नयी सदी का सिनेमा : आधुनिक सिनेमाई यात्रा की मुक़म्मल तस्वीर

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आज के सिनेमा के प्रभाव के जिज्ञासुओं को यह किताब बेहतर सामग्री प्रदान करती है.
‘‘सिनेमा ज़िन्दगी को समझने का एक सशक्त माध्यम है, ज़िन्दगी जिसे हम जीते हैं, समय के एक फ्रेम में जिये समय का लेखा-जोखा है। हमेशा कहा जाता रहा- फ़िल्मों ने युवा पीढ़ी को बर्बाद कर दिया, गाँधी फिल्म को एक दुर्गुण के रुप में देखते रहे। चार्ली चैपलिन से मिलने के बाद भी उनकी धारणा शायद ही बदल पायी हो, लेकिन धार्मिक फिल्मों के प्रति उनका रुझान अवश्य रहा। स्वाधीनता आन्दोलन और सिनेमा के विकास का दौर समानान्तर चलता रहा, धुंडीराज गोविन्द फाल्के की हरिश्चन्द्र एवं आदेर्शीर ईरानी की आलमआरा ने चलते-फिरते चित्रों के माध्यम से लोगों की दुनिया ही बदल दी। हंटरवाली, बूटपालिश से लेकर आज तक चलते-फिरते चित्रों का जादू नहीं टूटता- दिन-ब-दिन बढ़ता ही जाता है। सिनेमा भारत की दृष्टि से महज़ मनोरंजन नहीं, बल्कि देश के सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास और मनोविज्ञान को जानने का माध्यम है।’’

सिनेमा विशेषकर भारतीय सिने जगत पर पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर बहुत कुछ लिखा जाता रहा है, जो सिलसिला आज भी जारी है। इसके विपरीत लम्बे समय से इस क्षेत्र में कोई समीक्षात्मक पुस्तक हमारे सामने नहीं आ पायी, जहाँ चुनिंदा चर्चित और दर्शक जुटाऊ फिल्मों पर बहुपक्षीय विचार विमर्श को मौजूदा सामाजिक परिप्रेक्ष्य में जाँचा-परखा गया हो।

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पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक उदीयमान लेखक विपिन शर्मा ‘अनहद’ ने ‘नयी सदी का सिनेमा’ नामक पुस्तक लिखी है जिसका प्रकाशन अनुज्ञा बुक्स द्वारा किया गया है। इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि लेखक ने ऐसी फिल्मों के कथानक को सामाजिक चिंतक की तरह हाशिए पर पड़े हमारे समाज के एक वर्ग, स्त्री-विमर्श, स्त्री-पुरुष सम्बन्धों, राजनैतिक स्थिति और सिनेमा के बाजारु मिजाज आदि को मौजूदा परिप्रेक्ष्य में रखते हुए उस पर गहन चिंतन और ईमानदार समीक्षा की है। यही नहीं अन्त में वे आज के सिनेमा के प्रभाव के जिज्ञासुओं को यह किताब बेहतर सामग्री प्रदान करती है।

‘इस किताब में गंभीर, लोकप्रिय, आर्ट और कमर्शियल सब तरह की फिल्मों पर लेख सम्मिलित हैं। एक बात ध्यान देने की है कि विपिन शर्मा विभिन्न शैलियों में लिखते हैं। कहीं वे फिल्म की पड़ताल करते हैं, कहीं अपनी राय देते हैं, कहीं तुलना करते हैं। स्त्री अस्मिता की तलाश करते हुए वे ‘साथ खून माफ’, ‘कामसूत्र’, ‘लंच बॉक्स’, ‘रेनकोट’ फिल्मों को खँगालते हैं। वे इतिहास को पलटते हैं, ‘हंटरवाली’, ‘अछूत कन्या’, ‘सुजाता’ में स्त्री की स्थिति का जायजा लेते हैं। ‘साहब बीबी और गुलाम’ में छोटी बहु के दर्द को महसूसते हैं। ‘देवदास’ की पारो को मैच्योर होता देखते हैं। ‘मदर इंडिया’ से ‘फिज़ा’ तक की फ़िजा परखते हैं। ‘साज’ में बहनों की स्पर्धा, ‘फ़ायर’ में समलैंगिकता, ‘लुक बाई चान्स’ में सोना मिश्रा के साथ माया नगरी की रपटीली राह तय करते हैं। ‘दामिनी’ की घुटन, घरेलू हिंसा उन्हें परेशान करती है। ‘क्वीन’, ‘हैदर’, ‘मेरीकाॅम’ की नायिकाओं के साहस की वे प्रशंसा करते हैं।’ -डॉ. विजय शर्मा
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विपिन शर्मा ‘अनहद’ फिल्मों को बेहद सूक्ष्मता से परखते हैं। वे सिनेमा को समाज के साथ जोड़कर और उसका अध्ययन कर लिखते हैं। उनकी नज़र पैनी है जो गंभीरता के साथ मुआयना करती है।

इस पुस्तक को दो हिस्सों में बाँटा गया है। पहले हिस्से में फिल्मों का सटीक विश्लेषण किया है और दूसरे भाग में सिनेमा से जुड़े विषयों पर विस्तार से चर्चा की गयी है। यह पुस्तक एक दस्तावेज़ की तरह है जिसे पढ़ना जरुरी है। यह आधुनिक सिनेमाई यात्रा की मुक़म्मल तस्वीर पेश करती है।

"नयी सदी का सिनेमा"
लेखक : विपिन शर्मा ‘अनहद’
प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स
पृष्ठ : 189