भारत में पब्लिक इंटैलैक्चुअल : समाज में बुद्धिजीवियों का दायित्व

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समाज में बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वे जनहित के लिए जुटें क्योंकि समाज को उनकी आवश्यकता है.

‘वे क्या स्थितियां हैं जो प्रश्न उठाने के लिए अनिवार्य हैं? स्पष्टतः कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं, जिन परिस्थितियों में कोई प्रश्न नहीं उठाता। ये सर्वाधिकारवाद (एकदलीय शासन पद्धति) से जनित राजनीतिक अवस्थाएं हो सकती हैं या और कोई कारण हो सकते हैं, जहां प्रश्न करना विवेकपूर्ण न लगता हो या जहां प्रश्न करना सहायक हो परंतु प्रश्नों की प्रकृति उन प्रश्नों से आवृत्त हो सकती है, जैसे प्रश्न आमतौर पर उठाये जाते रहते हैं।’’

भारत की अग्रणी बुद्धिजीवी रोमिला थापर की पुस्तक ‘भारत में पब्लिक इंटैलेक्चुअल’ का प्रकाशन वाणी प्रकाशन द्वारा किया गया है जिसमें गंभीर मुद्दों को उठाया है। यह पुस्तक लोकहित बुद्धिजीवियों के महत्व और उससे समाज पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में बताती है। रोमिला थापर के साथ इस पुस्तक में सुन्दर सरुक्काई, ध्रुव रैना, पीटर रोनाल्ड डिसूज़ा, नीलाद्रि भट्टाचार्य और जावेद नक़वी के विचार शामिल हैं। अनुवाद लक्ष्मीनारायण मित्तल ने किया है। संपादन चन्द्रा चारी और उमा आयंगार द्वारा किया गया है।

समाज में बुद्धिजीवियों का दायित्व है कि वे जनहित के लिए जुटें क्योंकि समाज को उनकी आवश्यकता है। वे प्रश्न उठायें जरुर लेकिन उन्हें किस प्रश्न को किस तरह करना चाहिए और क्यों करना चाहिए, इसका भी ध्यान देना चाहिए। समाज शंकाओं से भरा है। जब शंकायें हैं, प्रश्न हैं, उनका निराकरण जरुरी हो जाता है। यह समाज को सही राह पर लाने के लिए होता है। इससे समाज का निर्माण होता है और आने वाली पीढ़ियों के विचारों को बल मिलता है। खोखलेपन और स्याह विचारों को दफन करना एक नये समाज का जन्म देता है। किताब हमें प्रेरित करती है कि समाज में त्रुटियों को दूर करना हर किसी की जिम्मेदारी है और इसके लिए सबसे पहले बुद्धिजीवियों को आगे आना चाहिए।

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रोमिला थापर कहती हैं कि दकियानूसी विचारों और सत्ता पर सवाल किये जाने चाहिएं। यदि ऐसा न किया गया तो ये व्यवस्थाएं बहुत शीघ्र छिन्नभिन्न हो जाएंगी। नये विचारों को पनपना जरुरी है। थापर का मानना है कि लोकहित बुद्धिजीवी जितना सम्भव हो स्वायत्त होना चाहिए और दूसरों को भी लगे कि वह स्वशासित है।

सुन्दर सरुक्काई ने लोकहित बुद्धिजीवी को परिभाषित करते हुए लिखा है कि वह ‘सामान्यजनों से संबंधित विषयों पर तार्किक प्रश्न कर सके।’ यहां यह जरुरी है कि प्रश्न होना चाहिए। तभी शंकाओं के समाधान पर चर्चा आरंभ हो सकती है, और उसे विस्तार दिया जा सकता है। लोकहित बुद्धिजीवी के अलग-अलग कार्यों को किसी एक निश्चित रीति में समाहित किया जा सकता है।

‘आधुनिक विज्ञान की वृद्धि के संबंध में यह कहा जा सकता है कि विभिन्न विज्ञानों ने जो चुनौती रुढ़िवाद को दी है, उससे इसकी शुरुआत हुई है।’ ध्रुव रैना के ये विचार कई चीजों को स्पष्ट करते हैं। उन्होंने आगे कहा है कि जब कभी भी वैज्ञानिक विवादों में भी ज्ञानमीमांसीय या व्यवस्थापरक संचयन होता है या जब विज्ञान को कठघरे में खड़ा किया जाता है, तो किसी मानक के अतिक्रमण में इस समीक्षात्मक तर्क की आवाज का सहारा लिया जाता है।

किताब यह बताती है कि बुद्धिजीवी के लिए क्या आवश्यक है। वह अपने विचारों से देश और समाज के लिए क्या कर सकता है। बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि से समाज पर प्रभाव डालकर उसमें नये बीज रोप सकते हैं और उनसे समाज में नया उदय होगा इसका होना पक्का है। लेकिन जैसाकि पीटर रोनाल्ड डिसूज़ा के विचार हैं कि भारत में जनहित बुद्धिजीवी के लिए यह जरुरी है कि वह जाने कि कौन-सी लड़ाई लड़नी है।

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रोमिला थापर के विचारों पर नीलाद्रि भट्टाचार्य कहते हैं कि उनकी समीक्षा की मांग को आगे बढ़ाते हुए, हमें जय-जयकार करने के साथ-साथ समीक्षात्मक और स्वीकार्यता के साथ प्रश्न उठाने वाला भी होना होगा। प्रश्न करने से छोटे कार्याें से तार्किक सार्वजनिक जीवन का आधार स्थापित किया जा सकता है और यह छोटे-छोटे बदलावों के लिए भी आवश्यक है। उनका मानना है कि ये बदलाव ही बड़े परिर्वतन का कारण बनते हैं। वहीं नीलाद्रि ने आलोचना की सीमा पर भी चर्चा की है।

जावेद नकवी के विचार हैं कि थापर अपने साथी बुद्धिजीवियों को प्रेरित करती हैं। उनका मत सही है क्योंकि रोमिला थापर ने तथ्यों के आधार पर विचारों को स्पष्ट करने की सफल कोशिश की है।

यह किताब कई मायनों में महत्वपूर्ण हो जाती है। यह हमारे समझ को एक सिरे से विकसित करने में कामयाब हो सकती है। यह पाठकों को सवालों के घेरे में लेकर उन्हें कई कोणों से सोचने पर मजबूर करती है। प्रश्न करने और चर्चा करने पर बल प्रदान करती है, जो समाज को नयी दिशा देने में कारगर है।

'भारत में पब्लिक इंटैलैक्चुअल
रोमिला थापर
(सुन्दर सरुक्काई, ध्रुव रैना, पीटर रोनाल्ड डिसूज़ा, नीलाद्रि भट्टाचार्य, जावेद नक़वी)
अनुवाद : लक्ष्मीनारायण मित्तल 
संपादन : चन्द्रा चारी, उमा आयंगार    
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 160