![]() |
कविता इतिहास अर्थात समय का काव्यान्तरण सम्भव करने की ओर उन्मुख होती है. |
अब और नहीं
सहा जाता
मेरे ईश्वर'
गगन गिल की ये काव्य-पंक्तियाँ किसी निजी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति हैं या हमारे समय के दर्द का अहसास भी? और जब यह पीड़ा अपने पाठक को संवेदित करने लगती हैं तो क्या वह अभिव्यक्ति प्रकारान्तर से प्रतिरोध की ऐसी कविता नहीं हो जाती, जिसमें 'दर्दे-तन्हा’ और 'ग़मे-जमाना' का कथित भेद मिट कर 'दर्दे-इनसान' हो जाता है? कविता इसी तरह इतिहास अर्थात समय का काव्यान्तरण सम्भव करने की ओर उन्मुख होती है।
गगन गिल की इन आत्मपरक-सी लगती कविताओं के वैशिष्ट्य को पहचानने के लिए मुक्तिबोध के इस कथन का स्मरण करना उपयोगी हो सकता है कि कविता के सन्दर्भ ‘काव्य में व्यक्त भाव या भावना के भीतर से भी दीपित और ज्योतित' होते हैं, उनका स्थूल संकेत या भाव-प्रसंगों अथवा वस्तु-तथ्यों का विवरण आवश्यक नहीं है। इन कविताओं का अनूठापन इस बात में है कि वे एक ऐसी भाषा की खोज करती हैं, जिसमें सतह पर दिखता हलका-सा स्पन्दन अपने भीतर के सारे तनावों-दबावों को समेटे होता है - बाँध पर एकत्रित जलराशि की तरह।
क्लिक कर पढ़ें - 'अँधेरे में बुद्ध' : अध्यात्म के रहस्यवादी चिन्तन की बहुरंगी कृति
यह भी कह सकते हैं कि ये कविताएँ प्रार्थना के नये से शिल्प में प्रतिरोध की कविताएँ हैं - प्रतिरोध उस हर सत्ता-रूप के सम्मुख जो मानवत्व मात्र पर - स्त्रीत्व पर भी आघात करता है। इन आघातों का दर्द अपने एकान्त में सहने पर ही कवि मन पहचान पाता है कि
‘मैं जब तक आयी बाहर
एकान्त से अपने
बदल चुका था
अर्थ भाषा का'
ये कविताएँ काव्य-भाषा को उसकी मार्मिकता लौटाने की कोशिश कही जा सकती हैं।
~नन्दकिशोर आचार्य.
मैं जब तक आयी बाहर
रचनाकार : गगन गिल
पृष्ठ : 154
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
रचनाकार : गगन गिल
पृष्ठ : 154
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन