जोशी की पुस्तकों की चर्चा.. |
एक था डॉक्टर एक था संत
अरुंधति रॉय की यह किताब आते ही बेस्टसैलर की सूची में शामिल हो गयी। उनकी जो भी किताब प्रकाशित होती है, उसे चर्चा बहुत तेजी से मिलती है। पुस्तक के लोकार्पण के अवसर पर लेखिका ने कहा था कि इस पुस्तक का विषय काफी संवेदनशील है। यह आम्बेडकर पर एक विस्तार विश्लेषण है। इस पुस्तक में आंबेडकर और गाँधी की तुलना नहीं की गयी है। यह एक कहानी है कि कैसे एक वर्ग के व्यक्ति को सामाजिक और राजनीतिक तौर पर नजरअंदाज किया गया। इस पुस्तक में गाँधी और आम्बेडकर के संवादों को ज्यों का त्यों रखा गया है।
अनुवादक अनिल यादव ‘जयहिंद’ ने पुस्तक पर अनुभव साझा करते हुए कहा कि हमारे देश को एक सामाजिक क्रांति की जरूरत है और यह क्रांति पढ़ने से आती है। अरुंधति की यह पुस्तक इस देश में क्रांति ला सकती है।
पुस्तक में भारत में जातिगत पक्षपात, पूंजीवाद, पक्षपात के प्रति आंख मूंद लेने की आदत, आम्बेडकर की बात को गांधीवादी बुद्धिजीवियों द्वारा खंडन और संघ परिवार का हिंदू राष्ट्र के विषय में लिखा है। भारत में असमानता को समझने और उससे निपटने के लिए अरुंधति रॉय ज़ोर देकर कहती हैं कि हमें राजनीतिक विकास और गांधी का प्रभाव, दोनों का ही परीक्षण करना होगा। सोचना होगा कि क्यों डॉ. भीम राव आम्बेडकर द्वारा गांधी की लगभग दैवीय छवि को दी गई प्रबुद्ध चुनौती को भारत के कुलीन वर्ग द्वारा दबा दिया गया
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भर्तृहरि : काया के वन में
राजा भर्तृहरि के जीवन में एक ओर प्रेम और कामिनियों के आकर्षण हैं तो दूसरी ओर वैराग्य का शान्ति-संघर्ष। वह संसार से बार-बार भागते हैं, बार-बार लौटते हैं। इसी के साथ उनके समय की सामाजिक, धार्मिक उथल-पुथल भी जुड़ी है। भर्तृहरि का द्वन्द्व सीधे गृहस्थ व वैराग्य का न होकर तिर्यक है। विशेष है। वह इसलिए कि वे कवि हैं, वैयाकरण भी। सुकवि अनेक होते हैं तथा विद्वान भी लेकिन भर्तृहरि जैसे सुकवि और विद्वान एक साथ बिरले ही होते हैं। सुपरिचित कथाकार महेश कटारे का यह उपन्यास इन्हीं भर्तृहरि के जीवन पर केन्द्रित है। इस व्यक्तित्व को, जिसके साथ असंख्य किंवदन्तियाँ भी जुड़ी हैं, उपन्यास में समेटना आसान काम नहीं था, लेकिन लेखक ने अपनी सामर्थ्य-भर इस कथा को प्रामाणिक और विश्वसनीय बनाने का प्रयास किया है। भर्तृहरि के निज के अलावा उन्होंने इसमें तत्कालीन सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों का भी अन्वेषण किया है। उपन्यास के पाठ से गुज़रते हुए हम एक बार उसी समय में पहुँच जाते हैं। भतृहरि के साथ दो बातें और जुड़ी हुई हैं-जादू और तंत्र-साधना। लेखक के शब्दों में, ‘मेरा चित्त अस्थिर था, कथा के प्रति आकर्षण बढ़ता और भय भी, कि ये तंत्र-मंत्र, जादू-टोने कैसे समेटे जाएँगे? भाषा भी बहुत बड़ी समस्या थी कि वह ऐसी हो जिसमें उस समय की ध्वनि हो।’ इतनी सजगता के साथ रचा गया यह उपन्यास पाठकों को कथा के आनन्द के साथ इतिहास का संतोष भी देगा।
ग्वालियर के लेखक महेश कटारे ने कहानी, उपन्यास, नाटक आदि की रचनायें की हैं। पत्र-पत्रिकाओं में भी वे प्रकाशित होते रहे हैं। उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया है। वे खेती और लेखन में व्यस्त रहते हैं।
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दोराहे पर वाम
एक बड़ा प्रासंगिक सवाल उठता है कि भारत में राजनीतिक दलों के लिए वैधता के एक महत्त्वपूर्ण स्रोत के रूप में वामपंथी राजनीति उस सीमा तक क्यों नहीं विकसित हो पायी जैसा कि बेहिसाब अन्याय और बढ़ती जाती असमानता वाले समाज में अपेक्षित था। दलीय वाम अब प्राथमिक रूप से दो धाराओं में सीमित रह गया है: मुख्यधारा वाले संसदीय साम्यवादी दल और उनके सहयोगी तथा गैर-संसदीय माओवादी अथवा मार्क्सवादी-लेनिनवादी समूह। इस पुस्तक के सरोकार का विषय सीमित है: यह प्राथमिक रूप से संसदीय साम्यवादी दलों पर केन्द्रित है। इस सीमा के पीछे तीन कारक हैं।
पहला, मुख्यधारा वाले गुट को भारत की बुर्जुआ उदारवादी लोकतान्त्रिक व्यवस्था-अपनी सीमाओं के बावजूद जिसे जनता से पर्याप्त वैधता प्राप्त है -से जुड़ने का प्रयास करने का सबसे लम्बा और सबसे समृद्ध अनुभव है और यह प्रगतिशील परिवर्तन और रूपांतरण की संभावनाओं वाली राजनीती के अवसर प्रदान करता है।
दूसरे, वामपंथ की सभी धाराओं में मुख्यधारा वाला खेमा सबसे बड़ा है और विविध विभाजनों, असहमतियों और प्रतिद्वान्दिताओं के बावजूद इसका लगातार सबसे लम्बा संगठित अस्तित्व रहा है। तीसरे, और यह बात बहुत चकरानेवाली लग सकती है कि मुख्यधारा के वाम पर राज्य केन्द्रित अध्ययनों, लेखों से अलग राष्ट्रीय स्तर पर ताजा विश्लेषणात्मक साहित्य बहुत कम है। प्रफुल्ल बिदवई ने दिलचस्प तथ्य प्रस्तुत किए हैं।
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पालतू बोहेमियन
प्रभात रंजन की यह पुस्तक मनोहर श्याम जोशी को करीब से जानने का एक शानदार अनुभव है। यहां प्रभात जी ने जोशी जी के जीवन के अलग-अलग रंगों को बयान तो किया है, साथ ही उनके साथ बिताए समय को भी रोचकता के साथ लिखा है। इस पुस्तक को अबतक की ख़ास किताबों की सूची में रखा जा सकता है। यह पुस्तक संग्रह करने वाली एक ख़ास किताब है।
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किस्सा किस्सा लखनउवा
लखनऊ के नवाबों के किस्से तमाम प्रचालित हैं, लेकिन अवाम के किस्से किताबों में बहुत कम मिलते हैं। जो उपलब्ध हैं, वह भी बिखरे हुए। हिमांशु बाजपेयी की यह किताब पहली बार उन तमाम बिखरे किस्सों को एक जगह बेहद खूबसूरत भाषा में सामने ला रही है, जैसे एक सधा हुआ दास्तानगो सामने बैठा दास्तान सुना रहा हो। ख़ास बातें नवाबों की नहीं, लखनऊ की और वहाँ की अवाम के किस्से हैं। यह किताब हिमांशु उनकी एक कोशिश है, लोगों को अदब और तहजीब की एक महान विरासत जैसे शहर की मौलिकता के क़रीब ले जाने की। इस किताब की भाषा जैसे हिन्दुस्तानी ज़बान में लखनवियत की चाशनी है।
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