यहाँ वहाँ कहाँ : ‘भला-बुरा अब दुनिया जाने, मैंने तो बिन्दास लिखा है’

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दीप्ति मिश्र के इस संसार की यात्रा अद्भुत है, रोमांचक है और अनोखी भी.
"रचना चाहे किसी भी विधा में हो, न्यूनाधिक रुप में रचनाकार के व्यक्तित्व और अस्तित्व का प्रतिबिम्ब होती है। दीप्ति मिश्र के इस संग्रह में यह बात पूरी तरह से चरितार्थ होती है। जो लोग दीप्ति से मिले हैं वे उनके कोमल व्यवहार और वाणी की विनम्रता के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व की दृढ़ता और उनके अस्तित्व की सच्चाई के शालीन खरेपन से भी अच्छी तरह परिचित होंगे। उनकी रचनाओं में भी उनका व्यक्तित्व और अस्तित्व ‘बर्फ में पलती हुई आग’ की तरह है। वे जैसी हैं वैसी ही अपनी रचनाओं में हैं। छद्म-रहित, निश्छल और सच्ची। उनमें जो है, जैसा है, उसे वे नकारती नहीं हैं, वरन स्वीकारते हुए डंडे की चोट पर कहती हैं -‘है तो है’।   ~डा. कुँवर बेचैन.

ग़ज़लकार और कवियत्री दीप्ति मिश्र की नयी पुस्तक ‘यहाँ वहाँ कहाँ’ वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुई है। यह पुस्तक कविता और गजल दो संयुक्त खण्डों में हैं। इन रचनाओं में दीप्ति मिश्र ने जिस औरत को चित्रित किया है वह नए भारत में नए युग की स्त्री हैं। पुरातन काल की रुढ़ियों को तोड़ती हुई यह औरत अपनी शक्ति और सामर्थ्य के बल पर आगे बढ़ रही है। वह प्रेम की प्रतिमूर्ति है लेकिन वासनाओं के मकड़जाल से बहुत दूर निकल कर सच्चे प्यार के लिए समर्पित है।

प्रेम में छली गयी महिलाओं के छलने के बाद भी पुरुष को देवत्व का दर्जा दिए जाने पर दीप्ति का कटाक्ष विचारणीय है -
प्रेम में छली जाने वाली हर स्त्री का
एक नाम होता है जैसे
रुक्मणी, सुभद्रा, अनुराधा, मीरा 
या फिर राधा!
लेकिन छलने वाले पुरुष का
पुरुष होना भर यथेष्ट होता है
वो तो अवतरित होता है 
सिर्फ ज्ञान देने के लिए
वो बाँसुरी बजाता है...
रास रचाता है...
और फिर...
समा जाता है...
अपनी गीता में !!
है न छलिया !!!!

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दीप्ति मिश्र की शाइरी में जिस औरत के दर्शन होते हैं वो उस औरत से मुख्तलिफ है जिसको सदियों से समाज में दिखाया जा रहा है। इसमें नये भारत की नयी और नज़र आती है, ये वही औरत है तो आज का ज़िन्दा वुजूद है। ~निदा फाज़ली.

दीप्ति की ग़ज़लों की भाषा उर्दू के शब्दों से दबी न होकर हिन्दी के हमजोली प्रचलित उर्दू शब्दों के साथ-साथ हिन्दी में ही प्रवाहित है। जिसे हिन्दी भाषी ग़ज़ल प्रेमी भी आसानी से समझ लेता है।
न घर अपना, न दर अपना, जो कमियाँ हैं वो कमियाँ हैं
अधूरेपन की आदी हूँ मुझे भरपूर तक करना
जो शोहरत के लिए गिरना पड़े खुद अपनी नज़रों से
तो फिर मेरे ख़ुदा हरगिज़ मुझे मशहूर मत करना.

कवि हो या ग़ज़लकार, उसका व्यक्तित्व उसकी रचनाओं में प्रतिबिम्बित होता है। तमाम उर्दू शायरी हसीन ललनाओं, उनके सकब और रुबाब के साथ शराब के इर्दगिर्द घूमती सी दिखती है। दीप्ति इन सबसे कोसों दूर आधुनिक युग में नारी शक्ति को प्रतिबिम्बित करती चलती हैं। वे नारी को स्वयं से कमतर आंकने वाले पुरुष प्रधान समाज को सीधे ललकारती है -
दिये जाते हो ये धमकी, गया तो फिर ना जाउँगा
कहाँ से आओगे, पहले मेरी दुनिया से जाओ तो
फ़क़त इन बद्दुआओं से बुरा मेरा कहाँ होगा
मुझे बर्बाद करने का ज़रा बीड़ा उठाओ तो.

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इस पुस्तक में एक से बढ़कर एक रचना है जो नर-नारी के रिश्तों की हकीकत को बहुत ही खुलकर सरल, सहज और मनोरंजक भाषा शैली में हमारे सामने रखती है। हमारी युवा पीढ़ी को यह पुस्तक एक नवजागरण का संदेश देती है। दीप्ति मिश्र का काव्य हमसे सवाल करता है, सोचने पर मजबूर करता है और ज़िन्दगी के सच से रूबरू कराता है। उनके शब्द बहते हैं। वे अपनी लय में हैं, जिनका सीधा असर होता है जो किसी को भी प्रभावित कर सकता है। कुछ ऐसे एहसासों की बस्ती में ले जाता है जहाँ हम अपनी बेचैनी को बीच में छोड़कर दीप्ति के संसार का हिस्सा हो जाते हैं। यह यात्रा अद्भुत है, रोमांचक है और अनोखी!

आखिर में पढ़ें -
शब्द नहीं एहसास लिखा है
जो था मेरे पास लिखा है
भला-बुरा अब दुनिया जाने
मैंने तो बिन्दास लिखा है..

"यहाँ वहाँ कहाँ"
रचनाकार : दीप्ति मिश्र
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 183