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बर्फ़ जितनी खिड़की से बाहर है, उससे कहीं ज़्यादा गहरे जमी हुई है वहाँ के लोगों की संवेदना पर. |
ज़ाहिर है उषा की कहानियाँ शैल्पिक गुँजलक से बाहर रहने के लिए सचेत हैं। वे अपने कथा विन्यास को बौद्धिक चाशनी में लपेट पाठकों को चमत्कृत करने से परहेज करती हैं। उनकी कथा दृष्टि का सुधी पाठकों से सहज तादात्म्य स्थापित हो जाता है और यह उनकी बड़ी विशेषता लगती है। इसके लिए मैं उन्हें बधाई देना चाहती हूँ। उनकी अनेक उल्लेखनीय कहानियाँ चाहे वह 'फूलदेही की छत’ हो या 'बर्फ़’ या 'माँ मर गयी’ या 'झूलाघर’ या 'अच्छा चलता हूँ’ आदि इसी वैशिष्ट्य से स्पन्दित अपनी दृष्टि दायरे से सहज जोड़ लेने वाली कहानियाँ हैं कि पाठक अन्त पर पहुँचकर स्वयं को द्वन्द्व के कठघरे में दाखिल हुआ महसूस करता है।
मैं यहाँ उनकी कहानी 'बर्फ़’ का ज़िक्र करना चाहूँगी। कहानी विदेशी पृष्ठभूमि से अर्जित की गयी है। खिड़की के बाहर बर्फ़ गिर रही है। बर्फ़ जितनी खिड़की से बाहर है, उससे कहीं ज़्यादा गहरे जमी हुई है वहाँ के लोगों की संवेदना पर। इतनी कि मरने पर भी वहाँ की सामाजिकता किसी ओर नहीं सुगबुगाती, न ऊष्मित हो पिघलती है। 'कोई सदा के लिए चला जाये और एक रोने की आवाज़ भी न सुनाई दे’ सन्नाटे की सिम्फ़नी सी बर्फ़, भौतिक विकास के चरम को भोगती उन्नत कहलाने वाली जीवन शैली का मौन रुदन है। 'बर्फ़’ पढ़ते हुए जाने क्यों निर्मल वर्मा निरन्तर याद आते रहे।
'फूलदेही की छत’ कहानी पहाड़ की फूलदेही के घर की छत भर नहीं है, उन सैकड़ों, हज़ारों घरों की छतें हैं जिन्हें देश के विकास की नींवों को पुख्ता करने के लिए विशाल बाँधों की बलि चढ़ा दिया गया है। कर्मठ, भोली फूलदेही कहती है- 'अब तो सब डूब जायेगा साल दो साल में। सरकार बाँध बना रही है न! दिल्ली में बिजली जायेगी। पानी जायेगा। ठीक ही तो है सब कुछ देश के लिए होगा और फिर गढ़वाल की तो परम्परा है बेटा देश के लिए बलिदान देने की...’ अन्य कहानियों की चर्चा यहाँ सम्भव नहीं मगर उस आश्वस्ति को पुनः स्मरण करना चाहूँगी जिसे उषा की कहानियों ने पढ़ते हुए मुझे सौंपा है और जिन्हें पढ़ने पर वह आपको भी सौंपेंगी।
~चित्रा मुद्गल.