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गाँधी को चम्पारण के पराधीन और शोषित किसानों के दर्द ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की प्रेरणा दी. |
‘मैं अदालत में गया तो कलक्टर ने मुझे आवेदन देने को कहा। मैंने कहा कि कृपया खुद निरीक्षण कर लीजिए, बात गलत साबित हो तो मुझे सजा दीजिएगा। मगर वे राजी नहीं हुए। मैंने कहा कि एक बार आवेदन देने की सजा मैं 21 दिनों तक जेल में भुगत चुका हूं, अब दूसरा आवेदन देने की हिम्मत मुझमें नहीं है। इसके बावजूद वे नहीं पसीजे।’
‘चम्पारण का तो यही इतिहास है।’
महात्मा गाँधी को चम्पारण के पराधीन और शोषित किसानों के दर्द ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन की प्रेरणा दी। वास्तव में नील की खेती में झोंके जाने वाले किसान एकजुट होकर गाँधी के पीछे खड़े हुए। इसमें चम्पारण के कई ऐसे लोगों की बड़ी भूमिका रही, जिनके अथक प्रयास से गाँधी को वहां लाया गया। इससे पूर्व अफ्रीका से लौटकर वे बड़े-बड़े शहरों के बड़े-बड़े रईसों और उद्योगपतियों से सम्पर्क कर अंग्रेज़ों के खिलाफ आंदोलन की भूमिका को नब्ज़ टटोल रहे थे।
घुमन्तू पत्रकार एवं लेखक पुष्यमित्र ने ‘जब नील का दाग मिटा: चम्पारण 1917’ नामक पुस्तक में महत्वपूर्ण दस्तावेजों तथा कई मजबूत साक्ष्यों के आधार पर चम्पारण से कलकत्ता तक फैले नील किसानों की बेहद मार्मिक दास्तान और उसके संघर्षपूर्ण निराकरण का इतिहास पाठकों के सामने रखा है। पूरे घटनाक्रम से पता चलता है कि मोहनदास करमचन्द गाँधी को महात्मा गाँधी बनाने में चम्पारण (1917) के सत्याग्रह की अहम भूमिका थी। इस पुस्तक का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन ने किया है।
‘मोहनदास करमचन्द गाँधी नीलहे अंग्रेज़ों के अकल्पनीय अत्याचारों से पीड़ित चम्पारण के किसानों का दुख-दर्द राजकुमार शुक्ल से सुनकर उनकी मदद करने के इरादे से वहाँ गए थे। वहाँ उन्होंने जो कुछ देखा, महसूस किया वह शोषण और पराधीनता की पराकाष्ठा थी, जबकि इसके प्रतिकार में उन्होंने जो कदम उठाया वह अधिकार प्राप्ति के लिए किए जानेवाले पारम्परिक संघर्ष से आगे बढ़कर ‘सत्याग्रह’ के रुप में सामने आया। अहिंसा उसकी बुनियाद थी। सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह का प्रयोग गाँधी हालांकि दक्षिण अफ्रीका में ही कर चुके थे, लेकिन भारत में इसका पहला प्रयोग उन्होंने चम्पारण में ही किया। यह सफल भी रहा। चम्पारण के किसानों को नील की जबरिया खेती से मुक्ति मिल गई, लेकिन यह कोई आसान लड़ाई नहीं थी। नीलहों के अत्याचार से किसानों की मुक्ति के साथ-साथ स्वराज प्राप्ति की दिशा में एक नए प्रस्थान की शुरुआत भी गाँधी ने यहीं से की।’
इस पुस्तक में गाँधी जी को चम्पारण तक लाने में कई माह तक जिस ग्रामीण राजकुमार शुक्ल ने अपना सबकुछ दाँव पर लगाया, उसे लेखक ने पूरे न्याय के साथ स्थान दिया। पुस्तक पढ़ने से पता चलता है कि गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय, लोकमान्य तिलक आदि नेताओं ने सब कुछ जानते हुए भी राजकुमार शुक्ल की बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। शुक्ल को एक मित्र वकील ब्रजकिशोर प्रसाद के प्रयास से गाँधी जी तक पहुंचने में भी उन्हें महीनों पापड़ बेलने पड़े।
गाँधी भी कई बार आश्वासन देकर किसानों तक नहीं पहुंचे। शायद वे इसे महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। जब अथक प्रयास से शुक्ल गाँधी को किसानों के बीच ले जाने में सफल हुए तो किसानों की हालत देखकर वे दंग रह गए। वहाँ लोगों से मिलकर उनकी पीड़ा को ठीक से समझ उन्होंने वहीं से नील उत्पादक किसानों को, जो पहले ही संगठित हो रहे थे तथा बंगाल में अंग्रेज़ों के खिलाफ एकजुट थे, अपने आंदोलन को शुरु करने का सबसे बेहतर साधन मानकर चम्पारण में ही आसन जमा दिया।
‘इस पुस्तक का एक रोचक पक्ष उन किवदंतियों और दावों का तथ्यपरक विश्लेषण है, जो चम्पारण सत्याग्रह के विभिन्न सेनानियों की भूमिका पर गुज़रते वक्त के साथ जमी धूल के कारण पैदा हुए हैं। सीधी-सादी भाषा में लिखी गई इस पुस्तक में किस्सागोई की सी सहजता से बातें रखी गई हैं, लेकिन लेखक ने हर जगह तथ्यपरकता का ख्याल रखा है।’
लेखक ने नील से किसानों की समस्याओं और उनके बीच से उपजे गाँधी के स्वतंत्रता आंदोलन की हकीकत को दिलचस्प और पठनीय शैली में पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है।
केवल नील उत्पादन ही नहीं बल्कि गाँधी जी के सत्याग्रह को समझने के लिए यह पुस्तक पढ़ना जरुरी है।
"जब नील का दाग मिटा -चम्पारण 1917"
लेखक : पुष्यमित्र
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 152
लेखक : पुष्यमित्र
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन
पृष्ठ : 152