दिलीप कुमार की ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे किस्से

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''यह आत्मकथा दिलीप कुमार से जुड़े वास्तविक तथ्यों को अपने में सम्पूर्ण रूप से समेटे हुए है.''

‘जब एक पठान फल-व्यापारी के 22 साल के एक शर्मीले-से लड़के को भारतीय सिनेमा की महारानी देविका रानी ने बॉम्बे टॉकीज की फिल्म ‘ज्वार भाटा’ का नायक बनाने के लिए चुना, जो उस नौजवान के नाम में ज़रा-सा बदलाव किया गया। यूसुफ़ ख़ान दिलीप कुमार हो गए।’ 
(दिलीप कुमार की पत्नि और अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री सायरा बानो)

उनकी उम्र बढ़ रही है। जिंदगी एक कहानी की तरह ही तो है, वह हर रोज बढ़ती है। नब्बे के पार जा चुके मशहूर फिल्म अभिनेता दिलीप कुमार अपनी आत्मकथा में जिंदगी से जुड़े एक-एक पहलू पर तफ्सील से बात करते हुए दिखायी देते हैं। बचपन से लेकर अबतक गुज़रे वक्त को उन्होंने इस किताब में इस तरह इकट्ठा किया है जैसे किसी फिल्म की कहानी को परत-दर-परत जोड़ा जाता है। यहां खूबसूरती वाली बात यह है कि हम उस कलाकार को जानेंगे जिसकी जिंदगी कहानियां-किस्से कहते और गाते बीत गयी। हम उस शख्स को जानेंगे जिसने भी उतार-चढ़ाव भरे रास्तों पर खुद को पाया है।

‘दिलीप कुमार -वजूद और परछाईं’ पुस्तक दिलीप कुमार की आत्मकथा है जिसका अनुवाद प्रभात रंजन द्वारा किया गया है। वाणी प्रकाशन ने इस पुस्तक को प्रकाशित किया है।

‘दिलीप कुमार, जिन्होंने हिन्दी सिनेमा में 1940 के दशक में एक नौसिखिया के रुप में शुरुआत की, ने बहुत ही कम समय में स्टारडम के शिखर को छुआ। अपने 60 वर्ष के लंबे फिल्मी करियर में उन्होंने अपनी रचनात्मक योग्यता, दृढ़ निश्चय, मेहनत और अनोखे अंदाज से एक के बाद एक हिट फिल्मों में मंत्रमुग्ध कर देने वाला प्रदर्शन किया।’
‘इस अनूठी पुस्तक में दिलीप कुमार की जन्म से लेकर अब तक की जीवन-यात्रा का वर्णन किया गया है। इस प्रक्रिया में उन्होंने स्पष्ट रुप से अपनी बातचीत और संबंधों -जो व्यापक स्तर पर विविध लोगों से रहे हैं और इनमें केवल पारिवारिक ही नहीं, अपितु फिल्मी दुनिया से जुड़े लोगों के साथ-साथ राजनीतिज्ञ भी शामिल हैं -का स्पष्ट रुप से विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यह अनुभव कहते हैं कि उनके बारे में जो बहुत कुछ लिखा जा चुका है, वह मिथ्या और भ्रामक है। वह स्पष्ट रुप से बताते हैं कि उन्होंने कैसे सायरा बानो से शादी की, जो कि एक परीकथा की तरह है।’
‘तेज़ी से ‘ट्रेजडियन’ के रुप में भूमिका निभाईं, जिससे उनकी मानसिकता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। उन्होंने एक ब्रिटिश मनोचिकित्सक से परामर्श किया, जिसने उन्हें हास्य-व्यंग्य की भूमिका निभाने की सलाह दी।’

दिलीप कुमार ने बचपन का जिक्र करते हुए कहा है कि वे शरारत करने के बाद अपनी दादी के शॉल में दुबक जाते। वे अपनी मां के दुपट्टे को पकड़कर पीछे-पीछे चलते थे। इस कारण वे एक जगह फंस भी गये थे। उसका मजेदार किस्सा भी उन्होंने किताब में दर्ज किया है। तब पुलिसवालों ने उन्हें गोद में उठाकर वहां से बाहर निकाला था।

उन्होंने कभी न थकना अपनी मां से सीखा है। दिलीप साहब लिखते हैं कि वे बिना किसी शिकायत के घर के काम में जुटी रहतीं। ‘मासूम बचपन और ख़तरों का शौक’ अध्याय में दिलचस्प नन्हें यूसुफ से मिलने का मौका मिलेगा। नादान बचपन के वे दिन लौट नहीं सकते। दिलीप साहब के उस मासूमियत और शरारती सफर का साथी जरुर बना जा सकता है।

राज कपूर से कॉलेज में दिलीप कुमार की मुलाकात हुई थी। उनके दादा बशेशरनाथ पेशावर में दिलीप कुमार के घर आते रहते थे। अट्ठारह का होने के बाद भी उनका शर्मीलापन गया नहीं था। उन्हें राज कूपर से ईर्ष्या भी होती थी कि लड़कियां उनपर इतना क्यों मरती हैं? राज कपूर ने एक दिन ठान लिया था कि वे उनका शर्मीलापन दूर करके रहेंगे। यह किस्सा भी मजेदार है।

दिलीप साहब को जब कैंटीन में नौकरी मिली तो उन्हें ‘अपने बल पर जिंदगी में कुछ हासिल करने का एहसास हुआ।’ उस दौरान की रोचक बातें हमें हैरान कर सकती हैं। बाद में नौकरी छूटने के बाद वे पांच हजार रुपये की रकम लेकर जब घर लौटे तो परिवार अचंभे में था, लेकिन वे समझ गये।

दिलीप कुमार लिखते हैं:‘वे इससे खुश थे कि उनके बेटे में वह हुनर था कि उनके फलों के व्यापार को आगे बढ़ा सके। लेकिन मैं अन्दर-ही-अन्दर यह भी महसूस कर रहा था कि मोहम्मद सरवर खान के कारोबार की बागडोर संभालना और अपने खानदानी काम को आगे बढ़ाना अपनी जगह एक अच्छी बात हो सकती थी, पर मैं इस काम के लिए नहीं बना था।’

यहीं से यूसूफ खान की जिंदगी में ट्विस्ट आया। देविका रानी से मुलाकात के बाद उनका फिल्मी सफर शुरु हुआ। यहां युसूफ से दिलीप बनने की कहानी भी पढ़ने को मिलेगी। फिर क्या था लोग मिलते गये, और कारवां बनता गया।

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दिलीप कुमार की आत्मकथा (वाणी प्रकाशन).
यह किताब उस इंसान से मिलाती है जिसने सपने देखे, उन्हें जिया और नकली और असली दुनिया को महसूस किया। उन्होंने जैसा देखा वैसा शब्दों में बयान किया है। उन्होंने खुद को भी एक तरह से इस किताब के माध्यम से समझने की कोशिश की है और पाठकों को यह समझाने की कि जिंदगी ज़िन्दादिली से भरी है, यकीन बहुत बड़ी चीज़ है और मेहनत कभी ज़ाया नहीं जाती।

फिल्मी दुनिया के अनगिनत रंगों को आत्मकथा में देखा जा सकता है। एक कलाकार की नज़र से उन हलचलों को जाना और समझना आसान होगा जिसे बाहर से जाना नहीं जा सकता। उस चकाचौंध भरी जिंदगी में क्या बनता है और बिगड़ता है उसपर दिलीप कुमार ने ‘मुगल-ए-आज़म’ के वक्त का जिक्र करते हुए लिखा है:‘कहना न होगा कि लाखों दिलों की धड़कनें बढ़ा देने वाले उस सीन को दो पेशेवर कलाकारों ने आपसी अनबन को भुलाकर जितनी ईमानदारी और जज़्बातों की गहराई से अंजाम दिया और निर्देशक की कल्पना को परदे पर साकार किया, वह फिल्मों के इतिहास में दर्ज करने लायक बात है।’

मधुबाला से दिलीप साहब ने ‘खिंचाव’ का जिक्र करते हुए अनकही बातों को साफगोई से कहा है। उन्होंने उस ‘प्रेम कहानी’ के अंत के बारे में भी लिखा है। साथ ही कई ऐसे खुलासे भी हुए हैं जो स्तब्ध करते हैं।

ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर हुए इस अभिनेता की यह किताब हर किसी को संतुष्ट करेगी। किताब में फिल्म जगत की नामी हस्तियों ने दिलीप साहब के बारे में अपनी राय रखी है। यश चोपड़ा, धर्मेन्द्र, अमिताभ बच्चन, मनोज कुमार, हेमा मालिनी, आमिर खान आदि के संस्मरण पढ़ने लायक हैं।

अमिताभ कहते हैं:‘भारतीय सिनेमा के इतिहास को हमेशा ‘दिलीप साहब से पहले’ और ‘दिलीप साहब के बाद’ के रुप में देखा जाएगा। जब आप किसी यात्रा को नापते हैं तो आप मील-स्तंभ नहीं हटाते। मील-स्तंभ चिरस्थायी होता है, चाहे आप मील की गिनती उसके पहले शुरु करें या उसके बाद करें।’

ज़िन्दगी के खट्टे-मीठे किस्सों से सजी दिलीप कुमार की यह किताब एक प्रेरणादायक दास्तान है जिसे बार-बार उसी उत्साह के साथ पढ़ा जा सकता है।

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दिलीप कुमार -वजूद और परछाईं'
लेखक : दिलीप कुमार
प्रस्तुति : उदयतारा नायर
अनुवाद : प्रभात रंजन
हिंदी अनुवाद संपादन : युगांक धीर
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 422
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