श्रीकृष्ण रस : श्रीकृष्ण हमारे भाव-पुरुष हैं

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श्रीकृष्ण की लीला हमारे भाव जगत में घटती ही रहती है, कभी उसका विराम नहीं होता.
हम श्रीकृष्ण जन्मोत्सव मनाते हैं, जन्मदिन नहीं, क्योंकि श्रीकृष्ण के प्रादुर्भाव का अनुभव करना चाहते हैं। श्रीकृष्ण के जीवनचरित को स्मरण नहीं करते। जो हमारे जीवन में रचा-बसा हो, उन्हें स्मरण करने की क्या आवश्यकता है। हमारे कवि का गान साक्षी के रूप में करते हैं। लीला उनके सामने घटित होती रहती है। हमारी निरक्षर या अर्द्ध-निरक्षर ग्रामीण जनता श्रीकृष्ण का ध्यान कजली या होली में उत्सवों में प्रत्यक्ष उपस्थिति के रूप में करती है, किसी पूर्व पुरुष या किसी जातीय अतीत इतिहास नायक के रूप नहीं। श्रीकृष्ण से हमारा सीधा संबंध है, उन्हें उलाहना देने का, उनसे नाराज होने का, उन्हें दुलारने का, उन्हें प्यार से बुलाने का हमें अधिकार है और इस अधिकार पर हम गर्व करते हैं। श्रीकृष्ण हमारे भाव-पुरुष हैं, उनकी लीला हमारे भाव जगत में घटती ही रहती है, कभी उसका विराम नहीं होता। यही नहीं, जीवन का कोई ऊर्जात्मक पक्ष नहीं है जो श्रीकृष्ण में पूर्ण रूप से अभिव्यक्त ना हुआ हो। बाल सुलभ चापल और स्फूर्ति से लेकर प्रौढ़ पुरुष की परिणति स्थितप्रज्ञता और निस्संग करुणा तक जितने भी गुण हो सकते हैं, वे सभी श्रीकृष्ण में मूर्तिमान हैं। श्रीकृष्ण भारत भूमि की जीवन साधना के प्रतिमान के रूप में हमारे सामने रहते हैं। हम कैसे हर्ष-विषाद दोनों को एक तरह ग्रहण कर सकें, हम कैसे प्यार और निमर्मता दोनों का निर्वाह कर सकें, हम कैसे वीरता और धीरता दोनों को साधे रह सकें, हम कैसे छोटे से छोटे काम में दक्षता प्राप्त करके वह काम करने में गौरव का अनुभव करें, यह सब हम श्रीकृष्ण को सामने देखते हैं तो आसान लगता है, श्रीकृष्ण को नहीं देखते, असंभव लगता है।

‘श्रीकृष्ण से लोगों को इतना प्यार क्यों है, उनमें क्या आकर्षण है, क्या जादू है, जो पराये-से-पराये को उनका अपना बना देता है, और वे पराये-से भी अधिक पराये बने रहते हैं।’
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लोग कहते हैं श्रीकृष्ण अलौकिक हैं, हमारी दृष्टि में वे इतने लौकिक हैं जितना लौकिक कोई हो नहीं सकता, जो हर लौकिक संबंध निभाना भी जानता है और निजी से निजी संबंध से असंपृक्त रहना भी जानता है। लोक की दृष्टि से जो बड़ा नैतिक साहस हो सकता है, सोलह हजार अपहृत नारियों को स्वीकार करने का साहस अलौकिक शक्ति से नहीं आता, लोकसंग्रही शक्ति से आता है। श्रीकृष्ण महाभारत युद्ध में इतना दांव रखते हैं, दुर्योधन के सामने, मुझ निश्शस्त्र को लो या मेरी शास्त्र सन्नद्ध नारायणी सेना लो, पहले चयन का अधिकार तुम्हें है और दुर्योधन आसुरी संपत्ति के मध्य में उन्मत्त सेना चुनता है, श्रीकृष्ण को नहीं चुन पाता। वह सर्वात्मा वासुदेव को नहीं चुनता, उनका परिग्रह चुनता है। आज भी यह चयन की छूट हममें से प्रत्येक के सामने है, हम श्रीकृष्ण को ग्रहण करें या श्रीकृष्ण के बाहरी स्वरूप को। हम भी अधिकतर श्रीकृष्ण को नहीं ग्रहण करते, हमें लगता है, उसमें बड़ा जोखिम है, श्रीकृष्ण अकेले निश्शस्त्र साथ रहें, हमारी सुरक्षा नहीं है, क्योंकि हम श्रीकृष्ण के अकेलेपन में सब प्राणियों के अकेलेपन को पुंजित नहीं देख पाते। हम नहीं देख पाते कि वह अकेलापन बड़ा विराट है। उस विराट अकेलेपन के साथ रहने पर कहीं कुछ खालीपन नहीं रहता, वह ना रहे तभी सब भरा-भरा हो, पर खाली लगता है। घड़ा थोड़े ही रस होता है, घड़े को जो भरता है, वही रस होता है, श्रीकृष्ण ही सबसे अधिक भरने वाले रस हैं।

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हाँ, रस को भरने के पहले घड़ा छोटा हो, बड़ा हो, इससे कुछ नहीं होता, बस कच्चा ना हो, बड़ी आँच में पका हो और निरा घड़ा हो, उसमें कोई रंगामेजी न हो, उस पर कोई लेबुल न लगा हो, निपट साधारण हो, उसमें कुछ रस पहले से रखा न हो, घड़ा बार-बार धोकर भीतर साफ किया गया हो, औंधा दिया गया हो, एक बूँद उसमें न रह गई हो, उसे फिर सीधा करके धूप में तपा दिया गया हो, तब श्रीकृष्ण रस भरता है। श्रीकृष्ण चाहते हैं, तुम जो हो, वह हो आओ, तुम अपने सहज धर्म मे अधिष्ठित हो जाओ और अपने को निचोड़ कर अर्पित कर दो, मेरा जो भी रस था, यह अर्पित है, तुम अपने आप में विरेचित हो जाओ, निष्किंचन हो जाओ और पुकारो- श्रीकृष्ण आओ, तुम यहाँ प्रकट हो। यह ज्ञान की अँधी कारा, यह भय की डरावनी रात, यह भयंकर वर्षा, यह शून्य का निरन्तर शराघात, वे जकड़ने वाले बन्धन, यह गहराता भादों, यह दुर्भेद्य दम्भ का प्राचीर, यह अनाचार और अनीति की परिखा, यही तो तुम्हारी प्रादुर्भाव भूमि है, श्रीकृष्ण आज और अभी जन्म लो, और सब अन्धकार तिरोहित हो जाए, डर चला जाए, श्रंखलाएँ टूट जाएँ, प्राचीर ढह जाए, अनाचार सूख जाए, शरवर्षा अमृत वर्षा हो जाए।

श्रीकृष्ण के लिए यह पुकार केवल एक चित्त में नहीं, समष्टि चित्त में उठेगी क्योंकि विश्व, केवल भारत ही नहीं, मूल्यः रोड़ा अपना खोखलापन पहचान चुका है, बहुत आजमा चुका है भरने के उपाय, पर कोई तो नहीं भरता, सब और खाली करते हैं। श्रीकृष्ण का भरना ही भरना होता है क्योंकि श्रीकृष्ण स्वयं को निश्शेष करके स्वयं भरे हुए, भरने वाले हुए। उन्होंने जीवन यात्रा को आहुति के रुप में देखा, जन-जन की भूख-प्यास-चाह में ही अनुभव किया कि जीवन यज्ञ की दीक्षा होती है, उन्होंने मृत्यु की प्रतीक्षा की जैसे अज्ञात अवभृथ-स्नान की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उन्होंने अपने को निरन्तर दो भागों में चीरा, कितने तुम अपने हो, कितने सबके हो, उन्होंने निरन्तर अपने को तिल-तिल काटा और परखा। क्या है वह जो कटता नहीं, जो चुकता नहीं। उस श्रीकृष्ण के जन्म की तैयारी करनी है तो श्रीकृष्ण बनें न बनें, बन सकने का संकल्प लें, न लें, श्रीकृष्ण प्रकट होने वाले हैं, इसके लिए अपने शरीर-इन्द्रिय-मन सबके भाजन माँजकर तो रखने होंगे, वह माँजने की तैयारी कहाँ हो रही है?
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श्रीकृष्ण जन्म एक उत्सव है, रस का उफान है, उसका उमहाव है, रस का उच्छलन है, उसमें मैं के लिए गुंजाइश नहीं है। श्रीकृष्ण बड़े ही ईर्ष्यालु हैं, किसी दूसरे की गुंजाइश नहीं रहने देते, और जब तक आदमी अपने लिए पराया न हो जाय, तब तक वे अपने नहीं होते। यह उत्सव अपनापन सँजोकर नहीं मनाया जा सकता, विद्यापति के 'ओ निज भाव सुभाव बिसारल’ -वाले निजता के विस्मरण माधव के बसने की पहली शर्त है। श्रीकृष्ण जन्म होकर भी जब तक पूरी तरह प्रतीत नहीं होगा अंग-प्रत्यंग में, भाव-अनुभाव में और कण-तरंग में तब तक जन्मोत्सव कैसा? इस जन्मोत्सव के लिए कोई न मुनादी होती है, न कोई पर्चा बँटता है, इसके लिए भीतर से शिराओं में उबाल आता है, नस-नस उत्तप्त हो जाती है, मन उत्तरवाहिनी गंगा बन जाता है, सृष्टि सावधान होकर उत्सुक हो जाती है-श्रीकृष्ण का आविर्भाव होने जा रहा है। वह तैयारी हो रही है या नहीं, यही जाँचने-पड़तालने की जरुरत है, क्योंकि श्रीकृष्ण जन्माष्टमी साधारण अनुष्ठान नहीं है, एक विश्वभावनशील महाजाति के दुर्जर तप की परिणति है, कोटि-कोटि उपवासों का पारण है, असंख्य नक्षत्रों की चन्द्रोदय-प्रतीक्षा की परिसमाप्ति है, निरन्तर धारासार वृष्टि की झनकार है। वही श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है।

~विद्यानिवास मिश्र.

"श्रीकृष्ण रस"
लेखक : विद्यानिवास मिश्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 192