रंगमंच की समग्र अवधारणा का बिम्ब

rangmanch book
यह पुस्तक नाटक तथा रंगमंच की पारस्परिकता को नवीन परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करती है.
नाटक तथा रंगमंच को जब तब हम जीवन की भांति उसमें रच-पच कर जीते नहीं हैं, तब तक वह हमसे आत्मीय नहीं हो पाता। रंगमंच तो सांस्कृतिक-प्रक्रिया का एक दुर्निवार अंग है। अपनी धरती की गन्ध को पाने का सर्वाधिक सशक्त और जीवन्त कला-माध्यम है। पर यह कला-माध्यम लगातार नवीनता की माँग करता है। ऐसी स्थिति में इसे नवीन रखने के लिए अपनी नाट्य-परम्पराओं को अनवरत माँजते रहने की अपेक्षा रहती है।

मूलतः यह पुस्तक नाटक तथा रंगमंच की पारस्परिकता को नवीन परिप्रेक्ष्य में परिभाषित करती है। संस्कृत के रंगमंच से लेकर हिन्दी के आधुनिक रंगमंच और ग्रीक-थियेटर से लेकर ब्रेख्त के आधुनिक रंगमंच तक उसका फलक है। इस फलक को इतना बड़ा रखने के मूल में भी लेखिका की यह इच्छा रही है कि प्राच्य और पाश्चात्य रंग-परम्पराओं को गहराई से समझते हुए हिन्दी-रंगमंच पर ठीक से दृष्टिपात किया जा सके। पूर्व और पश्चिम की रंगभूमियों को ध्यान में रखकर नवीन रंगमंच की समस्त चेतना और प्रभाव-दबाव को उजागर किया जा सके। इस दृष्टि को प्रधानता देते हुए मैंने नाटक तथा रंगमंच के सम्पूर्ण चित्र को स्वच्छता से रखने का संकल्प रखा है।

रंगमंच : नया परिदृश्य
इस किताब में नाटक और रंगमंच की पारस्परिकता को विभिन्न कोणों और पहलुओं से देखते हुए नवीन परिप्रेक्ष्य में परिभाषित किया गया है। इसमें नाट्यधर्मी और लोकधर्मी परम्पराओं के सांस्कृतिक मिथकों, आख्यानों, प्रतीकों, बिम्बों से साक्षात्कार करते हुए प्राच्य और पाश्चात्य रंग-दृष्टियों की स्वतन्त्र निजी पहचान को उद्घाटित किया गया है। भारतीय, एशियाई और पश्चिमी रंग-परम्पराओं के स्वरूप और विशिष्टताओं को सामने लाने के साथ ही यह उनके बीच आदान-प्रदान की उपलब्धियों और सीमाओं को भी रेखांकित करती है।

लेखिका लिखती हैं कि अर्थशास्त्र तथा कामशास्त्र आदि प्राचीन ग्रंथों में भी नाट्यशाला का उल्लेख है। कौटिल्य ने ग्रामों में नाट्यशालाओं की रचना का निषेध किया है। किन्तु 'अर्थशास्त्र' के अध्यक्ष प्रचार अधिकरण में विहारशालाओं का उल्लेख है, जिनमें रंगकर्मी, अभिनेता नाट्य, नर्तन और गायन का विधान पूरा करते थे। नाट्य-मण्डप और नाट्य-मण्डली के अभिनेताओं को विधिवत वेतन भी मिलता था।

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इस पुस्तक में हमें भारतीय रंगमंच के साथ-साथ रोमन रंगमंच से लेकर जापानी, चीनी, थाई आदि पर भी विस्तार से पढ़ने को मिलेगा। 'लोक-नाट्य परंपरा का रंग-संस्कार' अध्याय में भारत की नाट्य शैलिओं का वर्णन किया है।

रीतारानी पालीवाल ने हिन्दी और अंग्रेजी में एम.ए. करने के बाद नाटक और रंगमंच पर हिन्दी में पीएच.डी. और डी.लिट्. किया। जापान में भी वहाँ नाटक और रंगमंच का सूक्ष्मता से अध्ययन किया है।

rangmanch vani prakashan
रंगमंच : नया परिदृश्य
लेखिका : रीतारानी पालीवाल
पृष्ठ : 280
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
ISBN : 9789387889323