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किताब मुम्बई की लोकल की बारीकियों को ही नहीं दर्शाती बल्कि उस जिंदगी से रुबरु कराती है जो डिब्बे में सवार है. |
‘मुम्बई की लोकल के साथ एक अनोखा रिश्ता हर उस मुम्बईवासी का है जो जीवन की जंग में शरीक है और अभी असफल है। जन्म के बाद जैसे मां का दूध पिए बिना जैसे कोई जवान नहीं हो सकता, ठीक वैसे ही मुम्बई में लोकल के बगैर किसी की जीवन यात्रा पूरी नहीं हो सकती।’
चर्चित कवि एवं समीक्षक निलय उपाध्याय की खूबसूरत कविताओं से सजी पुस्तक ‘मुम्बई की लोकल’ ज़िन्दगी की आपाधापी को बयान करती है। वाणी प्रकाशन ने इसे प्रकाशित किया है।
पटरियों पर दौड़ते पहिये और उसमें सवार ज़िंदगियाँ और उनकी कहानियां सफर को रोमांचक बनाती हैं। हर किसी के पास कहने को बहुत कुछ है, हर कोई किसी मकसद के लिए जी रहा है। कुछ अपनी ज़िन्दगी के किस्से सुना रहे हैं, कुछ ने राहों को ज़िन्दगी बना लिया है। यह किताब मुम्बई की लोकल की बारीकियों को ही नहीं दर्शाती बल्कि हर उस शख्स की ज़िन्दगी से रुबरु कराती है जो डिब्बे में सवार है।
‘बोरे में
अनाज के दानों की तरह
डिब्बे में ख़ुद ही कस गये लोग
सबके चेहरे पर है
जगह मिलने का सन्तोष
जिन्हें जगह नहीं मिली
मधुमक्खी के छत्ते की तरह
टंग गये हैं
दरवाजों पर’
‘नौकरी मिल जाती है मुम्बई में
नहीं मिलती लोकल में विंडो सीट’
निलय की कविताएं अपनी-सी लगती हैं। उनमें एक अलग तरह की सादगी है जिनसे आप भी उनके साथ सफर के साथी हैं। यकीनन कविताओं में जिंदगी बसती है। शब्दों के द्वारा निलय ने लोकल की ज़िन्दगी को हमारी आंखों के सामने प्रस्तुत किया है। हमारा नज़रिया बदल जायेगा और हमारी सोच का विस्तार भी होगा। मुंबई की लोकल पर इस तरह कविताओं के माध्यम से कहीं ओर पढ़ने को नहीं मेलेगा।
इन कविताओं में लोकल को एक संसार की तरह रचा गया है। इस संसार में जिंदगी शब्दों के जरिये पन्नों पर अपनी लय में गुनगुना रही है। फूल बेचने वाली लड़की हो या भगवान की अर्चना करने वाले लोग, हर किसी के लिए लोकल के दरवाजे खुले हैं। तभी निलय कहते हैं:
‘मुम्बई में
हर आदमी के पास लोहे की
एक पटरी होती है
और एक लोकल’
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मुंबई की लोकल (निलय उपाध्याय). |
‘निरंतर बाजारु होते जाते समय के बीच ये कविताएं समय के पहचान की एक दिशा सूचक सृजनात्मक घटना हैं। ये कविताएं कवि के नितांत भिन्न काव्य सामर्थ्य और काव्य संरचना के माध्यम से हमें मुंबई के उस अनुभव लोक में ले जाती हैं जहां भीड़ बहुत है, जीवन जटिल है और बाजार ने ऐसी जगह लाकर छोड़ दिया है कि आम लोगों को रोटी के लिए जान की बाज़ी लगानी पड़ती है, युद्ध लड़ना पड़ता है। लेकिन यह भी कमाल है कि कहीं से लोगों का जज़्बा कम होता नहीं दिखता और शायद इसीलिए उन्होंने मुंबई की लोकल को एक गतिशील और जीवित चरित्र बना दिया है जो एक अर्थ में सवारी है तो दूसरे अर्थों में यात्री भी।
इन कविताओं से होकर गुज़रने के बाद अर्थ के और भी नये-नये आयाम खुलते हैं। मुम्बई की लोकल के भीतर के जीवन को भारतीय समाज, संस्कृति, राजनीति तथा अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में देखना चुनौतीपूर्ण है। मुम्बई की यह लोकल तेज़ी से बदल रहे समाज की न सिर्फ साक्षी बनकर हमारे सामने आती है वरन बदलाव के बीच के समय को समझने में मदद करती है। कविता पढ़ते हुए लगता है कि हम सिर्फ मुम्बई की लोकल को ही नहीं मुम्बई को देख रहे हैं और दुनिया को भी।’
निलय उपाध्याय ने लोकल का कोई रंग नहीं छोड़ा- सबको अपने शब्दों से पन्नों पर उतार दिया है। उनके अल्फाज़ जिंदा तस्वीर की तरह हमारे सामने हैं। ये कविताएं जिंदगी के चलते-फिरते किस्से हैं।
निलय उपाध्याय हिंदी के चर्चित कवि एवं समीक्षक हैं. विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में नियमित कविताएँ व लेख-समीक्षाएँ प्रकाशित. निलय को अनेक मानद सम्मान मिले हैं.
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‘मुम्बई की लोकल'
निलय उपाध्याय
वाणी प्रकाशन
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‘मुम्बई की लोकल'
निलय उपाध्याय
वाणी प्रकाशन
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