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छात्र-युवा राजनीति पर केन्द्रित उपन्यास जो शुरू से आख़िरी पन्ने तक रोचक है. |
छात्र-युवा राजनीति पर केन्द्रित उपन्यास ‘अशोक राजपथ’ के लेखक अवधेश प्रीत हैं। इसका प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है।
उपन्यास पहले पन्ने से ही रोचकता बनाए रखता है। कॉलेज के छात्रों को किस तरह राजनीतिक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है, इस वास्तविकता को यह उपन्यास दिखाता है। कुछ बहानों की आड़ लेकर राजनीति की जा सकती है और कई बार राजनीतिक बिसात इस तरह बिछाई जाती है, कि युवाओं को पता नहीं चलता। वे शायद सच्चाई से अनजान होते हैं, मगर वे भीड़ का हिस्सा बन जाते हैं।
कोचिंग के खिलाफ एक भाषण और उसके बाद पुलिस का आना मजेदार है। ऐसा आमतौर पर होता है जब अशोक राजपथ पर आंदोलन कर रहे युवा नेता और उनके चेलों को उठकर भागना पड़ता है। आयेदिन प्रदर्शन होने पर यहाँ जाम की स्थिति बनी रहती है। कभी दुकानदार छात्रों की गुंडागर्दी के खिलाफ अशोक राजपथ बंद करने का एलान करते हैं। कभी इसका समर्थन कोचिंग संस्थानों समेत विभिन्न व्यावसायिक संगठन भी करते हैं। हॉस्टल में शराब और मौज-मस्ती करना भी किसी से छिपा नहीं। बहुत-से कॉलेज के हॉस्टल दन ढलते ही मयखाने में तब्दील हो जाते हैं जहाँ ऊलजलूल चर्चायें और राजनीति पर बहसें होती हैं। लड़ाई-झगड़े आदि उसी का परिणाम होते हैं।
राजनीति में कभी भी, कुछ भी हो सकता है, देखें -‘विधायक जी दिवाकर जी को उपचुनाव में पार्टी का टिकट दिलाने के लिए सीएम से पैरवी कर रहे थे। सीएम मन भी बना लिए थे। लेकिन बीचे में मनोरंजन बाबू अडंगा लगा दिए। आरोप मढ़ दिए कि दिवाकरे जी प्रो. डी. सिंह के मूँह पर स्याही फेंके थे। जब इससे भी मन न भरा तो अब अपहरण का केस में फँसा दिए। इससे क्या होगा? एक तो ‘छात्र एकता मंच’ का आंदोलन टूटेगा और दूसरे विधायक जी को सीएम की नज़र में गिराके वह अपनी गोटी लाल करेंगे।’
एक जगह विद्या का सब्र जवाब दे जाता है और वह कहती है -‘जीवकान्त, दिवाकर जी प्राइवेट कोचिंग के खिलाफ लड़ाई लड़े। गरीब-पिछड़ा छात्र को न्याय दिलाने के लिए अवाज़ उठाए। आज जब उनको सबके साथ की जरुरत है, तो ‘छात्र एकता मंच’ चुप काहे है?’
‘अवधेश प्रीत का यह उपन्यास बिहार के कॉलेज और विश्वविद्यालय के शिक्षण-परिवेश को उजागर करता है कि किस तरह प्राध्यापक अपनी अतिरिक्त आय के लिए कोचिंग का व्यवसाय कर रहे हैं। इसके पाश्र्व में छात्र-राजनीति का भी खुलासा होता है -छात्रों की उच्छृंखलता, अनुशासनहीनता और भ्रष्टता से उपजे सवाल पाठक के अन्तर्मन में लगातार विचलन भरते हैं। गाँवों, कस्बों से अपना भविष्य सँवारने आए छात्र विद्या और अनीता जैसी लड़कियों के रोमांस में उलझकर वायावी वैचारिकता की बहसें ही नहीं करते, अपितु शराब और आवारगी में अपने को पूरी तरह झोंक देते हैं। वे कोचिंग के विरोध में आंदोलन करते हैं, जिससे अशोक राजपथ का जन-जीवन अस्त-व्यस्त और दुकानें बन्द हो जाती हैं, पुलिस प्रशासन इस विरोध की समाप्ति में अ-सक्षम सिद्ध होता है। और एक खिसियाहट हवा में तारी हो जाती है।
दिवाकर, राजकिशोर, जीवकान्त जैसे किरदार अपने कार्य-कलापों से अन्त तक कौतुक, आशंकाएँ और रोमांच के भावों-विभावों का सृजन करते हैं। कमलेश की मृत्यु को छात्र शहीद की सरणि में दर्ज कराते हैं जो कि परिस्थितिजन्य बेचारगी है। उपन्यास में जिज्ञासा के समानान्तर एक सहम महूसस होती रहती है –यहाँ प्रतिवाद का परिणाम अज्ञात नहीं रहता। वहीं अंशुमान की उदास आँखों में अपने आदर्श को बचाने की बेचैनी गहरे तक झकझोर जाती है। सड़कों पर जीवन की हलचल और भागमभाग है -जैसे सभी एक नए लोक की खोज में हों, यानी वे सभी अशोक राजपथ से पीछा छुड़ाने की हड़बड़ी में हों। अन्ततः जीवकान्त स्वयं से प्रश्न करता है -हमें किधर जाना है?’
किताब अपने आखिरी अध्याय के साथ रोचकता में समाप्त होती है। रीता के जवाब के बाद जीवकान्त का गला रुंध जाता है और वह कहता है -‘प्यार-पोलिटिक्स सब में छल! इहे आदर्श है?’ तब रीता कहती है -‘आदर्श-वादर्श कुछ नहीं होता। एक इल्यूजन। नैतिक अवधारणा है बस।’
और सबसे मजेदार जब जीवकान्त को अंशुमन की बात याद आती है -‘दिल न लेफ्ट में है, न राइट में। बस ढूँढ़ते रह जाओगे।’
यह कहना गलत नहीं कि अवधेश प्रीत के शानदार उपन्यास का समापन बेहद गंभीर और शांत तरीके से होता है जो हमारे जहन में ढेरों सवाल छोड़ जाता है। ऐसे सवाल जिन्हें शायद शुरु में हम ढंग से सोच न पाएं, मगर ज़िन्दगी के हिस्सों की तरह वक्त के साथ गंभीरता और परिपक्वता आ जाती है।
‘अशोक राजपथ’
लेखक : अवधेश प्रीत
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 232
लेखक : अवधेश प्रीत
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 232