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नुक्कड़ नाटक बदलाव की उम्मीद का दो टूक, तीखा और सकारात्मक संवाद है. |
नुक्कड़ नाटक बदलाव की उम्मीद का दो टूक, तीखा और सकारात्मक संवाद है। नया दृष्टिकोण, नयी सोच और बेहतर नज़रिया इसका मकसद है।
भारत में नुक्कड़ नाटक आन्दोलन को जनता तक पहुँचाने में इप्टा से लेकर गुरुशरण सिंह, हवीब तनवीर, उत्पल दत्त, बादल सरकार, सफदर हाश्मी, शम्सुल इस्लाम, राजेश कुमार, शिवराम समेत हज़ारों जुझारु अभिनेताओं और नाटककारों का अतुलनीय योगदान है। शुरुआती दौर में नुक्कड़ नाटकों का दौर मुख्यत: राजनीतिक ही रहा। आज़ादी के बाद जनता के टूटते भ्रमों और सपनों के संघर्षों को जन-आन्दोलनों से जोड़ने में नुक्कड़ नाटकों ने सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभायी है। सत्ता के साथ संघर्ष की दास्तान अपने आप में कला की सार्थक भूमिका का दस्तावेज़ है।
बदलते दौर में नुक्कड़ नाटकों के विषय व्यापक होने लगे। राजनीतिक विचारधारा और ख़ास पार्टी के झण्डों से आगे निकल नुक्कड़ नाटक आठवें दशक के बाद सामाजिक-राजनीतिक दिशा में आगे बढ़ा। मेरे शुरुआती दौर के नाटक भी मुट्ठी तान और नारे लगा, चौराहों पर क्रान्ति कर रहे थे। पर जल्दी ही इस बात का अहसास हो गया कि समाज में कोई भी परिवर्तन, व्यक्ति के ख़ुद के आन्तरिक बदलाव के बिना असंभव है। यहीं से मेरे नाटकों में रोज़मर्रा के मुद्दे आने का सिलसिला शुरु हुआ। घर से लेकर सड़क, मोहल्ले और शहर-गाँव के ज्वलन्त सवाल उठने लगे। भ्रष्टाचार, सामाजिक भेदभाव, भ्रूणहत्या, एसिड अटैक, छेड़खानी, बाल मज़दूरी, बाल व्यापार, जैण्डर भेदभाव, पर्यावरण की दुर्दशा, मर्दानगी के सवाल, घरेलू नौकरों की समस्याएँ, सड़क पर मारपीट, ख़ून के अभाव में भटकते लोग, बुढ़ापे की यातना, जाति-धर्म और इनसानियत की बातें, हाशिए के समाज की पीड़ा जैसे सैकड़ों मुद्दे नाटकों का विषय बनने लगे।
छोटी-छोटी बातें हमारी ज़िन्दगी को प्रभावित करती हैं। बड़ी-बड़ी बातें नारेबाज़ी और जुमलों से तालियाँ तो बटोरी जा सकती हैं, पर सामाजिक-राजनीतिक बदलाव, लोगों के जागरुक होने पर ही हो सकता है। इसी समझ ने भारत के नुक्कड़ नाटकों की दिशा बदल दी। अस्मिता नाट्य समूह ने इसकी शुरुआत लगभग 25 साल पहले की थी, और आज यह नुक्कड़ आन्दोलन राजनीतिक विचारधारा, ट्रेड यूनियन या छात्र संगठनों के सवालों के साथ-साथ हमारे मोहल्लों, स्कूलों, कॉलेजों और हर गली-चौराहों तक पहुँच चुका है।
अस्मिता थियेटर के कर्मठ अभिनेताओं ने दिन-रात काम कर नुक्कड़ नाटकों को देश की जनता की धड़कन बना दिया। हमने देश के हर कोने में नाटक किये।
राजनीतिक विचारधारा के प्रचार से हटकर नुक्कड़ नाटक को जनपक्षीय राजनीतिक चेतना से जोड़ते हुए एक नयी पहचान अस्मिता थियेटर के नाटकों एवं उनकी प्रस्तुतियों ने दी। दर्शकों के उत्साह ने कारवां को आगे बढ़ाया। जुझारु एक्टर प्रशिक्षित हुए। नुक्कड़ नाटकों को बदलाव का कारगर और प्रभावी माध्यम बना, उसे सीधे लोगों के सवालों से जोड़ा गया। नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से अस्मिता थियेटर ने कई आन्दोलनों की अगुवाई भी की। मज़दूरों के विस्थापन से लेकर दलित, किसान, आदिवासियों के साथ टीम ने काम किया। भारत में भ्रष्टाचार आन्दोलन की बुनियाद मज़बूत करने वाले नुक्कड़ नाटक 'भ्रष्टाचार' के तो हज़ारों प्रदर्शन देश के कोने-कोने में हुए। दर्शकों ने इसके वीडियो बनाये और वो देश भर में दिखाये गये। नुक्कड़ आन्दोलन के इतिहास का यह सबसे महत्वपूर्ण और उत्तेजक समय था। सभी टी.वी. चैनलों से लेकर अख़बारों तक में अस्मिता थियेटर के 'भ्रष्टाचार' नाटक की व्यापक चर्चा हुई। इस नाटक ने लोकप्रियता का नया अद्भुत अध्याय रचा।
अस्मिता के काले कुर्ते वाले अभिनेता स्टार बन गये। लोग गलियों में पहचानने लगे कि यह तो नुक्कड़ वाले हैं। अस्मिता थियेटर का देशव्यापी जनाधार बना। इसके बाद 'दस्तक' नाटक ने तो नया ही इतिहास लिखा। दस्तक नाटक का पहला हिस्सा, बाल यौन हिंसा पर 2005 की एक वर्कशॉप में लिखा गया। बाद में मैंने एसिड अटैक, घरेलू हिंसा, भ्रूण हत्याओं जैसे सवालों पर कई नुक्कड़ नाटक लिखे। फिर 2010 में महिला यौन हिंसा के इन तमाम मुद्दों को जोड़कर 'दस्तक' नुक्कड़ नाटक लिखा। इसमें सारे सवाल तीखे और सीधे थे। अपनी सीधी अपील और तीखे कथ्य की ताक़त से यह नाटक दामिनी आन्दोलन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना। राष्ट्रपति भवन से लेकर इण्डिया गेट तक के विरोध प्रदर्शनों में इसकी हंगामेदार प्रस्तुतियाँ हुईं। गली-मोहल्ले से लेकर स्कूल-कॉलेज और सार्वजनिक जगहों पर लगातार हुए इसके सैकड़ों मंचनों ने महिला यौन हिंसा के ख़िलाफ जन आन्दोलन खड़ा कर दिया। प्रत्येक दिन हमारी छह-सात टीमें सड़कों पर निकलती थीं और रोज़ाना आठ-दस शो हर टीम कर रही थी। अस्मिता थियेटर नुक्कड़ टीम के एक्टरों ने भ्रष्टाचार आन्दोलन के बाद, एक बार फिर से जनता का भरोसा और प्यार हासिल किया।
'दस्तक' नुक्कड़ नाटक आज भी लगातार हो रहा है। इसके दस हज़ार से ज़्यादा मंचन अस्मिता अब तक कर चुका है। दस्तक के बाद 'मर्द' नुक्कड़ नाटक आया। सामाजिक कार्यकर्ता कमला भसीन और आज़ाद फ़ाउण्डेशन के साथियों के अनुभवों को सँजो मर्दानगी पर यह नाटक नया दृष्टिकोण लेकर लिखा और खेला गया। 'पहचान' नाटक भारत में एलजीबीटीक्यू समाज पर पहला नुक्कड़ नाटक है। यह दिल्ली और चण्डीगढ़ की प्राइड परेड में भी कामयाबी से किया गया। आज यह नाटक देश भर में एलजीबीटीक्यू क्म्यूनिटी आन्दोलन की पहचान बन चुका है।
अस्मिता थियेटर के नुक्कड़ नाटक आन्दोलन की सैकड़ों उपलब्धियों की कहानियाँ लोगों के ज़हन में हैं। इन नाटकों ने लाखों लोगों को समझाया, रुलाया, उन्हें बदलते और आगे बढ़ते देखा है। 'ज़िन्दगी' नाटक देखकर हज़ारों युवा ब्लड डोनेशन के लिए वॉलन्टियर बने। 'बुढ़ापा' देख लोगों ने बुज़ुर्गों के प्रति नज़रिया बदला, 'वो दिन' नाटक ने पीरियड्स जैसे टैबू पर लड़कों के साथ सार्थक संवाद किया। 'पुस्तकालय या मदिरालय' नाटक ने तो बिहार के इलाकों में शराब के ख़िलाफ आन्दोलन खड़ा किया। हर नुक्कड़ नाटक की प्रस्तुतियों की अपनी एक कहानी है। इन नाटकों की प्रस्तुतियाँ देखने के बाद दर्शक बात करते हैं, डिबेट करते हैं, तज़ुर्बे बाँटते हैं। ये देश-समाज को जानने की एक लम्बी यात्रा है।
समाज की कड़वी सच्चाइयों और हमारे मन की परतों-गुत्थियों को खोलते-खँगालते नुक्कड़ नाटकों का यह पहला संग्रह 'नुक्कड़ पर दस्तक' आपसे रुबरु है। इन नाटकों को बोलकर पढ़ेंगे तो ये ज़्यादा समझ में आयेंगे। ये नाटक हज़ारों बार खेले जा चुके हैं और लगातार रोज़ाना खेले जा रहे हैं। इन नाटकों को बनाने में मेरे अभिनेताओं का सबसे बड़ा योगदान है। इन अभिनेताओं ने बदलाव की नयी बयार और संघर्ष का परचम थाम, इन नाटकों को दिन-रात जिया और किया है।
ये नाटक बड़ी बातें नहीं करते, छोटी-छोटी मगर सीधी बात करते हैं। ऐसी बात जो हम, आप और सभी महसूस करते हैं, जानते हैं, समझते हैं, पर बोलते या कहते नहीं हैं।
जब हमारी सोच में बदलाव होगा, कथनी-करनी का अन्तर कम होगा, असहमति के बावजूद हम संवाद करेंगे, तभी बदलाव की बातें ज़मीनी हक़ीकत बनेंगी, सपने साकार होंगे। यह संकलन उन लाखों दर्शकों और हज़ारों कलाकारों के लिए है, जो बदलाव में अटूट विश्वास रखे हैं।
नुक्कड़ पर दस्तक
अरविन्द गौड़
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 184
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