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पाठकों को दुनिया के प्राचीनतम और महानतम धर्म का एक स्पष्ट, सजीव और विचारशील वृत्तान्त पढ़ने को मिल सकेगा. |
मैं न तो संस्कृत और न ही हिन्दूवाद का शास्त्री हैं, और न ही मैं धर्म पर कोई शास्त्रीय ग्रन्थ लिखने बैठा हूँ। हिन्दू धर्म के बारे में मेरी दृष्टि एक आम आदमी की दृष्टि है, और मैंने इस धर्म के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जैसाकि मैंने इसे जाना-समझा है। इसके अलावा मैंने इसके प्रमुख पहलुओं का सरल सार-संक्षेप भी प्रस्तुत किया है। जैसाकि आगे स्पष्ट होगा, हिन्दूवाद का मर्म और सार-तत्व समझाने के लिए मैं इसके महानतम शिक्षकों और गुरुओं पर निर्भर रहा हूँ। मेरा वृत्तान्त खुद देखे-भोगे अनुभवों और महत्त्वपूर्ण धर्म-ग्रन्थों और शास्त्रीय व्याख्याओं के गहन अध्ययन के दायरे में गढ़ा गया है। मैंने प्राचीन ग्रन्थों में निहित हिन्दूवाद की धारणाओं, अनेक चिन्तकों द्वारा उनके क्रमिक विकास और हिन्दुत्व की विचारधारा से जुड़े चलनों और चुनौतियों को एक साथ और एक मंच पर प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मैंने इतिहासकारों, धर्मशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों के सैद्धान्तिक दृष्टिकोण की बजाय हिन्दूवाद के प्राचीन ग्रन्थों और हिन्दुत्व की आधुनिक मान्यताओं, दोनों का ही उनके अपने शब्दों में वर्णन प्रस्तुत किया है। इस तरह, मुझे आशा है कि पाठकों को दुनिया के प्राचीनतम और महानतम धर्म और इसके समकालीन अस्तित्व का एक स्पष्ट, सजीव और विचारशील वृत्तान्त पढ़ने को मिल सकेगा।
लेकिन मैं हिन्दूवाद का एक समग्र चित्र प्रस्तुत करने का दावा नहीं कर रहा हूँ, जो इस पुस्तक के दायरे और पृष्ठ संख्या से बहुत बड़ा विषय है। मैंने हिन्दू विचारधारा के उन पहलुओं का वर्णन किया है जो मेरे लिए महत्वपूर्ण हैं, उन प्रथाओं पर प्रश्न-चिह्न लगाया है जो मुझे कम रुचिकर लगती हैं; पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित संशोधित और पुनर्जाग्रत होने की हिन्दू धर्म की क्षमता और इसके इतिहास का गहराई से विवेचन किया है; और साथ ही एक बहुधर्मी और बहुभाषी देश में हिन्दू होने की भावना और इसके अर्थ को भी समझने की कोशिश की है। इस प्रक्रिया में मैंने इसकी विचारधारा से जुड़ी बहस और चुनौतियों को भी उतनी ही जगह दी है, और इसकी कालातीत तत्त्वमीमांसा को भी।
पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है। पहले खण्ड 'मेरा हिन्दूवाद' में मैंने हिन्दू धर्म के सभी पहलुओं को छुआ है-इसके प्रमुख पन्थ, मत, गुरु और शिक्षाएँ, और साथ ही इसकी कुछ ज़्यादा प्रश्न किए जाने योग्य प्रथाएँ भी। दूसरे खण्ड ‘राजनीतिक हिन्दूवाद’ में मैंने राजनीतिक नेताओं, रणनीतिज्ञों, विचारकों और उनके धार्मिक सहयोगियों द्वारा अपने हितों के लिए हिन्दू धर्म को ‘हाइजैक' करने की कोशिशों का वर्णन किया है। तीसरे खण्ड ‘सच्चे हिन्दूवाद की वापसी' में मैंने हिन्दू धर्म को आज दिखायी देने वाली ज्यादतियों और विकृतियों से मुक्त करके इसके सच्चे और मूल स्वरूप और मर्म को फिर से स्थापित करने के उपायों की चर्चा की है, जो कई पहलुओं से इक्कीसवीं सदी के लिए लगभग एक आदर्श धर्म हो सकता है।
शशि थरूर की पुस्तक 'मैं हिन्दू क्यों हूँ' के लोकार्पण की तस्वीरें देखें>>
कुछ अर्थों में मैं उस पुरानी भारतीय विफलता का दोषी भी हूँ जिसमें हाथी को उसकी सूँड, पीठ, पूँछ वगैरह से परिभाषित करने की कोशिश की जाती है । इसलिए मैं एक अज्ञात सत्य तक पहुँचने की कोशिश में ज़्यादा से ज्यादा यह कर सकता हूँ कि बहुत सारे सत्य सामने रखने की कोशिश करूँ। हिन्दू धर्म एक ऐसा अनूठा धर्म है जिसे परिभाषित करना बहुत मुश्किल है। पहले अध्याय में मैंने इसके कारणों का जिक्र भी किया है, जैसेकि न कोई एक संस्थापक, न पैगम्बर, न संगठित चर्च इत्यादि। यह एक तरह से विकिपीडिया जैसी स्थिति है, जिसमें रचनाकारों, ग्रन्थों और मतों -सभी की भिन्नता और विविधता दिखायी देती है। विद्वानों ने हिन्दूवाद को परिभाषित करने के लिए बरगद का पेड़ वन-जगत और केलिडोस्कोप इत्यादि उपमाओं का प्रयोग किया है। एक विद्वान के अनुसार, हिन्दूवाद को 'हेलेनवाद' की तरह एक सभ्यता के प्रतीक के रूप में देखा जा सकता है, या फिर ‘जूदाइज़्म' अर्थात यहूदी धर्म की तरह एक आस्था के प्रतीक के रूप में भी। बीसवीं सदी के मध्य के आसपास राजनीतिक विचारक इस बात पर जोर देने लगे कि यह एक 'नस्ल’ का भी प्रतीक था। लेकिन क्या यह भी सच नहीं है कि धर्म के बारे में हमारी समझ उपनिवेशवाद, धर्म-निरपेक्षता, आधुनिकता और वैश्विक सम्पर्क से इतनी ज़्यादा प्रभावित हो चुकी है कि अपनी परम्पराओं, विश्वासों और आस्थाओं को लेकर हमारी मूल और स्वदेशी धारणा हमेशा के लिए लुप्त हो गयी है?
मैं यह भी कहूँगा कि मैं इसके बारे में निश्चित नहीं हूँ, और यह भी कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि यह पुस्तक कुछ गूढ़, जटिल और विराट सत्यों को इक्कीसवीं सदी के अंग्रेजीभाषी पाठक की भाषा में प्रस्तुत करने का प्रयास है। आज हम उस 'हिन्दूवाद' को क्या कहेंगे जिसकी व्याख्या दो हजार वर्ष पहले याज्ञवल्क्य ने या फिर दो हजार वर्ष पहले आदि शंकराचार्य ने की थी? क्या आज के हिन्दूवाद को तीन हजार वर्ष से भी अधिक लम्बी यात्रा में इस आस्था से जुड़े प्रश्नों, जिज्ञासाओं, चिन्तन-मनन की प्रक्रियाओं, आक्रमणों और प्रतिरोधों, और रचनात्मक सुधारों से अलग करके देखा जा सकता है? जैसाकि मेरे एक विचारशील मित्र ने मुझसे पूछा था, "क्या यह सम्भव है कि हम हिन्दू धर्म को एक 'प्राचीन' धर्म मानते हुए जब यह कहते हैं कि 'मैं हिन्दू हूँ' तो हमें इस बात का बोध न हो कि हम एक ऐसी आत्म-परिभाषा या परम्परा का अंग होने की बात कर रहे हैं जो इतिहास से जुड़ी हुई है, कि हम किसी शाश्वत आस्था की बात नहीं कर रहे हैं?''
कुछ लोग यह भी कह सकते हैं कि हिन्दूवाद के इस चित्रण का अर्थ है कि मैं भी उन लोगों की जमात में शामिल हो गया हूँ जो इस सबसे अनियन्त्रित धर्म-व्यवस्था को 'बाँधने' की कोशिश करते हैं। बहुत-से आलोचकों का यह आरोप रहा है कि भारत के धर्म-निरपेक्ष उदारवादी धार्मिक आस्था को समझ न पाने के कारण ऐसा करते हैं, जबकि हिन्दुत्ववादी यही काम इसलिए करना चाहते हैं क्योंकि वे इस धर्म में निहित आस्थाओं की विविधता को नियन्त्रित कर पाने में असमर्थ हैं। दोनों ही पक्ष अपने-अपने उद्देश्यों के लिए हिन्दूवाद को 'एकरूपता' देने का प्रयास करते हैं। फिर भी, हिन्दुओं का अत्यधिक पूजा-पाठ और जाप, उग्र और हिंसक रीति-रिवाज, स्वामियों-गुरुओं के प्रति अन्धभक्ति- और साथ ही दुर्बोध दार्शनिक व्याख्याएँ -ऐसी चीजें हैं जो इस धर्म का सीधी-सादी भाषा में वर्णन करने में शायद ही किसी लेखक की मदद कर पायें।
मैं एक हिन्दू के रूप में अपने धर्म के बारे में लिख रहा हूँ और यह स्वीकार करता हूँ कि मैं अपने-आपको इस धर्म से अलग करके इसके बारे में कुछ लिख पाने में असमर्थ हूँ, जैसाकि हिन्दूवाद के अनेक शास्त्रीय अध्ययनों में देखा जाता है। मेरा अध्ययन एक आन्तरिक अध्ययन है, इसकी सीमाओं के भीतर से किया गया अध्ययन -अगर इतने विराट धर्म की सचमुच ही कोई सीमा-रेखाएँ हो सकती हैं तो! हालाँकि मैंने हिन्दूवाद पर बहुत-सी पश्चिमी शास्त्रीय पुस्तकें पढ़ी हैं, पर मैं बीसवीं सदी के कुछ आलोचनात्मक विचारकों से सहमत नहीं हूँ। भले ही आधुनिक समतावादी, तर्कवादी और सामाजिक न्याय पर केन्द्रित मूल्यों की कसौटी पर उनका प्राच्यवादी दृष्टिकोण समझ में आता है, पर यह एक तरह से 'हिन्दूफोबिया' के उग्र आरोपों को भी निमन्त्रण देता है। मैं खुद उनके आत्माभिव्यक्ति के अधिकार को चुनौती नहीं देता हूँ, पर मैं यह जरूर मानता हूँ कि इस तरह की कुछ पश्चिमी कृतियों ने भी शायद हिन्दू प्रतिक्रियावादी शक्तियों को बढ़ावा देने में मदद की है। हिन्दू धर्म से जुड़ी कुछ प्रथाओं में दोषों के बावजूद इस धर्म को लेकर मेरी प्रशंसा और मेरा गर्व मेरी आलोचनाओं पर भारी पड़ते हैं, और मैं इसके लिए जरा भी क्षमाप्रार्थी नहीं हूँ।
~शशि थरूर.
मैं हिन्दू क्यों हूँ
लेखक : शशि थरूर
अनुवाद : युगांक धीर
पृष्ठ : 356
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
लेखक : शशि थरूर
अनुवाद : युगांक धीर
पृष्ठ : 356
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन