टीम लोकतंत्र : भारतीय क्रिकेट की शानदार कहानी

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सपने, त्याग, अवसर, टैलेण्ट और फिर मिलने वाली सफलता की कथाएँ.
राजनीति से उलट क्रिकेट ट्रेन में नहीं दौड़ता। इस सच्चाई का मैं जीता जागता सुबूत हूँ। बचपन से मैं अपने पिता दिलीप सरदेसाई के कदमों पर चलने के लिए बेताब था। और सबसे बड़े लेवल पर क्रिकेट खेलना चाहता था। मुझे सबसे अच्छे उपकरण, बेहतरीन कोचिंग और टॉप क्लास सुविधाएँ दी गयीं। जब मैंने मुम्बई में स्कूलों की कप्तानी की और ऑक्सफोर्ड में फर्स्ट क्लास क्रिकेट खेला (जो कि कई मायनों में वहाँ के यूनिवर्सिटी क्रिकेट की गुणवत्ता के बारे में बहुत कुछ कहता है), मैं कभी भी भारतीय क्रिकेटर बनने के करीब भी नहीं फटक सका। एक बार संयुक्त ब्रिटिश यूनिवर्सिटी के लिए इमरान खान की कप्तानी में आयी पाकिस्तानी टीम के खिलाफ खेलते हुए मुझे स्पिन के जादूगर अब्दुल कादिर ने 2 रनों पर बोल्ड कर दिया था। पवेलियन वापस आते वक्त एक पाकिस्तानी फील्डर ने मुझे लगभग चिढ़ाते हुए कहा था,"अरे! तुम इण्डिया के हो और तुम्हें स्पिन भी खेलनी नहीं आती?” वो सही कह रहा था। मैं गुगली और टॉप स्पिन पहचान ही नहीं पाता था। उस दिन मैंने 'रिटायर' हो जाने की सोची और पत्रकारिता की कम सख्त दुनिया ओर रुख किया। वक़ालत से कुछ वक़्त जुड़े रहने के बाद, क्रिकेट में मेरे प्रोफेशनल कॅरियर का सपना भी टूट चुका था।

कई बार मुझसे ये सवाल पूछा जाता है कि मैंने अपने पिता की तरह क्रिकेट क्यों नहीं खेला। मेरा जवाब बेहद आसान है-एक राजनीतिज्ञ का बेटा या बेटी बहुत आराम से विधायक या सांसद चुना जा सकता है, यहाँ तक कि वो प्रधानमन्त्री भी बन सकता है, एक बिज़नेस करने वाला घराना अपने बेटे-बेटी को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकता है लेकिन एक टेस्ट क्रिकेटर का बेटा जब तक देश के सबसे प्रतिभावान 11 खिलाड़ियों में से एक नहीं हो सकता, वो टेस्ट कैप नहीं पहन सकता है। यहाँ तक कि एक फ़िल्म स्टार के बच्चे अपने माता-पिता के काम को तब भी जारी रख सकते हैं जब वो सबसे बेहतरीन अदाकारों की लिस्ट में शामिल नहीं होते हैं। लेकिन एक क्रिकेटर के बच्चे को महज़ उसके परिवार की वजह से उसकी स्कूल की टीम में भी जगह नहीं मिल सकती है, रणजी ट्रॉफी और टेस्ट क्रिकेट तो बहुत दूर की कौड़ी है। कई मायनों में हम ये ज़रूर कह सकते हैं कि भारतीय स्वाधीनता के इतने सालों बाद क्रिकेट ही वो एकमात्र शय है जिसमें प्रतिस्पर्धा ही प्रतिस्पर्धा है और जो इस खेल के पूर्वजों द्वारा दिये गये आदर्शों पर अब भी खरा उतर रहा है। इसमें भारतीय गणतन्त्र के संविधान की आत्मा अब भी जाग्रत है जो हर किसी को एक समान पाती है। रिश्तेदारी, एलीट क्लास से होने पर मिलने वाले फ़ायदे, संरक्षकों से मिलने वाली सुविधाएँ, सभी क्रिकेट के मैदान के गेट पर ही एक किनारे रख दी जाती हैं। इस खेल में एक प्रकार की डेमोक्रेसी है जो इस देश के उस सपने में बदल सकता है जिसमें एक खिलाड़ी की ज़िन्दगी और समाज को बदलने की ताकत भरी हुई है। ये किताब क्रिकेट के जरिए उस भारतीय कथा को ढूँढ़ने और उसे दोबारा जीने की यात्रा है जिसे मैंने नाम दिया है -टीम लोकतन्त्र। सपने, त्याग, अवसर, टैलेण्ट और फिर मिलने वाली सफलता की कथाएँ। यहाँ किस्सों के ज़रिए ग्यारह खिलाड़ियों की तस्वीरों को उकेरा जायेगा जो अपने अनोखे अन्दाज़ में इस खेल के प्रतिनिधि बने और क्लास, जाति, इलाके और धर्म के ढकोसलों से आगे बढ़ हमारे समय के असली हीरो बन कर उभरे।

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भारतीय क्रिकेट के अलावा और कहाँ आप राँची के एक पम्प ऑपरेटर के बेटे को इस देश के सबसे बड़े और सबसे अमीर खिलाड़ी के रूप में बनते हुए देख सकते थे? या एक ज्ञानी प्रोफेसर और कवि के बेटे को इस देश के इतिहास में पैदा हुआ सबसे चहेता क्रिकेटर बनते हुए देख सकते थे जिसे भारत रत्न दिया गया? या हैदराबाद की तंग गलियों में घूमते एक आवारा से लड़के को आम हैदराबादी मुस्लिम जीवन को किनारे रख अपने पहले तीन टेस्ट में सेंचुरी मार स्टारडम हासिल करते देख सकते थे? या एक ऐसे लड़के के बारे में आप सोच सकते थे जिसके परिवार ने तब तक टेस्ट मैच नहीं देखा जब तक वो ख़ुद खेलने नहीं लगा और जिसके पिता दो भैसें सिर्फ इसलिए खरीद लाये कि उसके बेटे को घर पर दूध की कमी न हो और फिर वो बेटा आगे चलकर वर्ल्ड कप जीतने वाला कप्तान बने और इस देश का महानतम फ़ास्ट बॉलिंग ऑल राउण्डर बने?

हमेशा सब कुछ ऐसा नहीं था। पराधीन भारत में क्रिकेट की शुरुआत यहाँ बसे अंग्रेजों द्वारा मजे के लिए खेले जाने वाले खेल के रूप में हुई जो एलीट क्लब्स में और ब्रिटिश इण्डिया के जिमखाना में खेला जाता। ब्रिटिश राज के राजकुमारों और पारसी बिज़नेसमैन घरानों ने इसे संरक्षित किया जिनके लिए क्रिकेट ब्रिटिशर्स की आँखों में बने रहने का एक जरिया था। व्यापारी और महाराजाओं ने इस खेल की शुरुआत की और इससे उन्होंने ब्रिटिश राज की ओर अपनी वफादारी दिखानी शुरू की। इसके साथ ही वो बाकी लोगों के सामने अपनी बढ़ती हुई सामाजिक प्रतिष्ठा का भी विज्ञापन कर सकते थे। ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि सभी शुरुआती महाराज बल्लेबाज थे और उस वक्त बॉलिंग और फील्डिंग छोटे तबके के लोगों का काम माना जाता था। ये भी कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पहली भारतीय टीम जिसे 1932 में इंग्लैण्ड के ख़िलाफ़ खेलने के लिए चुना गया, उसके कप्तान पटियाला के महाराज और लिम्बडी के राजकुमार उसके उपकप्तान थे। महलों में पलने और इस्तेमाल किये जाने के कारण इस खेल को इसके शैशवकाल में ही तमाम मुसीबतों से दो-चार होना पड़ा। लॉर्ड्स में इंग्लैण्ड के ख़िलाफ़ खेले गये पहले टेस्ट में किसी शाही नाम ने नहीं बल्कि एक 'आम भारतीय' ने कप्तानी की जो कि पूरी तरह से अप्रत्याशित था। ऐसा इसलिए हो सका क्यूँकि पटियाला के राजा को वापस अपने देश जाना पड़ा और लिम्ब्डी के राजकुमार टेस्ट से एक दिन पहले चोटिल हो गये थे और इस तरह कप्तानी मिली कर्नल सी.के. नायडू को।

~राजदीप सरदेसाई.

'टीम लोकतंत्र’
लेखक : राजदीप सरदेसाई
अनुवाद : केतन मिश्रा
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 299