बातें बेमतलब : किताब अंश

तो अवतार की घड़ी है. चिंता बड़ी है. बात यहीं अड़ी है किस रूप में अवतरित हो जावैं.
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भगवान कभी नेता रूपी अवतरित नहीं होने वाले


भरोसेमंद परंपरा रही है।
ईश्वर न्यूट्रल रहेंगे, हर तरह की पार्टीबाज़ी से बचेंगे। 
इलेक्शन तो ईश्वरत्व के लिए ही चुनौती दिख रहा है।
फिर विचारधारा तो हमेशा से सर्वहारा के उत्थान की रही है।
लेकिन सर्वहारा की बात करने पर कहीं लेफ़्टिस्ट मानकर किसी खांचे में न डाल दिया जाए। 
और विश्वकल्याण तो हज़ारों सालों से ख़ुदाई मेनीफे़स्टो रहा है। इसमें क्या चेंज होगा भला!

घोर कलियुग है। चुनाव सिर पर है। फु़ल चिल्लपों मची है। अवतार लेने का बख़त आ चुका है - भगवान मुस्कराए। मुस्कराहट कम हुई तो चिंता सताने लगी-कौनसा अवतार लें। भगवान जब चिंतित होते हैं तो चहुंओर खलबली मच जाती है। देवता हिल जाते हैं। चूंकि इंद्र के पास एडिशनल ज़िम्मेदारी है सो उसका सिंहासन डोलता है। वैसे सिंहासन किसी का भी हो, डोलना ही उसका मुख्य धंधा है। चुनावी दिनों में डोलने का काफ़ी काम निकल आता है।

तो अवतार की घड़ी है। चिंता बड़ी है। बात यहीं अड़ी है किस रूप में अवतरित हो जावैं। भगवान  ने  त्रिकालदर्शी वाला मॉनिटर ऑन किया।

जनता का उद्धार करें! देश का भी कल्याण करें! नेता बन जावैं! वैसे भी जनता ऊपर की तरफ़ ही निगाहें लगाए है। भगवान ने ख़ुद को संयत किया। घबराहट है लेकिन इनकार नहीं किया जा सकता है। पीछे नहीं हटा जा सकता है। तय रहा नेता रूप में ही अवतरित होंगे।

अब भगवान ने अवतार की बेसिक क्वालिफ़िकेशन पर ग़ौर करना शुरू किया। पार्टी बनेगी। विचारधारा रखनी पड़ेगी। मेनिफे़स्टो में वादे होंगे। पहले ही मुद्दे पर भगवान द्वंद्व में डूब गए। पार्टी कौन-सी हो।

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ईश्वर किसी पार्टी में कैसे हो सकते हैं? भरोसेमंद परंपरा रही है। ईश्वर न्यूट्रल रहेंगे, हर तरह की पार्टीबाज़ी से बचेंगे। इलेक्शन तो ईश्वरत्व के लिए ही चुनौती दिख रहा है। फिर विचारधारा तो हमेशा से सर्वहारा के उत्थान की रही है। लेकिन सर्वहारा की बात करने पर कहीं लेफ़्टिस्ट मानकर किसी खांचे में न डाल दिया जाए। विश्वकल्याण तो हज़ारों सालों से ख़ुदाई मेनिफे़स्टो रहा है इसमें क्या चेंज होगा भला! लेकिन अगले ही पल भगवान फिर चिंता में डूब गए। इस मेनिफ़ेस्टो से मानवजाति तो एड्रेस हो रही है, जातियां एड्रेस नहीं हो पाएंगी। उसे एड्रेस किए बिना तो इस देश में ख़ुद ख़ुदा भी चुनाव नहीं जीत सकता है। ईश्वर व्यावहारिक हैं जानते हैं विकट स्थिति है। लेकिन है तो है।

अचानक उन्हें नारे की भी याद हो आई। चुनाव में खड़े होंगे तो कोई साॅलिड-सा नारा भी तो लगेगा। “अबकी बारी, हरि-हरि...” जांचा-परखा-खरा सा नारा उन्हें कुछ जमा भी। लेकिन लगा चुनावी मौसम में कोई अपने बाप पर भी भरोसा नहीं करता है फिर नारा कैसे पॉपुलर बना पाएगा?

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बाक़ी चुनावी ज़रूरतों पर विचार किया तो लगा चमत्कारों की आदी जनता को कुछ आलौकिक दिखा दिया जाए तो काम बन सकता है। फिर याद आया, चमत्कारों से जनता का पिंड छुड़ाना ही तो उद्देश्य है। कहीं चमत्कार दिखा भी दिए तो अपनी निश्चित ही शिकायत हो जाएगी। आयोग कार्रवाई कर देगा। चुनाव लड़ने के ही अयोग्य हो जाएंगे। हाय राम! भगवान विपदा में डूबे भक्तों का कल्याण  नहीं कर सकते हैं। अवतार ही उद्देश्य की पूर्ति नहीं कर पा रहा है।

भगवान ने ‘हे ईश्वर!’ वाली मुद्रा में अपने हाथ ऊपर उठा दिए। ऊपर से सबसे दाग़ी उम्मीदवार का चुनावी पैम्फ़लेट हाथों में आ गिरा -‘सच्चे-ईमानदार को चुनिए। दुखियों का कल्याण जिसका मिशन-देश चलाने का जिसमें विज़न हो। धोखा मत खाइए, ऐसे एकमात्र उम्मीदवार के निशान पर बटन दबाइए।’

भगवान समझ गए। वे भगवान हो सकते हैं, नेतागिरी उनके बस की बात नहीं है। तबसे, भक्त हर पांच बरस में उम्मीद लगाते हैं बेचारों को पता नहीं है भगवान कभी नेता के रूप में अवतरित नहीं होने वाले...!

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अनुज खरे ने ढेर सारे व्यंग्य लिखे हैं. दो व्यंग्य संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं. उनके द्वारा लिखा नाटक 'नौटंकी' का कई शहरों में मंचन हो चुका है. उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हैं. अनुज खरे दैनिक भास्कर डॉट कॉम के संपादक हैं.
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'बातें बेमतलब’
लेखक : अनुज खरे
प्रकाशक : मंजुल प्रकाशन
पृष्ठ : 162
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