ये पुस्तक आध्यात्मिक यात्रा पर ले जाती है. ऐसी यात्रा जो बिल्कुल अलग तरह की है. लेखक पॉल ब्रन्टन ने योगियों, सन्यासियों के बीच खुद की भी खोज करने की कोशिश की है. कुछ राज़ भी खोलती चलती है यह किताब जिन्हें हिन्दुस्तानी नज़रअंदाज़ करते हैं या फिर वे उन्हें उतना जरुरी नहीं समझते. पढ़ें 'गुप्त भारत की खोज' का एक अंश :
अड्यार नदी का संन्यासी
योगी से अनेक अवसरों पर मेरी फिर मुलाक़ात होती है। मैं उसकी इच्छा के अनुसार उससे प्रातःकालीन भ्रमण के समय मिलता हूँ, परंतु प्रयास करने पर वह मेरे साथ शाम को भी समय बिताता है। वह समय मेरे और मेरी खोज के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध होता है। योगी, दिन की रोशनी की अपेक्षा चंद्रमा के प्रकाश में गूढ़ ज्ञान देने का अधिक इच्छुक दिखाई पड़ता है। थोड़ी पूछताछ के बाद, मैं उस बिंदु को सुलझा पाने में सफल हो जाता हूँ, जिसने मुझे बहुत समय से दुविधा में डाल रखा है। मैं अब तक यही समझता आया हूँ कि सभी हिंदू सांवले रंग के होते हैं, परंतु फिर ब्रह्मा की त्वचा नीग्रो की तरह गहरे काले रंग की क्यों है?
इसका कारण यह है कि वह भारत की प्रथम निवासी जाति का बाशिंदा है। आज से हज़ारों वर्ष पहले भारत पर आक्रमण करने वाली सबसे पहली आर्य जाति, जब उत्तर-पश्चिम दिशा से पहाड़ों के रास्ते दाख़िल हुई तो उनकी मुठभेड़ यहाँ की स्वदेशी द्रविड़ जाति से हुई। उन्होंने उसे दक्षिण दिशा में खदेड़ दिया। यह द्रविड़ जाति आज तक एक पृथक समुदाय के रूप में रहती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि उन्होंने आक्रमणकारियों के धर्म को आत्मसात कर लिया है। उष्णकटिबंधीय प्रदेश में सूरज की तेज़ गर्मी ने उनकी त्वचा का रंग काला कर दिया है। इस कारण और अन्य प्रमाणों को देखते हुए कुछ विशिष्ट मानवजाति विज्ञानियों को लगता है कि ये लोग किसी अफ्ऱीकी समुदाय के हैं। उन दिनों की भाँति, जब देशभर में उनका निर्विवाद फैलाव था, द्रविड़ जाति के लोग आज भी लंबे बाल रखते हैं और सिर के पीछे जूड़ा बनाते हैं। वे आज भी अपनी आदिवासी भाषा बोलते हैं, जिनमें सबसे महत्त्वपूर्ण तमिल भाषा है।
ब्रह्मा यह बात बहुत विश्वास के साथ कह रहा है कि उन आक्रमणकारियों ने अन्य वस्तुओं की भाँति, उसकी जाति से योग का ज्ञान भी ले लिया। परंतु बहुत-से हिंदू विद्वान इस बात का खंडन करते हैं इसलिए, मैं मूल आवास के इस कम महत्त्व वाले प्रश्न को यूँ ही छोड़ देता हूँ!
मैं चूँकि योग की शारीरिक संस्कृति के विषय पर शोध नहीं कर रहा हूँ, इसलिए मैं यहाँ दो या तीन शारीरिक अभ्यासों से अधिक का वर्णन नहीं करना चाहता, जो वैसे शारीरिक नियंत्रण के योग का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग हैं। ब्रह्मा ने खजूर के उपवन या अपने कक्ष में जो बीस या उससे अधिक शारीरिक क्रियाएँ करके दिखाई हैं, उनके लिए शरीर को इतना अधिक मोड़ना पड़ता है कि किसी पश्चिम जगत के व्यक्ति को ये योग-क्रियाएँ हास्यास्पद अथवा कठिन या फिर दोनों लग सकती हैं। इनमें से कुछ क्रियाओं में दोनों पैरों को ऊपर उठाकर दोनों घुटनों पर वज़न को संतुलित करना होता है अथवा अपने पूरे शरीर के वज़न को अँगुलियों की नोक पर संतुलित करना पड़ता है। कुछ क्रियाओं में हाथों को पीछे ले जाकर उन्हें दोबारा विपरीत दिशा से आगे लाना पड़ता है, तो कुछ क्रियाओं को करने के लिए सभी अंगों को मोड़कर गाँठ की तरह बनाना पड़ता है। किसी-किसी अभ्यास में तो पैरों को उठाकर गर्दन या कंधों के ऊपर से किसी करतब की तरह करना पड़ता है। एक श्रेणी के अभ्यास में अत्यंत विचित्र तरीके से अपने धड़ को घुमाने की आवश्यकता पड़ती है। ब्रह्मा जिस तरह यह अभ्यास करके दिखाता है, मैं उसे देखकर समझ सकता हूँ कि योग की कला कितनी कठिन है!
‘आप की पद्धति में ऐसे कितने अभ्यास करने पड़ते हैं?’ मैं पूछता हूँ।
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ब्रह्मा उसके उत्तर में कहता है,‘शारीरिक नियंत्रण के योग विज्ञान में कुल मिलाकर चैरासी मुद्राएँ हैं, परंतु मुझे अभी चैंसठ मुद्राओं का ज्ञान है।’ यह कहते हुए वह एक और मुद्रा बना लेता है और इतना सहज होकर बैठ जाता है जैसे मैं कुर्सी पर आराम से बैठता हूँ। ब्रह्मा बताता है कि यह उसकी मनपसंद मुद्रा है। वह मुद्रा ज्यादा कठिन तो नहीं है, किंतु मुझे देखने में वह सहज भी प्रतीत नहीं होती। योगी का बायाँ पैर उसकी जाँघ में फँसा हुआ है और दूसरे पैर की एड़ी शरीर के नीचे फँसी हुई है। उसका दायाँ पैर मोड़कर इस तरह रखा है कि सारा वज़न उसी पर पड़ रहा है।
‘ऐसी मुद्रा बनाने का लाभ क्या है?’ मैं ब्रह्मा से पूछता हूँ।
‘कोई योगी यदि इस मुद्रा में बैठकर एक विशिष्ट श्वास क्रिया का अभ्यास करे तो वह अधिक युवा हो सकता है!’
‘और वह श्वास क्रिया कौन-सी है?’
‘मुझे आपको वह क्रिया बताने की अनुमति नहीं है।’
‘तो इन मुद्राओं का उद्देश्य क्या है?’
‘कुछ विशिष्ट मुद्राओं में नियत अवधि के लिए बैठने या खड़े होने का आपकी नज़र में महत्त्व कम हो सकता है, परंतु उस मुद्रा में एकाग्रता और इच्छाशक्ति का संकेंद्रण इतना तीव्र होता है कि उसके अभ्यास से योगी के भीतर सुप्त पड़ी शक्तियाँ जाग्रत हो जाती हैं। वे ऐसी शक्तियाँ हैं जिन्हें प्रकृति भी गुप्त रखती है। इसलिए वे बहुत कम जाग्रत होती हैं और उसके लिए सही तरह से श्वास क्रिया का अभ्यास करना आवश्यक है क्योंकि श्वास में बहुत शक्ति होती है। हालाँकि उन शक्तियों को जाग्रत करना ही हमारा असली उद्देश्य है, किंतु हमारे पास लगभग ऐसे बीस अभ्यास हैं जिनके द्वारा व्यक्ति अच्छा स्वास्थ्य प्राप्त कर सकता है और अनेक रोगों से मुक्त भी हो सकता है। कुछ अन्य अभ्यास ऐसे हैं जिनके द्वारा शरीर अशुद्धियों से मुक्त हो जाता है। क्या ये सब महत्त्वपूर्ण नहीं है? हमारी कुछ मुद्राएँ ऐसी हैं जो हमें मस्तिष्क और मन पर नियंत्रण करने में सहायता प्रदान करती हैं। यह बिलकुल सत्य है कि जितना प्रभाव विचार का शरीर पर पड़ता है, उतना ही प्रभाव शरीर का भी विचारों पर बढ़ता है। योग की उन्नत अवस्थाओं में जब हम कई घंटों तक ध्यान में डूबे रहते हैं तो उचित मुद्रा न केवल हमारे मस्तिष्क को भटकने से बचाती है अपितु हमें अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में भी सहायक सिद्ध होती है। इनके अतिरिक्त, इच्छा शक्ति में ज़बरदस्त वृद्धि केवल उन्हीं लोगों को मिलती है जो लगन और निष्ठा से इन क्रियाओं का अभ्यास करते हैं। आप यह भी देख सकते हैं कि इन पद्धतियों से कैसे गुण विकसित होते हैं।’
‘परंतु शरीर को इस तरह तोड़-मरोड़ करने की क्या आवश्यकता है?’ मैं पूछता हूँ।
‘ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे पूरे शरीर में बहुत-से नाड़ी-केंद्र स्थित हैं और प्रत्येक मुद्रा एक अलग केंद्र को प्रभावित करती है। नसों द्वारा हम शरीर के अंगों को अथवा मस्तिष्क के विचारों को प्रभावित कर सकते हैं। हम शरीर को मोड़कर व घुमाकर उन नाड़ी-केंद्रों तक पहुँच पाते हैं, जिन केंद्रों तक अन्यथा पहुँच पाना असंभव है।’
‘अच्छी बात है।’ योग और शारीरिक संस्कृति का आधार अब मुझे थोड़ा स्पष्ट होने लगा है। हमारे यूरोपीय और अमेरिकी पद्धतियों के मूल सिद्धांतों से इसकी तुलना करना काफ़ी रोचक है। मैं ब्रह्मा को अपनी पद्धतियों के विषय में बताता हूँ।
‘मैं आपकी पद्धतियों के बारे में नहीं जानता परंतु मैंने बहुत-से गोरे सैनिकों को मद्रास के पास शिविर में सैन्य अभ्यास करते देखा है। उन्हें देखकर मैं समझ पाया हूँ कि उनके संचालक उनसे क्या करवाना चाहते होंगे। उनका सर्वप्रथम उद्देश्य मांसपेशियों को मज़बूत बनाना होता है, क्योंकि पश्चिमवासी, शरीर को सक्रिय रखना सबसे बड़ा गुण मानते हैं। शायद इसीलिए आप लोग अपने हाथ-पैरों का ऊर्जावान तरीक़े से इस्तेमाल करते हैं। आप अपनी ऊर्जा को बड़ी तेज़ी से व्यय करते हैं ताकि आपकी मांसपेशियाँ विकसित हों और शक्तिशाली बन सकें। इसमें कोई संदेह नहीं कि उत्तर जगत के ठंडे देशों में ऐसा करना सही है।’
‘हमारी और आपकी पद्धतियों में मुख्य अंतर क्या है?’
‘हमारे अधिकांश योगाभ्यास में मुद्राएँ बनाई जाती हैं और मुद्रा बन जाने के बाद शरीर में किसी तरह की गतिविधि नहीं होती। हम सक्रिय रहने के लिए अधिक ऊर्जा प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते, अपितु हम धैर्य की शक्ति को विकसित करने की कोशिश करते हैं। देखिए, हम मानते हैं कि मांसपेशियों का विकास आवश्यक है, परंतु हमारे विचार से मांसपेशियों के पीछे की शक्ति अधिक महत्त्वपूर्ण है। इसलिए यदि मैं आपसे कहूँ कि ख़ास तरह से अपने कंधों पर खड़े होने से आपके मस्तिष्क में ख़ून का प्रवाह तेज़ हो जाएगा, आपकी नसों को आराम मिलेगा और आपकी शारीरिक कमज़ोरी दूर हो जाएगी तो शायद आप उस अभ्यास को एक बार करेंगे और उसके बाद उसे जल्दी-जल्दी कई बार दोहराएँगे। आप ऐसा करके उन मांसपेशियों को मज़बूत कर सकते हैं, जिनकी इस अभ्यास में आवश्यकता होती है। परंतु ऐसा करने से आपको वह लाभ नहीं मिलेगा जो एक योगी को इसे अपने तरीक़े से करने से प्राप्त होता है।’
‘और यह तरीक़ा क्या है?’
‘योगी इस अभ्यास को धीरे और ध्यान से करता है। वह उसी मुद्रा में काफ़ी देर तक स्थिर रहता है। मैं आपको यह संपूर्ण शारीरिक मुद्रा करके दिखाता हूँ।’
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ब्रह्मा अपनी पीठ के बल लेटकर दोनों हाथों को पेट के दोनों तरफ़ से रखता है और पैरों को जोड़ लेता है। वह अपने पैरों को धीरे-धीरे उठाता है। उसके घुटने सीधे रहते हैं। ऐसा करते हुए वह ज़ मीन के साथ लगभग साठ डिग्री का कोण बना लेता है। वह अपनी कमर को अपने हाथों से सहारा देता है और उसकी कुहनियाँ धरती पर टिकी हुई हैं। इसके बाद वह शरीर को ऊपर उठाता है। ऐसा करने से उसका ऊपरी हिस्सा और कंधे सीधे हो जाते हैं। उसकी छाती आगे को झुक कर उसकी ठुड्डी से मिल जाती है। फिर वह हाथों से ऊपरी हिस्से को थाम लेता है। उसके शरीर का पूरा वज़ न उसके कंधों, गर्दन तथा सिर पर आ जाता है।
वह इस तरह क़रीब पाँच मिनट तक उसी मुद्रा में स्थिर रहता है और फिर उठ जाता है। वह उसका महत्त्व समझाने लगता है।
‘इस मुद्रा से शरीर का रक्त कुछ देर के लिए मस्तिष्क में आ जाता है। सामान्य स्थिति में ख़ून के प्रभाव को हृदय द्वारा विपरीत दिशा में धकेलकर उसे मस्तिष्क तक पहुँचाया जा सकता है। इन दोनों तरीक़ों के बीच यही अंतर है कि इस आसन को करने से मस्तिष्क और उसके अंदर की नसों को आराम मिलता है। दिमाग़ का अधिक प्रयोग करने वाले लोगों जैसे चिंतकों और विद्यार्थियों के लिए यह योगाभ्यास बहुत लाभदायक है। परंतु यही इसका एकमात्र लाभ नहीं है। यह गुप्तांग को भी मज़बूत बनाता है। परंतु इसे करने के लाभ तभी मिल सकते हैं जब इस अभ्यास को आपके ढंग से नहीं, अपितु हमारे तरीक़े से किया जाए।’
‘यदि मैं ग़लत नहीं हूँ तो आपका कहने का अर्थ है कि आपका योगाभ्यास शरीर को विश्रांति प्रदान करता है जबकि हमारी पाश्चात्य पद्धतियाँ, शरीर को उत्तेजित करती हैं?’
‘ऐसा ही है,’ ब्रह्मा मेरी बात से सहमति व्यक्त करता है।
इसके बाद मैं जिस योगाभ्यास को ब्रह्मा के संग्रह से चुनता हूँ, उसे थोड़े धैर्य और अभ्यास से जल्दी ही सीखा जा सकता है। इस मुद्रा में योगी अपने पैरों को आगे फैलाकर बैठ जाता है। वह अपने दोनों हाथों को सिर के ऊपर उठाकर अपनी हाथों की तर्जनी अँगुली को मोड़ लेता है फिर अपने धड़ को आगे झुकाता है और ऐसा करते हुए श्वास बाहर छोड़ता है। वह अपने पैर के अँगूठे को अपने हाथों की मुड़ी हुई अँगुलियों से पकड़ लेता है। सीधे पैर का अँगूठा सीधी तर्जनी से और बाएँ पैर का अँगूठा बाएँ हाथ की तर्जनी से पकड़ा जाता है। इसके बाद वह अपने सिर को धीरे-धीरे आगे झुकाता है और उसे आगे फैले हुए अपने हाथों के बीच में फँसा देता है। ऐसा करने से उसका सिर उसकी जाँघ को स्पर्श करने लगता है। वह इस विचित्र मुद्रा में कुछ देर स्थिर रहता है और फिर धीरे-धीरे अपनी स्वाभाविक मुद्रा में लौट आता है।
‘इस आसन को एकदम नहीं करना चाहिए,’ ब्रह्मा मुझे चेतावनी देते हुए कहता है। ‘शुरू में अपने सिर को धीरे-धीरे घुटनों की ओर थोड़ा-थोड़ा लाने का प्रयास करना चाहिए। इस आसन को ठीक से सीखने में यदि कुछ सप्ताह भी लग जाएँ तो कोई बात नहीं। इसे अच्छी तरह सीख लेने पर यह सदा के लिए आपका हो जाएगा।’
मुझे बताया जाता है कि इस अभ्यास से रीढ़ की हड्डी मज़बूत होती है और यह रीढ़ की हड्डी की दुर्बलता के कारण नसों से संबंधित परेशानियों को दूर करता है। इससे रक्त के प्रवाह में भी आश्चर्यजनक लाभ होता है।
अगले अभ्यास के दौरान, ब्रह्मा फ़र्श पर बैठकर अपने दोनों पैरों को नीचे की ओर मोड़ लेता है। उसके पैरों की एड़ियाँ उसके कूल्हों के नीचे दब जाती हैं। फिर वह अपने धड़ को पीछे की ओर मोड़ता है तथा कंधों को ज़मीन से स्पर्श करा देता है। वह अपने हाथों को गर्दन के नीचे से मोड़कर अपनी गर्दन को सहारा देता है और फिर अपने दोनों हाथों से कंधों को पकड़ लेता है। वह उसी मुद्रा में कुछ देर स्थिर रहता है और फिर स्वाभाविक स्थिति में लौटकर बताता है कि इस अभ्यास से गर्दन, कंधों और पैरों में स्थित नसों के केंद्र पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है और इससे छाती को भी बहुत लाभ मिलता है।
एक औसत अंग्रेज़, एक औसत भारतीय व्यक्ति को कितना कमज़ोर और दुर्बल समझता है! वह उसे उष्णकटिबंधीय गर्मी तथा कुपोषण का शिकार मानता है। उसे यह जानकर बहुत आश्चर्य होता है कि भारत में प्राचीन समय से शारीरिक विकास और स्वास्थ्य संबंधित कितनी सुविचारित पद्धति उपलब्ध रही है! यदि हमारी पाश्चात्य पद्धतियों में भी यह उपयोगिता होती तो इनके महत्त्व पर कोई संदेह करने की सोच भी नहीं सकता था।
हालाँकि ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं है कि इस तरह के अभ्यास अपने आप में पूर्ण हैं या फिर शारीरिक विकास, स्वास्थ्य रक्षा और रोगों से मुक्ति पाने का यही एकमात्र तरीक़ा है। यदि पाश्चात्य जगत अपने वैज्ञानिक शोध के शानदार तरीक़ों की सहायता से योग की परंपरागत पद्धतियों पर काम करे तो शायद हमें अपने शरीर का संपूर्ण ज्ञान और स्वास्थ्य पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त हो सकता है।
हालाँकि मैं जानता हूँ कि ऐसे योगाभ्यास और आसन एक दर्जन से अधिक नहीं है जिन्हें बिना कठिनाई के किया जा सकता है। शेष लगभग सत्तर आसन और मुद्राएँ इतनी कठिन हैं कि उन्हें कोई बहुत उत्साही और अत्यंत लचीले शरीर वाला कोई युवा व्यक्ति ही कर सकता है।
ब्रह्मा स्वयं भी स्वीकार करता है:
‘मैंने बारह वर्ष, प्रतिदिन बहुत कड़ा अभ्यास किया है और उसके बाद ही मैं इन चौंसठ मुद्राओं और आसनों को सीख पाया हूँ। यह मेरा सौभाग्य था कि मैंने यह आसन उस समय सीखने आरंभ किए जब मैं युवा था क्योंकि अधिक आयु होने पर इन्हें करने का प्रयास करना बहुत कष्टदायक होता है। किसी वयस्क व्यक्ति की हड्डियाँ और मांसपेशियाँ आदि लचीलापन खो देते हैं और इसलिए उन्हें हिलाने से काफ़ी दर्द होता है। तथापि यह बहुत हैरत की बात है कि सतत अभ्यास द्वारा इन आसनों को सीखा जा सकता है।’
मुझे ब्रह्मा की इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि सतत अभ्यास द्वारा कोई भी व्यक्ति इन आसनों को सीख सकता है। किशोरावस्था पूर्ण होते ही इनका अभ्यास शुरू करने से लाभ होता है और आरंभिक स्थिति में इन्हें सीखने से इनका महत्त्व भी बढ़ जाता है। जिस प्रकार करतब करने वाले भी अधिकतर वही लोग सफल होते हैं, जिन्हें बचपन से प्रशिक्षण दिया जाता है, उसी तरह शारीरिक नियंत्रण का अभ्यास करने वाले वही योगी सफल होते हैं जो अपना प्रशिक्षण पच्चीस वर्ष की आयु से पहले आरंभ कर देते हैं।
मुझे लगता है कि कोई भी वयस्क यूरोपीय व्यक्ति यदि इन आसनों को करने का प्रयास करेगा तो इस दौरान उसकी एकाध हड्डी अवश्य टूट जाएगी! मैं जब इस बारे में ब्रह्मा से बात करता हूँ तो वह मुझसे आंशिक रूप से सहमत होता है तथा अपनी बात पर अड़ा रहता है कि निरंतर अभ्यास द्वारा अधिकांश मामलों में सफलता प्राप्त हो जाती है। हालाँकि ऐसा सब मामलों में नहीं होता, परंतु वह इस बात से सहमत है कि यूरोपीय लोगों के लिए यह अधिक कठिन चुनौती भरा कार्य है।
‘हम पूरब वासियों को इस बात का लाभ भी मिलता है कि हमें बचपन से पैर मोड़कर बैठना सिखाया जाता है। क्या कोई यूरोपीय व्यक्ति दो घंटे अपने पैर मोड़कर स्थिर बैठ सकता है? इस तरह पैरों को मोड़कर बैठना हमारे योगासनों के आरंभिक अभ्यास का हिस्सा है। हम इसे सर्वोत्कृष्ट मानते हैं। क्या मैं आपको यह करके दिखाऊँ?’
इसके बाद ब्रह्मा ऐसा आसन लगाकर बैठ जाता है जिसे पाश्चात्य जगत के लोगों ने बुद्ध की तस्वीरों व चित्रों में देखा है। वह बिलकुल सीधा बैठकर अपने दाएँ पैर को मोड़कर उसे अपनी बाईं जाँघ में फँसा लेता है और बाएँ पैर को मोड़कर उसके पंजे को दाईं जाँघ के ऊपर ले आता है। ऐसा करने से उसकी एड़ी पेट के निचले कोने को स्पर्श करती है। उसके दोनों पैरों की एड़ियाँ ऊपर की ओर उठी हुई हैं। यह बहुत कलात्मक और संतुलित मुद्रा है। मुझे तभी विचार आता है कि मुझे भी उस आकर्षक मुद्रा को बनाने का प्रयास करना चाहिए।
मैं उसका अनुकरण करने का प्रयास करता हूँ। मेरे टखनों में बहुत तेज़ दर्द होता है लेकिन इस प्रयास में मुझे सफलता मिल जाती है। मैं शिकायत भरे लहजे में कहता हूँ कि मैं इस मुद्रा में एक क्षण के लिए भी नहीं बैठ सकता। मैंने भगवान बुद्ध की इस मुद्रा को दुकानों पर जब पीतल की आकर्षक मूर्तियों में बना देखा, तभी से मुझे यह बहुत शानदार प्रतीत होती है! परंतु अपने पैरों को मोड़कर स्वयं इस मुद्रा में बैठना कितना असहज है! ब्रह्मा की मुस्कान भी मुझे उस आसन में दोबारा बैठने के लिए प्रेरित नहीं कर पाती। मैं फ़िलहाल उस प्रयास को स्थगित कर देता हूँ।
ब्रह्मा कहता है, ‘आपके जोड़ बहुत अनम्य हो गए हैं। आपको यह अभ्यास करने से पहले अपने टखनों और घुटनों में थोड़ा तेल लगाना चाहिए। आपको कुर्सियों पर बैठने की आदत है, इसलिए इस मुद्रा में बैठने से आपके पैरों में दर्द हो रहा है। परंतु प्रतिदिन इसका थोड़ा अभ्यास करने से यह कठिनाई दूर हो जाएगी।’
‘मुझे संदेह है कि मैं यह आसन कभी सीख पाऊँगा!’
‘यह ग़लत है। आपको इसे सीखने में थोड़ा समय अवश्य लगेगा, लेकिन आपने इसे निश्चित रूप से सीख जाएँगे। एक दिन आपको सफलता मिलेगी और तब आपको हैरानी होगी। यह अचानक हो जाता है!
‘यह कितनी कष्टदायक है कि यातना जैसा महसूस हो रहा है!’
‘यह दर्द धीरे-धीरे कम हो जाता है। पूर्ण सफलता प्राप्त करने में कुछ समय अवश्य लगता है, परंतु आख़िरकार वह अवस्था आ जाती है जब इस मुद्रा को करने में कोई कठिनाई नहीं होती।’
‘परंतु क्या इसे करने से मुझे कुछ है लाभ होगा?’
‘अवश्य! हम इसे पद्मासन कहते हैं। यह इतना महत्त्वपूर्ण है कि हमारे किसी भी प्रशिक्षु को इसे छोड़ने की अनुमति नहीं होती। हालाँकि वह चाहे तो कुछ अन्य आसन और मुद्राओं को छोड़ सकता है। अपने ध्यान के अभ्यास को आगे बढ़ाने के लिए योगियों के जीवन में इस आसन का बहुत महत्त्व है। इसका एक कारण यह है कि इससे शरीर को ठोस आधार मिलता है, जिससे ध्यान की गहन अवस्था में चले जाने के बाद भी योगी के लुढ़क जाने की संभावना नहीं रहती। ऐसा अचानक हो जाता है क्योंकि योगी अपनी इच्छा से ध्यान अवस्था में चले जाते हैं। आपने देखा होगा कि पद्मासन में दोनों पैर आपस में जुड़ जाते हैं और इससे शरीर पूरी तरह स्थिर व शांत हो जाता है। व्यग्र और अस्थिर शरीर, दिमाग़ को भी बेचैन करता है। परंतु पद्मासन में बैठने से व्यक्ति शांति और नियंत्रण महसूस करता है। इस मुद्रा में बैठकर ध्यान की शक्ति को अर्जित करना आसान हो जाता है, जिसका हम लोगों के लिए बहुत महत्त्व है। अंत में, हम लोग इस मुद्रा में बैठकर श्वास क्रियाओं का अभ्यास करते हैं क्योंकि इन्हीं से अंदर, अध्यात्म की अग्नि प्रज्ज्वलित होती है जो शरीर के भीतर सुप्तावस्था में रहती है। यह अदृश्य ऊर्जा जिस समय जाग्रत होती है, शरीर में रक्त का प्रवाह नए सिरे से आरंभ होता है तथा कुछ विशिष्ट और महत्त्वपूर्ण स्नायु केंद्रों पर उस शक्ति का दबाव पड़ता है।’
मैं इतने स्पष्टीकरण से संतुष्ट हूँ और योगासन के विषय में इस वार्ता को विराम देता हूँ। ब्रह्मा ने शरीर पर असाधारण नियंत्रण को दर्शाने और मुझे संतुष्ट करने के लिए अनेक भयानक और कष्टदायी मुद्राएँ बनाई हैं। क्या किसी पश्चिमवासी में इन जटिल अभ्यासों को सीखने और उनमें पारंगत होने का धैर्य है? क्या उनके पास यह सब करने का समय है?
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‘गुप्त भारत की खोज’
लेखक : पॉल ब्रन्टन
अनुवाद : आशुतोष गर्ग
प्रकाशक: मंजुल प्रकाशन
पृष्ठ: 332
‘गुप्त भारत की खोज’
लेखक : पॉल ब्रन्टन
अनुवाद : आशुतोष गर्ग
प्रकाशक: मंजुल प्रकाशन
पृष्ठ: 332
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